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प्रवासी साहित्य : क्या तुम्हें एहसास है?

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लावण्या शाह

क्या तुम्हें एहसास है अनगिनत उन आंसुओं का?
क्या तुम्हें एहसास है सड़ते हुए नरकंकालों का?
क्या तुम्हें आती नहीं आवाज, रोते नन्हे मासूमों की?
क्या नहीं जलता हृदय देख पीड़ितों को?
 
अफ्रीका-एशिया के शोषित, बीमार, बेघर, शोषित कोटि मनुज, 
अनाथ बालकों की सूनी लाचार आंखें देख-देखकर।
क्या नहीं दुखता दिल तुम्हारा, आंख भर आती नहीं क्यों?
क्यों मिला उनको ये मुकद्दर खौफनाक दु:ख से भरा?
 
कितने भूखे-प्यासे बिलखते रोगीष्ट आधारहीन जन, 
छिन्न-भिन्न अस्तित्व के बदनुमा दाग से ये तन।
लाचार आंखें पीछा करती हुईं जो न रो सकें, 
ये कैसा दृश्य देख रही हूं मारकर मेरा मन।
 
एहसास तो है उनकी विवशताओं का मुझे भी,
पर हाय! कुछ कर नहीं पाते कुछ ज्यादा ये हाथ मेरे। 
लाघवता मनुज की ये असाधारण विवशता ढेर-सी, 
भ्रमित करती मेरे मन की पीड़ा मेरे ही हृदय को।
 
यह वसुंधरा कब स्वर्ग-सी सुंदर सजेगी देव मेरे?
कब धरा पर हर जीव सुख की सांस लेगा देव मेरे?
कब न कोई भूखा या प्यासा रहेगा ओ देव मेरे?
कब मनुज के उत्थान के सोपान का नव सूर्योदय उगेगा?
 

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