बदायूं में सपा और भाजपा का नए चेहरों पर दांव, शिवपाल के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न
1996 से 2014 तक बदायूं लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी का रहा है कब्जा
History of Badaun Lok Sabha seat: पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में बदायूं सीट गंवाने वाली समाजवादी पार्टी को इस बार यहां 2 बार उम्मीदवार बदलने पड़े। पहले सपा ने यहां से अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन बाद में उनके स्थान पर चाचा शिवपाल यादव के नाम की घोषणा की गई। फिर धर्मेन्द्र यादव को आजमगढ़ से टिकट दिया गया। हालांकि नाम के ऐलान के बाद शिवपाल यादव ने भी इस सीट से चुनाव लड़ने में अरुचि दिखाई। दरअसल, शिवपाल चाहते थे कि उनके बेटे आदित्य यादव को यहां से उम्मीदवार बनाया जाए। अखिलेश ने भी चाचा की इच्छा का सम्मान करते हुए इस सीट से अपने चचेरे भाई आदित्य (शिवपाल के बेटे) को मैदान में उतार दिया।
इस बार आसान नहीं भाजपा की राह : दूसरी ओर, भाजपा ने भी वर्तमान सांसद संघमित्रा मौर्य का टिकट काटकर यहां से दुर्विजय शाक्य को उम्मीदवार को बनाया है। पहले से ही अटकलें थीं कि इस बार पिता स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा और हिन्दुत्व विरोधी बयानों के कारण संघमित्रा को लोकसभा टिकट नहीं मिलेगा, ऐसा हुआ भी। स्वामी प्रसाद ने राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी के नाम से नए दल का गठन कर लिया है। पिछली बार संघमित्रा ने अखिलेश के चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को 18000 से ज्यादा वोटों से हराया था। हालांकि धर्मेन्द्र ने 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट पर जीत हासिल की थी। हालांकि इस बार भाजपा की राह आसान नहीं होगी क्योंकि सपा नेता शिवपाल यादव को कुशल संगठक माना जाता है और वे अपने बेटे की जीत के लिए पूरी ताकत लगा देंगे।
1996 के बाद 2019 में हारी सपा : बदायूं सीट पर 1996 से 2014 तक लगातार समाजवादी पार्टी का कब्जा रहा है, लेकिन 2019 में उसके दिग्गज नेता धर्मेन्द्र यादव भाजपा की संघमित्रा मौर्य से चुनाव हार गए थे। इस बार भी सपा ने पहली सूची में बदायूं से धर्मेन्द्र को ही उतारा था, लेकिन तीसरी सूची आते-आते उनके स्थान पर अखिलेश और धर्मेन्द्र के चाचा शिवपाल को उम्मीदवार बना दिया गया।
2014 के चुनाव में धर्मेन्द्र यादव ने भाजपा के वागीश पाठक को 1 लाख 66 हजार वोटों के बड़े अंतर से हराया था। 2019 में कांग्रेस के सलीम शेरवानी करीब 52 हजार वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर रहे थे, लेकिन इस बार कांग्रेस और सपा का गठजोड़ हो गया है। इसलिए भी शिवपाल यादव का दावा मजबूत माना जा रहा है। उम्मीदवारी पहले घोषित होने से शिवपाल को चुनाव प्रचार और अपनी रणनीति बनाने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा।
5 में से 3 सीटों पर सपा विधायक : यूपी की यह लोकसभा सीट 5 विधानसभा क्षेत्रों- गुन्नौर, बिसौली, सहसवान, बिल्सी और बदायूं में बंटी हुई है। इनमें से गुन्नौर, बिसौली और सहसवान पर सपा का कब्जा है, जबकि बदायूं शहर समेत 2 सीटों पर भाजपा के विधायक हैं।
क्या है सीट का चुनावी इतिहास : यदि इस सीट के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो इस सीट पर 1952 के पहले चुनाव में कांग्रेस के बदन सिंह विजयी रहे थे। 1957 में भी कांग्रेस को जीत मिली, लेकिन 1962 और 1967 में यहां से भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार ओंकार सिंह चुनाव जीते थे। 1971 में यहां एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई, लेकिन अगला चुनाव जनता पार्टी के ओंकार सिंह ने जीता।
1989 के लोकसभा चुनाव में इस सीट पर जनता दल के दिग्गज नेता शरद यादव भी चुनाव जीत चुके हैं। 1991 में भाजपा के स्वामी चिन्मयानंद चुनाव जीते थे। इसके बाद 1996 से 2014 तक इस सीट पर सपा का कब्जा रहा। 1991 के बाद 2019 में भाजपा को इस सीट पर जीत मिली थी। इस जीत के लिए उसे 28 साल इंतजार करना पड़ा।
जातिगत समीकरण : बदायूं सीट का जातीय समीकरण भी समाजवादी पार्टी के पक्ष में दिखाई देता है। यहां बड़ी संख्या में यादव और मुस्लिम वोटर हैं। यादव वोटरों की संख्या करीब 4 लाख के आसपास है, जबकि मुस्लिम वोटरों की संख्या यहां 3 लाख 75 हजार के लगभग है। 1 लाख 75 हजार यहां एससी मतदाता हैं, गैर यादव ओबीसी मतदाताओं की संख्या भी यहां काफी है। इनकी संख्या 2 लाख 25 हजार से ज्यादा है। सवा लाख करीब वैश्य और ब्राह्मण मतदाता हैं। मुस्लिम-यादव समीकरण के कारण ही यहां सपा को जीत मिलती रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय इस सीट पर कुल वोटरों की संख्या 10 लाख 81 हजार 111 थी।
बदायूं का इतिहास : 11वीं सदी के शिलालेख के आधार पर माना जाता है कि गंगा नदी के किनारे बसे बदायूं शहर का पुराना नाम वेदामऊ था। इसे वेदों की नगरी माना जाता था। इसको लेकर यह भी मान्यता है कि इस नगर को अहीर सरदार राजा बुद्ध ने 10वीं सदी में बसाया था, जो वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले थे। गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने इस शहर को 4 साल तक अपनी राजधानी बनाया था। बदायूं में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के परिवार के बनवाए हुए कई मकबरे हैं। अलाउद्दीन ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बदायूं में ही बिताए थे।