-एस. बालाकृष्णन, चेन्नई से
अन्तत: तमिलनाडु की सत्ता के आकाश में 'सूर्य' उदित हो ही गया। 68 वर्षीय एमके स्टालिन की 7 मई को मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी होने जा रही है। द्रविड़ मुन्नैत्र कड़गम (डीएमके) के मुखिया स्टालिन पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। 234 सदस्यीय विधानसभा के लिए डीएमके ने बहुमत (118) से कहीं ज्यादा 156 सीटें हासिल की हैं। जबकि, पिछले चुनाव में डीएमके को 98 सीटें ही मिली थीं। 10 साल तमिलनाडु की सत्ता में रही एआईएडीएमके को अब विपक्ष में बैठना होगा।
जहां तक वोट प्रतिशत का सवाल है तो दोनों ही प्रमुख पार्टियों के बीच 4 फीसदी से ज्यादा का अंतर है। डीएमके को जहां 37.65 फीसदी वोट मिले, वहीं एआईएडीएमके को 33.27 प्रतिशत हासिल हुए। वहीं, कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत क्रमश: 4.28 और 2.60 प्रतिशत रहा। इस चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके के साथ गठजोड़ किया था तो भाजपा ने एआईएडीएमके के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।
डीएमके की जीत का सबसे बड़ा कारण एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर प्रमुख रूप से रहा है। वैसे भी यहां के लोग लगातार किसी एक पार्टी की सत्ता बनाए रखना पसंद नहीं करते। बहुत लंबे समय बाद पिछली बार ही ऐसा हुआ था जब जयललिता के नेतृत्व में एआईडीएमके ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाई थी।
एआईडीएमके की हार की एक और खास वजह रही, वह थी जयललिता की गैरमौजूदगी। लोगों का ऐसा मानना है कि वे तमिलनाडु के अधिकारों के लिए हमेशा लड़ीं, लेकिन पार्टी के वर्तमान नेता भाजपा की 'कठपुतली' से ज्यादा कुछ नहीं थी। एआईडीएमके को कृषि कानून और सीएए का समर्थन करना भी महंगा पड़ गया। इससे लोगों में गलत संदेश गया।
पिछले चुनाव में जललिता ने 'मोदी या लेडी' का नारा दिया था, लेकिन इस बार सब उलट था। एआईडीएम ने इस चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया था। पार्टी का यह निर्णय भी कहीं न कहीं उसकी 'हैट्रिक' में रोड़ा बन गया। भाजपा से गठजोड़ की रणनीति पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुई। ऐसे में एमके स्टालिन की राह और आसान हो गई। वे अपने घोषणा पत्र से भी मतदाताओं पर छाप छोड़ने में सफल रहे।
इस चुनाव में धर्मनिरपेक्षता भी एक बड़ा मुद्दा रहा। राज्य की पूर्व मुख्यंमत्री और एआईडीएमके की मुखिया स्व. जयललिता का अल्पसंख्यक समुदाय में भी अच्छा होल्ड था। वे हमेशा ही भाजपा की हिन्दुत्व वाली राजनीति का विरोध करती थीं। अल्पसंख्यकों में इस बात को लेकर नाराजगी थी जयललिता से जहां उन्हें समर्थन मिलता था, वहीं उनकी पार्टी के सांसदों ने दिल्ली में सीएए का समर्थन कर दिया। इससे अल्पसंख्यक वोट एआईएडीएमके से छिटक गया, जिसका फायदा डीएमके को मिला।
गठबंधन के मामले में भी एआईएडीएमके कमतर ही साबित हुई। वहीं, डीएमके ने कई पार्टियों के साथ मजबूत गठबंधन बनाया। इस चुनाव में कांग्रेस, दलित पार्टी वीसीके, सीपीआई, सीपीएम, वाईको की एमडीएमके, एमएमके, आईयूएमएल आदि पार्टियों के साथ डीएमके ने प्रभावी गठजोड़ किया। साथ ही भाजपा विरोधी वोट भी डीएमके की झोली में गिर गए।
वेन्नियार समुदाय को ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण देने का दांव भी एआईडीएमके के लिए उलटा पड़ा। पार्टी को जहां इस वर्ग का तो समर्थन मिला, लेकिन दूसरा वर्ग खासकर थेवर समुदाय इस फैसले से नाराज हो गया। इसकी कीमत सत्तारूढ़ पार्टी को चुकानी पड़ी।
दिनाकरण, शशिकला, डीएमडीके के विजयकांत, अभिनेता सुरथ कुमार की पार्टी आदि सभी सहयोगी बिखरे-बिखरे ही नजर आए। ये ऐसे कारण है, जिन्होंने डीएमके की सत्ता की राह आसान बना दी। हालांकि डीएमके को अपने बूते भी स्पष्ट बहुमत (133) मिल गया है। ऐसे में पार्टी सरकार चलाने के दौरान वह किसी भी सहयोगी दल के अनावश्यक दबाव में नहीं रहेगी। (लेखक वेबदुनिया के तमिल पोर्टल से संबद्ध हैं)