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प्रवासी साहित्य : चलो गांव लौट चलें

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रेखा भाटिया

चलो गांव लौट चलें
फिर से बुलाएं बारिशों को
गड़गड़ाते बादलों संग झूमे
हल्ला-गुल्ला खूब शोर मचाएं!
 
बिखरे सपनों को जोड़ें  
हल चलाएं जोतें खेत  
श्रम साधना के गीत गाएं
नहरों में कश्तियां चलाएं!
 
शुद्ध हवा में थोड़ा सुस्ता लें
भर प्राणवायु फेफड़ों में
प्रदूषित शरीर को स्वस्थ करें
तरोताज़ा होकर श्रम करें!
 
लहराते खेतों में बैठ सोचें
लें पक्का संकल्प, करें हवन
स्वावलंबन से, आत्मसम्मान से
प्रवासी नहीं भारतवासी हैं हम!
 
शहरों के रास्ते गांव तक मुड़ेंगें
ग़र जो मेहनत पर है भरोसा अपने
हर संघर्ष को सहर्ष स्वीकारेंगे
सरकारें झुकेंगी जब पेट में भूख लगेगी!
 
मानवता को भूली है शहरी सभ्यता
आओ इन्हें याद दिलाएं भारतीयता
परिश्रमी किसी के मोहताज नहीं
धरती पर जीवित रखते हम मानवता।

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