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रामचरित मानस की ये 10 चौपाई आपके जीवन को बदल देगी, होगा चमत्कार

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WD Feature Desk

Ramcharitmanas ki chaupai: अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन और प्राण प्रतिष्ठा का समारोह 22 जनवरी 2024 सोमवार को होने वाला है। तुलसीदासकृत रामचरित मानस में सिर्फ रामकथा ही नहीं है बल्कि यह जीवन संबंधी ज्ञान का भंडार है। रामचरित मानस में ऐसी कई चौपाइयां हैं जो हमें प्रेरणा देती हैं और यदि हम उनकी बातों को मानते हैं तो वह हमारे जीवन को आसान बनाने का काम करती है। आओ जानते हैं इन्हीं में से 10 चौपाइयों को अर्थ सहित।
 
पढ़ें संपूर्ण रामचरित मानस.....रामचरित मानस
 
1.
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
भावार्थ:- जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥
 
2. 
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
अर्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥
 
भावार्थ : प्रभु श्रीराम कहते हैं कि मूर्ख से विनयपूर्वक बात नहीं करना चाहिए मूर्ख लोगों को डराकर ही उनसे काम करवाया जा सकता है। इसी के साथ कुटिल स्वभाव वाले व्यक्ति के साथ प्रेमपूर्वक बात नहीं करना चाहिए। यह सदैव दूसरों को कष्ट ही देते हैं और इन पर भरोसा करना घातक होता है। कंजूस से सुंदर नीति अर्थात उदारता या उपदेश से काम नहीं चलता है। अत: उससे किसी की मदद या दान की अपेशा नहीं करना चाहिए।
 
3.
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
भावार्थ:- ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥
 
भावार्थ:- ममता में फंसे हुए व्यक्ति से कभी भी ज्ञान की बात न करें। वह सत्य और असत्य में भेद नहीं कर पाता है। इसी तरह अति लोभी व्यक्ति के समक्ष त्याग या वैरोग्य की महिमा का वर्णन करना व्यर्थ है। इसी तरह जिस व्यक्ति को हर समय क्रोध आता रहता है उससे शांति की बातें करना व्यर्थ है। कामी व्यक्ति यानी वासना से भरे व्यक्ति के समक्ष कभी भी भगवान की बातें नहीं करना चाहिए।
 
4.
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।
अर्थ : हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥
 
भावार्थ:- विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। यही तारने वाला नाम है।
 
5. 
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
अर्थ : जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
 
6.
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
अर्थ : सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥
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6. 
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥
अर्थ: जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥
 
7.
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेहुँ मुनिनाथ।
हानि, लाभ, जीवन, मरण,यश, अपयश विधि हाँथ।
अर्थ : मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥ भले ही लाभ हानि जीवन, मरण ईश्वर के हाथ हो लेकिन हानि के बाद हम हार मानकर बैठें नहीं। ये हमारे ही हाथ हैं। 
 
8.
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
अर्थ : हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥
 
9.
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी।।
अर्थ : साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित और विज्ञानी-॥3॥  निम्न चौपाई जो बताती हैं की राम ही साधन हैं और राम ही साध्य हैं। जहां साधन और साध्य का भेद भी नहीं रहता।
 
10.
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
अर्थ : संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं॥

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