हिरण्यगर्भ दान : इस दान की तैयारी और व्यवस्था तुला पुरुष दान जैसी ही होती है। दान देने वाला मृदंग के आकार या सुनहले कमल के आकार का कुंड बनाता है। इसकी ऊंचाई बहत्तर अंगुल और चौड़ाई, अड़तालीस अंगुल होनी चाहिए। इस सोने के पात्र को हिरण्यगर्भ कहा जाता है। इसे तिल के ढेर पर रखा जाता है।
पौराणिक मंत्रों से इस पात्र को संबोधित किया जाता है, उसे हिरण्यगर्भ (सृष्टि रचयिता) के समान माना जाता है। दान देने वाला उस पात्र के अंदर उत्तर की ओर मुंह कर बैठ जाता है।
यह गर्भ में स्थित शिशु की तरह पांच बार सांस लेने की अवधि तक उसमें बैठा रहता है। उसके हाथों में ब्रह्मा और धर्मराज की स्वर्ण प्रतिमा रहती है।
गुरु इस पात्र के ऊपर गर्भाधान, पुंसवन आदि के मंत्र पढ़ता है। इसके बाद मंगल बाजे बजाए जाते हैं। गुरु दानकर्ता को पात्र से बाहर निकल आने को कहता है और उसके बाकी संस्कार करता है।
दान देने वाला हिरण्यगर्भ के लिए मंत्र पाठ करता है। फिर वह कहता है- पहले मैं नश्वर शरीर के रूप में मां के गर्भ में पैदा हुआ था, किंतु अब मैं गुरु के आदेश से दिव्य शरीर धारण करूंगा। यह हिरण्यगर्भ पात्र गुरु और यज्ञ कराने वालों में बांट दिया जाता है।