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चिंतन : 'शहीद कहोगे मुझे या मेरी हत्या हुई है?'

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रेखा भाटिया

जब रोना है, मैं रो लेती हूं। हंसना है, वह भी कर लेती हूं। खाना-पीना भी ले लेती हूं। अपना जीवन भी जी लेती हूं। खुशियां भी मना लेती हूं। तीज-त्योहार व दैनिक जीवन भी चल रहा है इस आज़ाद मुल्क में। सारे कर्तव्य भी निभा रही हूं। एक और कर्तव्य है मेरा अपना चुना हुआ। हर रोज की शुरुआत चाय के साथ भारतीय अखबार पढ़कर ही करती हूं। बचपन की आदत को कभी नहीं बदला है। सुबह की दोस्ती 'नईदुनिया' से तब, 'वेबदुनिया' से अब। भारत की गंदी राजनीति को अनीति मानकर नकार देती हूं, ज्यादा तवज्जो नहीं देती और अफ़सोस करती हूं। सोचती हूं ऐसे भारत का सपना न गांधीजी ने देखा था, न ही झांसी की रानी ने, न ही विवेकानंदजी ने, न ही सांईं बाबा (गुरु जिन्होंने धर्म से ऊपर उठकर सभी भक्तों को समानता की दृष्टि से देखा) ने।
 
 
कुछ दिन पहले भारत घूमने आई थी, कन्याकुमारी तक घूम आई। देखा कि सभी श्रद्धालु विवेकानंदजी के स्मारक के भीतर उनकी मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे और मनोकामनाएं मांग रहे थे, जैसे हम मंदिर में मांगते हैं। सोचने पर मजबूर हो गई आज कि मूर्ति के आगे मनोकामना मांगने से क्या वह पूरी हो जाएगी?

विवेकानंदजी के आदर्शों व सिद्धांतों को हम में से कितनों ने सच्चे अर्थों में जीवन में उतारा है? काश! आज देश में महान हस्तियों की मूर्तियों के बजाय उनके आदर्शों की गहरी पैठ सभी हृदयों में गहराई से होती तो भारत की राजनीति की तस्वीर आज़ादी के बाद बहुत ही निश्छल और साफ-सुथरी होती, जनता का सिस्टम पर गहरा विश्वास होता। यह एक चिंतन ही तो है, जो मन में गहरे उत्थान की क्रिया करता है।

 
हिन्दी फिल्मों का शौक है, एक प्रमुख स्रोत भारत को अपने करीब महसूस करने का। घर से 10 मिनट की दूरी पर हिन्दी फ़िल्में यहां जब से थिएटर में लगने लगी हैं, हम सभी की पौ-बारह हो गई है। मेरे प्रांत में भारतीयों की संख्या बहुत है। कोई भी अच्छी फिल्म लगी नहीं कि मेरी बांछें खिल उठती हैं, उस फिल्म को देखने के लिए लालायित हो जाती हूं।
 
फ़ौज में जाना चाहती थी। कुछ दिन पहले देशप्रेम के जज्बे से ओत-प्रोत फिल्म देखी, 'उरी- दि सर्जिकल स्ट्राइक' लेट नाइट फर्स्ट डे शो। दिल को खूब लगी। उस दिन भी रगों में बहते खून में गर्मी महसूस की। सभी दर्शकों की आंखों में आंसू थे। सभी का मन भारी हो रहा था शहीद जवानों के लिए और गर्वित भारतीय सेना के लिए। हॉल में सन्नाटा छाया था। सभी सन्न से अपनी सीट से चिपके बैठे थे। फिर किसी ने नारा लगाया- 'भारतमाता की जय', तब सभी एकसाथ चिल्ला पड़े- 'भारतमाता की जय'। मूवी देख ऐसा अहसास हो रहा था, जैसे सारी घटना की हम स्वयं साक्षात गवाही दे रहे हैं, जो पहले अखबार के किसी कोने में मात्र एक और समाचार ही था। प्रवासी भारतीय चिंता तो करता है भारत की हमेशा-हमेशा, परंतु मुख्य धारा से कटा हुआ और दुनिया के किसी अन्य कोने में बैठ 'रिक्तता के आभास' के साथ भी जीता है।

 
जब टिकट बुक की तो आखिरी मिनट पर आगे की सीट मिली और पैसे पूरे भरे। छोटे बजट की फिल्म है, बड़ा-सा कोई स्टार भी नहीं है फिर यह फिल्म हम क्यों देखने जा रहे हैं, वह भी पैसे भरकर आगे वाली सीटों के लिए? पति नाराज़ हो रहे थे। मैंने फिल्म की समीक्षा 'वेबदुनिया' में पढ़ ली थी। विक्की कौशल 'राज़ी' फिल्म वाला एक्टर है, बढ़िया है, जरूर इसे देखेंगे। फिल्म देखने के बाद हम दोनों का हाल व जज़्बात एक जैसे थे। भारतीय सेना के लिए कभी हम दोनों सपना जीते थे 'देशसेवा का'।

