गुड़ी पड़वा पर राजस्थान के करौली में हिंसा, रामनवमी पर मध्यप्रदेश खरगोन में हिंसा और हनुमान जन्मोत्सव पर भारत के दिल यानी दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं ने देशवासियों को गहरे सदमे में ला दिया है। ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिक अलगाव की घटनाएं सिर्फ इन्हीं राज्यों में हुई हैं। कर्नाटक, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र समेत आधा दर्जन से ज्यादा राज्य अलगाव की आंच में झुलसे हैं। सामाजिक सौहार्द पर लगे 'जख्मों' से हर कोई आहत है। लोगों में इस बात को लेकर चिंता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि दो संप्रदायों के बीच अलगाव की यह खाई और चौड़ी हो गई।
सांप्रदायिक हिंसा की इन घटनाओं ने लोगों को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि कौन है जो नहीं चाहता कि समाज में सद्भाव कायम रहे, लोगों में भाईचारा बना रहे। हिंसा की इन घटनाओं के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुट गए हैं, लेकिन हिंसा की की यह 'आग' कब तक समाज को झुलसाएगी इसका जवाब किसी के पास नहीं है। लोगों के मन में इस बात को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि 'कश्मीर फाइल्स' फिल्म पर बयान देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को झुलसाने वाली इन घटनाओं पर क्यों मौन साधे हुए हैं? क्या उन्हें आगे बढ़कर लोगों से सद्भाव बनाए रखने की अपील नहीं करनी चाहिए?
हालांकि केन्द्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का बयान जरूर इस हिंसा पर आया है। उन्होंने कहा है कि कुछ लोग, जो देश में शांति और समृद्धि को पचा नहीं पा रहे हैं वे भारत की समावेशी संस्कृति को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। स्वाभाविक रूप से उनका इशारा कुछ विपक्षी पार्टियों की तरफ हो सकता है।
विपक्षी दलों ने भी इसका पूरा ठीकरा सत्ता पक्ष के सिर पर फोड़ने में देर नहीं की। संयुक्त बयान में 13 विपक्षी दलों ने कहा कि वे क्षुब्ध हैं कि भोजन, आस्था जैसे मुद्दों का इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से समाज का ध्रुवीकरण करने के लिए किया जा रहा है। सोनिया गांधी, शरद पवार, ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव सहित अन्य विपक्षी नेताओं ने लोगों से शांति और सद्भाव बनाए रखने और सांप्रदायिक हिंसा के अपराधियों को कड़ी सजा देने की संयुक्त अपील की है। विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री की चुप्पी पर विपक्षी दलों ने सवाल उठाया है।
प्रधानमंत्री मोदी से सांप्रदायिक हिंसा पर बयान की उम्मीद इसलिए भी है क्योंकि उन्होंने भाजपा संसदीय दल की बैठक में 'कश्मीर फाइल्स' फिल्म पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि कश्मीर में सत्य को दबाने का प्रयास किया गया। ऐसे में करौली हिंसा के करीब 18 दिन बाद भी प्रधानमंत्री का बयान न आना कहीं न कहीं यह संदेश दे रहा है कि वे इस तरह के मामले में 'सिलेक्टिव' हैं। अर्थात वे इस बात का फैसला अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर लेते हैं कि कहां बोलना है और कहां नहीं बोलना है।
हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पीएम मोदी ने पिछले कार्यकाल में मॉब लिंचिंग की घटनाओं सार्वजनिक रूप से बोलने के बाद इस तरह की घटनाओं पर रोक लगी थी। अब लोगों को उम्मीद है कि 21 अप्रैल को सिख गुरु तेग बहादुरजी के 400वें प्रकाश पर्व पर लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए मोदी सामाजिक सद्भाव का संदेश देते हुए सांप्रदायिक हिंसा पर भी कुछ बोलें। यदि वे नहीं बोलते हैं तो लोगों के मन में सवाल इसी तरह घुमड़ते रहेंगे।