अमावस्या, पूर्णिमा और मुख्य दिनों में श्राद्ध कर्म या तर्पण किया जाता है। तर्पण मुख्यत: 6 प्रकार के होते हैं- देव-तर्पण, ऋषि-तर्पण, दिव्य-मानव-तर्पण दिव्य-पितृ-तर्पण, यम-तर्पण और मनुष्य-पितृ-तर्पण। द्वितीय गोत्र तर्पण, इतर तर्पण और भीष्म तर्पण भी होते हैं। श्रावण पूर्णिमा को ऋषि तर्पण करने का महत्व है।
1. ऋषि तर्पण के साथ ही इस दिन पितरों के निमित्त तर्पण-अर्पण भी किया जाता है। ऋषि तर्पण से उन्हें भी तृप्ति होती है।
2. देव तर्पण पूरब दिशा की ओर, ऋषि तर्पण उत्तर दिशा की ओर और पितृ तर्पण दक्षिण दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए।
3. देवताओं को एक, ऋषियों को दो और पितरों को तीन बार जलाजंलि देनी चाहिए।
4. पितृ और ऋषियों के आशीर्वाद से धन-धान्य, सुख, संपदा एवं दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
5. ग्रंथों में श्रावण पूर्णिमा को पुण्य प्रदायक, पाप नाशक और विष तारक या विष नाशक भी माना जाता है जो कि खराब कर्मों का नाश करता है। श्रावणी उपाकर्म में पाप-निवारण हेतु पातकों, उपपातकों और महापातकों से बचने, परद्रव्य अपहरण न करने, परनिंदा न करने, आहार-विहार का ध्यान रखने, हिंसा न करने, इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती है।
ऋषि तर्पण में निम्न ऋषियों का तर्पण किया जाता है। तर्पण करते वक्त निम्नलिखित मंत्रों का पढ़कर अंजली षियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें।
ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।
ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।
ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।
ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।
ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।
ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