उनकी लिखी किताब का विमोचन कार्यक्रम था। बचपन से उन्हें जानती हूं इसलिए जाना ही था। पारिवारिक संबंध रहे थे सो उनके भी परिजनों से बरसों बाद मिलने का उत्साह भी था। पर जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो ससुराल पक्ष से केवल उनके पति थे। बाकि कोई नहीं। बाद में पता चला उन्होंने तो किसी को बुलाया ही नहीं था। दूसरे उनकी किताब में अपने सास-ससुर और अन्य सदस्यों के लिए कोई आभार या धन्यवाद नदारद था। इसका अंदाजा मुझे कार्यक्रम ही से हो चला था क्योंकि उन्होंने और उनके पति ने एक शब्द भी अपने परिवार के किये गए सहयोग को सार्वजनिक रूप स्वीकारने में अपना ओछा और टुच्चापना कायम रखा। नक्कारा पति अपनी इस लेखिका, विद्वान् बीवी पर बड़ा गर्वित हो रहा था। और मैं वहां जा कर बरसों पुरानी यादों में जा पहुंची थी।
शादी हो कर आईं थीं तब कच्ची नौकरी थी। घर की बड़ी और लाड़ली बहु बनीं। सास तो उनकी हर इच्छा को दौड़-दौड़ कर पूरा करती। ससुर, तीन छोटी ननदें और देवर थे। पति कहीं बाहर अच्छी नौकरी और पद पर थे। ऊपरी पैसा भी खूब आता। इनकी खुद की नौकरी भी दूर किसी गांव में ही थी। मातृसत्ता थी घर में। मां के आगे किसी की न चल पाती। उनकी नौकरी चलती रही। फिर बच्चा हुआ। घर का पहला नन्हा बालक। सब उस पर जान छिड़कते। पर समस्या यह कि नौकरी और बच्चा साथ-साथ कैसे चले? नौकर के भरोसे तो छोड़ना नहीं। तो ननद और ससुर से आया मां तक का सफर तय कर दिया गया। कारण कोई भी हों पर अब उनका बच्चा पल रहा। मुफ्त में नौकर नौकरानी भी मिले सो अलग। गांव में होने के कारण कोई ज्यादा खर्चे भी नहीं होते। प्रेम और मोहवश सभी सच्चे दिल से उनकी नौकरी बनी रहे सोचते और उनका साथ देते। पर इन सब के चलते वो कब इतनी शातिर और चालाक हो गईं कि कोई समझ ही नहीं पाया। वो पूरे परिवार को कब साधन के रूप में उपयोग करते, स्वार्थ पूर्ति करते, लालची होती चली गईं कि सबके साथ देने और जोड़ कर रखने के कर्तव्य को बिसरा कर पारिवारिक राजनीति की चौसर बिछा बैठीं।
यही नहीं बेटी भी हो गई, बेटे का दाखिला नंदोई की पहचान से अच्छे स्कूल में करवाया। हां यह बता दूं कि वे अपना बालक ससुराल छोड़ कर नौकरी करने में व्यस्त हैं। अब उनकी पी.एच.डी. जरुरी है। नौकरी पक्की हो चली है। दंपत्ति के पास खूब पैसा आ रहा है उसी गति से मन सिकुड़ता चला जा रहा है। पूरा घर उनकी सेवा में लगा है। सास तो अपनी बेटियों की भी बलि चढ़ाने से नहीं हिचकतीं। फिर सर्वश्रेष्ठ सास का ख़िताब कैसे पाएंगी जो कि वो मरते मर गईं पर कभी न पा सकीं और अभी तो मरने के बाद भी नहीं। बेटी सम्हालने घर के नौकरीविहीन सदस्यों और रिटायर्ड ससुर के जिम्मे हो गया। खूब स्वर्णाभूषण, जमीनों की खरीदी और नगद बरस रहा था। पर खुद बंजर हो चलीं। पर मजाल है उनकी इस जीवन यात्रा में उन्होंने अपने ससुराल पक्ष के किसी भी सदस्य को इस्तेमाल करने से चूक गईं हों! बखूबी सीढियों की तरह उन पर पैर रखते चढ़ते चली गईं और लातें मारती गईं। काम निकलता गया, बच्चे कभी इधर कभी उधर ससुराल वालों के कंधे पर बड़े होते गए। बेटे का दसवीं में रिजल्ट कम आने पर फिर एक बार इस्तेमाल। महाभारत के पात्र तैयार होने लगे। अब इनके मन में दुर्योधन का वास शुरू हुआ। ननदों के खिलाफ मोर्चे बंदी में अपनी भूमिका महतवपूर्ण भूमिका निभाई। सबमें फूट पड़ी रहे ताकि सभी के हिस्से इन्हें देना न पड़े। बच्चे अपने अपने ठिये ठिकाने से लग पड़े थे। . शादी और अन्य शुभ-अशुभ कार्यों में ननदों का आना हमेशा की तरह वर्जित रखा। वो ननदें-नंदोई जिन्होनें अपने भतीजे-भतीजी को मां-बाप बन कर पाला। उनकी पूरी शिक्षा और पालन-पोषण में हमेशा आगे बढ़ कर सहयोग किया। अपने घरों में रखा। ये बेशर्मी से ननदों के अवगुणों की कथा बांचते रहे, किये सारे अहसान भूल खून सफेद कर लिया। रही इनकी सासू की बात तो जब तक वो इन पर आश्रित हो चुकीं थीं। उनकी बेलगामी और इनके पैसों का रौब उनकी दुर्दशा का कारण बना। तब तक इनका हृदय पत्थर हो चुका था। घर की बड़ी होने के नाते जोड़ने के बजाय तोड़ने का काम ये शानदार तरीकों से कर गईं। किसी को कानों-कान खबर न लगी। घर महाभारत के युध्द क्षेत्र में बदल गया। शकुनी की कमी भी यथासमय पूरी करतीं।
जब तक आप संवेदनशील नहों तो आप लिख नहीं सकते। चाहे अच्छा लिख रहे हों या बुरा। आपकी भावनाएं शब्दों पर संवेदनाओं के रूप ले कर आतीं हैं। लेखक हमेशा शुक्रगुजार होता है प्रकृति का, सृजन का, सहयोगियों और परिवार का. उनके अच्छे-बुरे अनुभव हमें सबक देते हैं जो हम लिखते हैं। फिर इस परिवार ने तो खपा दिया था इन पर। कम से कम अपने भाषण में तो अपने दिवंगत सास-ससुर को याद कर लेतीं, अपनी पुस्तक में उन्हें कोई जगह दे देतीं, उन्हें समर्पित कर देतीं. पर कैसे करतीं वो तो नाशुक्री हो चलीं थीं बरसों पहले ही... बहुत पहले ही...केवल बेशर्म नाशुक्री...