 
बाहर निकल पति ने कहा कि हमें ऐसी फ़िल्में जरूर देखनी चाहिए सपोर्ट करने के लिए, उन शहीद जवानों के लिए, जिनके बारे में सिर्फ एक खबर आती है कि फलां जगह 4 जवान शहीद हुए। आगे-पीछे के उनके जीवन की कहानियां, उनकी और उनके परिवारों की कुर्बानियां, सच्चाई किसी को पता नहीं चलती, सिर्फ एक साधारण न्यूज़ से बढ़कर किसी को मतलब नहीं। लोगों में ऐसी फ़िल्में देखकर देशप्रेम की भावना को जिंदा रखने में सचमुच में मदद मिलती है, जागरूकता बढ़ती है।

 
आजकल की ख़बरें अर्थहीन ही होती हैं। सभी राजनेता और पार्टियां एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं। जातिवाद व धर्मवाद की छिछोरी राजनीति का खेल खेलते हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, वोट बैंक के लिए जनता में फूट डालकर किसी को सत्ता और कुर्सी की पड़ी है, देश के बारे में कोई नहीं सोचता? हम दोनों खुश थे, गर्वित थे। फिल्म सुपर-डुपर हिट हो गई, भारतीय जनता ने तहेदिल से भारतीय सेना की कुर्बानियों का शुक्रिया अदा किया, मसाला फिल्मों को ठुकराकर सच्ची कहानी को नमन किया।

 
'उरी' फिल्म अभी भी बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा ही रही थी कि अचानक यह भयानक ख़बर अखबार में पढ़ी कि पुलवामा में उरी से भी बड़ा हमला। कई जवान शहीद हुए हैं। ऐसा लगा मानो यह एक दु:स्वप्न है, हकीकत कुछ भी नहीं। 'उरी' मूवी का पार्ट टू दूसरा भाग, जैसा कि अक्सर आजकल की फिल्मों में होता है कि पहली फिल्म हिट तो दूसरा पार्ट बनता है। क्या आतंकवादियों ने खुन्नस निकलने के लिए प्रेम-दिन 14 फ़रवरी को सोची-समझी योजना से इस घृणित हमले को अंजाम दिया। परंतु यह एक हैवानियतभरी सच्चाई थी और दिल जिसे मानने को तैयार नहीं था। मस्तिष्क शून्य। प्राण बने पत्थर। काया शिथिल।

 
आज न तो अखबार से नज़र हट रही थी, न ही टीवी के सामने से उठा जा रहा था। हृदय छिन्न-भिन्न व तार-तार था। भगवान से सभी शहीदों की आत्मिक शांति के लिए प्रार्थना की। कोई पत्थरदिल ही होगा, जो आज न रोया होगा। कब तक और आखिर कब तक यह खूनी मंजर का खेल आतंकवाद देश में निर्दोष जवानों की मौत का कारण बनेगा? कितनी और बलियां चढ़ेंगी और आखिर कब तक? प्रवासी भारतीय हृदय भी उतने ही आंसू बहाता है जितने कि एक भारतीय। यह एक 'भारतीय' शब्द हम सभी को एक ही सूत्र में बांधे रखता है। आज टीवी के आगे दिनभर बैठकर देखा कि कैसे देश के विभिन्न प्रांतों से, विभिन्न संप्रदायों के लोग, विश्वविद्यालयों के छात्र, विभिन्न पार्टियों और संघों के लोग शोक में डूबे, नारे लगाते, हाथ में मोमबत्तियां लिए सरकार पर इस घिघौने कृत्य के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए दबाव बना रहे थे। यह देखकर गर्व महसूस हुआ। जागरूकता जनता में बढ़ रही है।

 
काश! काश! कि लोगों का विद्रोह खोखली राजनीति की नींव हिला दे। काश! सभी पार्टियां मिलकर आज 'पुलवामा- सर्जिकल स्ट्राइक पार्ट टू' की एक ऐसी स्क्रिप्ट लिखें और पड़ोसी देश को ऐसा सबक सिखाएं कि उसकी पीढ़ियां याद रखे। मुझे याद है, जब अमेरिका में 9/11 अटैक हुआ था, इतिहास का सबसे बड़ा आत्मघाती हमला। पूरा अमेरिका शोक में डूबा हुआ था, तब प्रेसीडेंट बुश ने अमेरिकी जनता को संबोधित करते कहा था, 'आतंकवाद 'चेहराविहीन' दुश्मन है जिसकी पहचान करना बहुत मुश्किल है। वो कहां छिपा बैठा है, कौन है? परंतु हमारे हौसले बुलंद हैं।' सात समुंदर पार घुसकर आतंकवाद की कमर तोड़ दी थी अमेरिकी सेना ने। भारत में आतंकवाद का समर्थन कौन करता है? कैसे आतंकवादी देश के भीतर सीमाओं में घुसकर ड्यूटी पर तैनात जवान, जो देश व जनता की रक्षा करते हैं, उन्हीं पर जानलेवा हमला कर देते हैं?

