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इस बारिश में पौधे लगाने जा रहे हैं, तो देशी वृक्ष-वृक्षक लगाएँ

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स्वरांगी साने

-स्वरांगी साने 
 
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए 
-दुष्यंत कुमार
     
गुलमोहर के बारे में और भी न जाने कितनों ने कितना-कुछ लिखा है। मूलत: मेडागास्कर का यह वृक्ष लगभग दो सौ साल पहले भारत आया और इतना अपना हो गया कि लगता ही नहीं कि यह कोई विदेशी वृक्ष है। लेकिन है तो यह विदेशी ही… अलाइव संस्था के अध्यक्ष और पक्षी निरीक्षक उमेश वाघेला का मानना है कि इस तरह के विदेशी वृक्षों से जैव विविधता और जैव चक्र को नुक्सान होता है। 
किसी एक दिन पर्यावरण दिवस मनाकर इतिश्री करने वालों में वे नहीं है। उनके लिए बारहों मास पर्यावरण के नाम है। वे पुणे में एक प्रोजेक्ट चलाते हैं- ‘आपली सोसाइटी, आपले वृक्ष (अपनी सोसाइटी, अपने वृक्ष), जिसके तहत वे नि:शुल्क मार्गदर्शन देते हैं कि सोसाइटी परिसर में कौन-से वृक्ष लगाए जाने चाहिए, किस तरह की मिट्टी के लिए किस तरह के पौधे हो और उनमें विविधता कैसे बरकरार रहे। जैसे कि गुलमोहर के पुष्पों में भले ही मकरंद बहुत होता है लेकिन हमारे यहाँ की तितलियाँ एक-डेढ़ फीट के देशी पौधों पर ही अंडे देती है, जिनसे इल्लियाँ निकलती है, इल्लियाँ जो गौरेया आदि का पसंदीदा खाद्य पदार्थ है। 
 
इल्लियाँ ही नहीं अन्य कीटक भी देशज पौधों पर ही लगते हैं जिन्हें परिंदे खाना पसंद करते हैं। इन विदेशी वृक्षों के फल देशी परिंदे नहीं खाते। यदि गौरेया आदि को बचाना है तो हमें देशी पौधे लगाने होंगे। मारिशस के ज़रिए भारत आए गुलमोहर की टहनियों पर परिंदे घौंसला नहीं बना पाते। वे मिट्टी को पकड़कर नहीं रखते। वे कहते हैं इस तरह के वृक्षों में एक तरह की तानाशाही होती है जो अपने नीचे दूसरे पौधों, लताओं को पनपने नहीं देते। इनकी पत्तियों का ढेर लगता है, जो खाद में तब्दील होने में समय लेता है। 
 
पानी की किल्लत और ऊष्णता भरे भारतीय परिवेश में नीलगिरी जैसे विदेशी वृक्ष को लगाना कितना हानिप्रद है सभी जानते हैं। ऑस्ट्रेलिया से आये नीलगिरी या यूकेल्पिट्स जैसे वृक्ष बहुतायत में पानी खींच लेते हैं और पंथी को छाया भी नहीं देते। बारिश में मिट्टी के बहाव को भी इस तरह के विदेशी वृक्ष रोक नहीं पाते। जब आँधी-तूफान आता है तो सबसे पहले विदेशी वृक्ष ही गिरते हैं क्योंकि उनकी जड़ें सतही होती है। जड़ों के ज़मीन में ग़हरे न जा पाने की वजह से पेड़ हरा-भरा दिखता हो तब भी खोखला होता है और किसी तरह के झंझावात को झेल नहीं पाता।
 
दरअसल सोसाइटी में एक ही तरह के कई वृक्ष लगा दिए जाते हैं जबकि ऐसा न करते हुए अलग-अलग तरह के वृक्ष लगाए जाने चाहिए। बड़े पेड़ ही नहीं मध्यम आकार के पारिजात, औदंबर भी लगाए जाने चाहिए। बड़े वृक्ष होते हैं और मध्यम आकार के वृक्षक। प्रकृति के चक्र को चलाने के लिए घास लगाना भी उतना ही ज़रूरी है जितना पौधे। जंगल में जिस तरह की विवधता होती है वैसे विवधता होनी चाहिए। मतलब पीपल के पास पीपल का वृक्ष न हो, इससे उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। महुआ, पीपल, बरगद और परजीवी लताएँ इस तरह मिला-जुला स्वरूप होना चाहिए। सोसायटी में भारतीय मूल के वृक्षों को लगाने से उन्हें एक दिन छोड़कर पानी दिया तब भी वे नहीं कुम्हालते, वे अपनी जड़ों से पानी खोज लेते हैं। 
 
इस संस्था के सदस्य सन् 2010 से लगातार वृक्षों को बचाने का काम कर रहे हैं। मल्हारगड़ की पहाड़ी पर 35 पेड़ों को संस्था ने जिंदा किया। वे बताते हैं बारिश शुरू होने के साथ कई स्थानों पर पौधारोपण किया जाता है लेकिन कौन-से पौधे लगाए जाएँ इसकी जानकारी नहीं होती। एक बार पौधा लगा देने के बाद उसका संरक्षण भी नहीं किया जाता। पौधों की सही देखभाल न हो पाने से कई पौधे मर जाते हैं। साथ ही मिट्टी देखकर गड्‍ढा किया जाना चाहिए। 
पिंपरी चिंचवड़ महानगर पालिका की देवी इंद्रायणी सोसाइटी में वाघेला और पर्यावरण विशेषज्ञ चैतन्य राजर्षी ने पौधारोपण करने से पहले स्थान का निरीक्षण-परीक्षण किया। उसके बाद खाद-पानी की व्यवस्था की गई और वैदिक मंत्रोच्चार के बीच बबूल, आम, बाहवा, पुत्रंजीवा, नीम, मुचकुंद, आँवला, कबीट, बेल, बुच इस तरह के 40 देशी पौधे लगाए गए। 
 
राजर्षी ने कहा जो वृक्ष अपने यहाँ के पक्षियों, प्राणियों, कीटकों को खाद्यान्न और आश्रय देते हैं, वे अपने वृक्ष होते हैं। अपने पक्षी विदेशी वृक्षों को पहचानते हैं। उनकी संरचना ऐसी होती है कि पक्षियों को घोंसला बनाना मुश्किल होता है। बारिश में वे गिर जाते हैं और पक्षियों के घोंसले भी। उन वृक्षों के फल-फलियों का उपयोग पक्षियों-प्राणियों को नहीं होता। उनके सूखे पत्ते सड़ते भी नहीं और प्रकृति के चक्र को हानि पहुंचाते हैं। जबकि देशी वृक्षों की तीन-चार साल देखभाल करने के बाद वे स्वावलंबी हो जाते हैं। 

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