Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

क्या हैं अतिथि के पौराणिक मायने, जानकर हैरत में पड़ जाएंगे

हमें फॉलो करें क्या हैं अतिथि के पौराणिक मायने, जानकर हैरत में पड़ जाएंगे
webdunia

अनिरुद्ध जोशी

बरसों से अतिथि का स्वागत, सम्मान और सत्कार हमारी पवित्र परंपरा रही है। क्या आप जानते हैं कि अतिथि की परिभाषा में कौन आता है? 
 
अतिथि का अर्थ : अतिथि संस्कृत का मूल शब्द है। इसे अंग्रेजी में गेस्ट कहते हैं और उर्दू में मेहमान। मालवा, निमाड़ और राजस्थान में पावणा, हिन्दी में अभ्यागत, आगंतुक, पाहुन या समागत कहते हैं। 
 
अतिथि का शाब्दिक अर्थ परिव्राजक, सन्यासी, भिक्षु, मुनि, साधु, संत और साधक से है। प्राचीन काल में अतिथि का प्रयोग प्राय: बगैर तिथि बताए आने वाले संतों या आगुंतकों से किया जाता था। यज्ञ के लिए सोमलता लानेवाला व्यक्ति को भी अतिथि कहा जाता था। समय आदि की सूचना दिए हुए घर में ठहरने के लिए अचानक आ पहुंचने वाला कोई प्रिय अथवा सत्कार योग्य व्यक्ति। वर्तमान में इसका अर्थ बदल गया जो कि उचित नहीं है। 
 
मुनि, भिक्षु, संन्यासी या ऋषि होता है अतिथि : अतिथि देवो भव: अर्थात अतिथि देवता के समान होता है। घर के द्वार पर आए किसी भी व्यक्ति को भूखा लौटा देना पाप माना गया है। गृहस्थ जीवन में अतिथि का सत्कार करना सबसे बढ़ा पुण्य माना गया है। प्राचीन काल में 'ब्रह्म ज्ञान' प्राप्त करने के लिए लोग ब्राह्मण बनकर जंगल में रहने चले जाते थे। उनको संन्यासी या साधु भी कहते थे।
 
ऋषि का पद प्राप्त करना तो बहुत ही कठिन होता है। ऋषियों में भी महर्षि, देवर्षि, राजर्षि आदि कई तरह के ऋषि होते थे। ये सभी समाज के द्वारा दिए गए दान पर ही निर्भर रहते थे। इनमें से सभी को प्रारंभिक शिक्षा के दौरान भिक्षा भी मांगना होती थी। उनमें से भी कई तो किसी गृहस्थ के यहां कुछ दिन आतिथ्य बनकर रहता था और उनको धर्म का ज्ञान देता था। एक गृहस्थ के लिए किसी संन्यासी का संत्संग बहुत ही लाभप्रद और पुण्यप्रद माना गया है।
 
क्यों मानते हैं अतिथि को भगवान? : किसी ऋषि, मुनि, संन्यासी, संत, ब्राह्मण, धर्म प्रचारक आदि का अचानक घर के द्वार पर आकर भिक्षा मांगना या कुछ दिन के लिए शरण मांगने वालों को भगवान का रूप समझा जाता था। घर आए आतिथि को भूखा प्यासा लोटा देना पाप माना जाता था। यह वह दौर था जबकि स्वयं भगवान या देवता किसी ब्राह्मण, भिक्षु, संन्यासी आदि का वेष धारण करके आ धमकते थे। तभी से यह धारणा चली आ रही है कि अतिथि देवों भव:।  
 
अतिथि यज्ञ : गृहस्थ जीवन में रहकर पंच यज्ञों का पालन करना बहुत ही जरूरी बताया गया है। उन पंच यज्ञों में से एक है अतिथि यज्ञ। वेदानुसार पंच यज्ञ इस प्रकार हैं-1.ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ।
 
अतिथि यज्ञ को पुराणों में जीव ऋण भी कहा गया है। यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा-सत्कार करने से जहां अतिथि यज्ञ संपन्न होता हैं वहीं जीव ऋण भी उतर जाता है। तिथि से अर्थ मेहमानों की सेवा करना उन्हें अन्न-जल देना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इससे संन्यास आश्रम पुष्ट होता है। यही पुण्य है। यही सामाजिक कर्त्तव्य है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

चूड़ियां कमजोरी या कायरता का प्रतीक नहीं हैं, 'भेंट' देने से पहले कुछ तो सोचो