 
जब किसी जवान की ऐसे कायराना हादसों में मौत होती है तो दुनिया कहती है कि 'जवान शहीद हो गया।' कोई उस जवान की आत्मा से जाकर पूछे तो वह कहेगा कि मैं तो सरहद पर या भीतर देश व जनता-जनार्दन की रक्षा करने हेतु अपने धर्म, सदाचार व कर्तव्य का पालन करने के निमित्त अपने प्राण देना चाहता था। मेरी तो देश की सीमाओं के भीतर हत्या हुई है, मानवता की हत्या हुई है और आप इसे मेरी कुर्बानी समझकर मेरा अपमान कर रहे हैं। मेरी मौत के लिए सभी की कायरता जिम्मेदार है और ऐसी कितनी कुर्बानियां चाहेंगे? यह शहादत नहीं, हत्या है। चंद श्रद्धांजलि के शब्द, भाषण, चार आंसू और कुछ दिनों की अखबार की सुर्खियां! क्या सिर्फ इतना ही देश के जवानों के प्रति सबका कर्तव्य और देशप्रेम है? 
 
लोकतंत्र की ताकत नेताओं की गंदी राजनीति से कब जीतेगी? दोस्ती तब तक ही भली है, जब तक कि वह अहंकार को ख़त्म करती है। दोस्ती जब स्वाभिमान को भस्म कर दे तो वह दोस्ती भाईचारा नहीं, घातक रोग है, आत्महत्या है। दोस्ती व भाईचारे के नाम पर बहला-फुसलाकर आतंकवाद को बढ़ावा देकर पड़ोसी मुल्क आतंकवादियों की मदद कर भारत के सौहार्द व भाईचारे का सरेआम मजाक बना रहा है। अब भी क्या भारत के पूज्य सर्वोच्च नेता हाथ जोड़कर पड़ोसी देश का अभिनंदन कर मरते भारतीय सैनिकों की मौत को भुला आपसी भाईचारे व सौहार्द की बातें ही करेंगे? भारतीय जनता व भारतीय सेना के मनोबल को आत्महत्या के लिए छोड़ देंगे?
 
 
जितने भी नेता हैं देश में, उनके चमचे-अमचे कुल मिलाकर जितनी भी संख्या होगी, उन्हें कभी झुंड में खड़ा कर जम्मू-कश्मीर की सड़कों पर पत्थर खाने को छोड़ दिया जाए सिर्फ एक दिन के लिए और महसूस कराया जाए वह डर, दर्द, घिनौना अनुभव और वह पीड़ा जो हमारे जवान सहते हैं, तो कैसा रहेगा?
 
क्या फायदा है प्रजातंत्र का? नेता तो बैठ कुर्सी पर राज करें, जवान मरते रहें? पुराना ज़माना क्या बुरा था? कम से कम से राजा स्वयं हथियार उठा जरूरत पड़ने पर देश के लिए लड़ते तो थे। माना जमाना बदल गया है, फिर भी निर्दोष सच्चे देशभक्त जवानों की अकाल दर्दनाक मृत्यु का अपमान नहीं होने दो।

 
संपूर्ण भारत आज कर्जदार है देश के जवानों की असमय हुई मृत्यु का, कैसे चुकता करोगे? क्या ममताजी अब अनशन करेंगी, अखिलेश जबरदस्ती धरना देंगे, केजरीवाल अन्ना संग मिल भिड़ेंगे, सारा विपक्ष गठबंधन कर मोदीजी से भिड़ जाएगा? मोदीजी आपको निर्भय निर्णय लेना है देश के हित के लिए, हम साथ-साथ हैं। कश्मीर, राम मंदिर व आरक्षण के मुद्दे आखिर कब तक सुलगते रहेंगे और देश के सम्मान को राजनीति के हाशिये पर वोट बैंकों की लालच की भूख के नाम पर सुलगाते रहेंगे?

 
भगवान राम ने रावण को कई बार चेताया, परंतु वह टस से मस नहीं हुआ, तब रामजी ने भी बुराई को ख़त्म करने के लिए, मानवता के कल्याण के लिए अंत में शस्त्र उठाए थे। आज जिस रामजी के मंदिर के लिए हम आपसी खून बहाने को तैयार हैं, उनकी सीख को कब जीवन में उतारेंगे? क्या रामजी को मंदिरों व मूर्तियों में ही रखना चाहेंगे? सबके अंदर का राम क्या मर गया है? सिर्फ मूर्तियों को ही पूजते रहना चाहते हो, चाहे वो राम की हो, गांधी की हो, सुभाषचंद्र बोस की या विवेकानंद की? फिर उन मूर्तियों को मंदिरों में स्थापित करने के लिए एक-दूसरे के प्राण लेना?

अब बस, भारतीयों को अब उनका वक्त चाहिए, हक़ चाहिए, शांति, अमन व तरक्की चाहिए। प्रेसीडेंट ट्रंप कम से कम देश की सुरक्षा के लिए सरकारें रोककर बैठे हैं, ज़िद पर अड़े हुए हैं, तो क्यों बुरे हैं?


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