अपने आप को बुरा भला कहने की आदत से बाहर कैसे निकलें? गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर
जो आपका अपना है, वह अपना ही है और सदा के लिए अपना ही रहेगा
अगर आप अपने आप को भला बुरा कहने की आदत से निकलना 'चाहते' हैं तो निकल ही जाएंगे। यदि इस आदत से निकलने का संकल्प उठ गया है तो जल्दी कीजिए, देर मत लगाइए। आपने पहले अपने आपको जो भी भला बुरा कह दिया वह बीत गया। उन सभी घटनाओं को सपने की तरह देखिए। हमारा जीवन हर घड़ी मृत्यु की ओर दौड़ रहा है; पता नहीं मृत्यु कब आ जाए। तो एकदम खाली हो जाएं।
जो बीत गया उसे मन में पकड़ कर न रखें:
शरीर की प्रक्रियायें सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीनों प्रकृति के हिसाब से चलती हैं। समाज की प्रक्रियायें कर्म की वजह से चलती हैं। लेकिन यदि आप मन में राग-द्वेष रख कर मरेंगे तो फिर वैसे ही वापस आना पड़ेगा; फिर से उसी राग-द्वेष से जूझना पड़ेगा इसलिए अपने आप को भीतर से एकदम खाली कर डालें।
जब आप ऐसा करेंगे तो देखेंगे कि उसमें कितना आनंद, कितनी स्वतंत्रता है। जब आप ध्यान देंगे तो काफी अन्तर महसूस करेंगे। आपको भीतर से बहुत प्रसन्नता होगी। आप जो कुछ भी पकड़ कर रखते हैं वह कभी न कभी आपके भीतर नकारात्मकता को जन्म देता है। इसलिए सब कुछ छोड़ें।
बुद्धि को हर कर्म से अलिप्त रखें:
जो आपका अपना है, वह अपना ही है और सदा के लिए अपना ही रहेगा। तो मन को खाली करें, बाकी सब तो चलता रहेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप अपना काम-धंधा सब छोड़ कर किसी आश्रम में जाकर बैठ जाएं। अपना काम करें और बाकी सब जैसे चलना है चलता रहेगा।
अपना शत प्रतिशत लगाकर काम कर लें और उसके ख़त्म होने पर उससे अलिप्त होकर आगे बढ़ जाएं। आपको अपनी करनी के साथ भी नहीं उलझना है। मन को अलिप्त रखना, बुद्धि को अलिप्त रखना एक युक्ति है। यही सारे ज्ञान का सार है कि बुद्धि को अलिप्त रखें।
अक्सर हम भावनाओं से तो अलिप्त होना चाहते हैं, मगर कर्म से अलिप्त नहीं हो पाते। ये दो अलग बातें हैं। अलिप्त रहने का अर्थ यह नहीं है कि आप अपने बच्चों, पति, पत्नी से अलिप्त रहने लगें। भावनाओं से भागना अलिप्तता नहीं है। प्रेम से भागना अलिप्तता नहीं है बल्कि अपने किये हुए कर्म से अलिप्त होना ही अलिप्तता है। इसलिए भाव के स्तर पर जुड़े रहें लेकिन कर्म से लिप्त न हों।
भावनाओं से भागना समाधान नहीं है:
कई लोग अपने आप को वैरागी कहते हैं मगर यदि आप देखें तो उनका पूरा जीवन एकदम सूखा-सूखा है; उनके जीवन में कोई रस नहीं है, कोई प्रेम नहीं है, कोई करुणा नहीं है। उन्हें ऐसा लगता है कि यदि उनके भीतर करुणा आ जाएगी तो फिर कर्म से भी लिप्तता आ जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं है। बुद्धिमत्ता यह है कि हमारे जीवन में अनुराग, स्नेह, ममता और करुणा ये सभी सद्गुण बनें रहें मगर हम अपने कर्म से अलिप्त रहें। यह अपने आप में एक कला है। अक्सर जो भी चीज़ होती है हम उसको दिमाग में लेकर परेशान हो जाते हैं। उससे हमारी लिप्तता हो जाती है।
किसी ने कुछ कह दिया, इसने ऐसा किया, उसने वैसा किया, इन सब बातों से हम अपने मन में एक तरह से नफ़रत, बेचैनी सब बना लेते हैं। ऊपर-ऊपर से तो कहते हैं कि मेरा कोई राग-द्वेष नहीं है लेकिन जरा भीतर झांक के देखें तो वह आपके चेहरे में झलकता है। आपके भीतर कहीं जरा सा भी विद्वेष भाव है तो वह आपके चेहरे में झलक जाता है। यदि विद्वेष नहीं तो आदमी एकदम मस्त और प्रसन्न रहेगा। अप्रसन्नता का कारण ही यही है कि हम कर्म से लिप्त हो जाते हैं; अपनी चाहत से लिप्त हो जाते हैं।
हमारे स्वभाव में सद्गुण भी हैं लेकिन हमें उसमें भी लिप्त नहीं होना चाहिए। अक्सर हम कहते हैं कि 'मैं सबको इतना प्यार करता हूँ लेकिन लोग बदले में ऐसा व्यवहार नहीं करते हैं और मेरे ऊपर पत्थर फेंकते हैं' यह सोचना गड़बड़ है। सबके साथ प्रेममय व्यवहार करें क्योंकि उसके बिना आप कुछ कर ही नहीं सकते। ये हमारे स्वभाव में है। ये राग-द्वेष से ऊपर की चीज़ है। हमें अपने स्वभावगत सौंदर्य में टिकना चाहिए।