Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

जाति जनगणना: मुगल और अंग्रेजों ने इस तरह जातियों में बांटा था हिंदुओं को

Advertiesment
हमें फॉलो करें population

WD Feature Desk

, मंगलवार, 10 जून 2025 (17:30 IST)
भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है। पहले मुगलों ने फिर अंग्रेजों ने और स्वतंत्र भारत में भारतीय राजनीतिज्ञों ने जातियों में फूट डालकर या जातिवाद को बढ़ावा देकर ही सत्ता हासिल है या धर्मांतरण किया जाता रहा है। राजनीतिक पार्टियों और कट्टरपंथियों को आपस में बांटकर रखने में ही भलाई नजर आती है। आओ जानते हैं कि किस तरह भारत के लोगों को पहले धर्म और फिर जातियों में बांटा गया। 
 
इस तरह मिला जाति को बढ़ावा: दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह कि दो तरह के क्षेत्र होते हैं- विकसित और अविकसित। पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना कि दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पिछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई। सेवा पर आधारित राजनीति पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई।
 
वंश बदल गए वर्णों में और वर्ण जातियों में:
वैदिक काल में वंश पर आधारित समाज बने। जैसे सूर्यवंश, चंद्रवंश, ऋषिवंश। इसी के उपवंश बने यदुवंश, सोमवंश, नागवंश, अग्निवंश। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु, तुर्वसु, द्रुहु, पुरु और अनु। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई। 
 
आज हिन्दुओं की जितनी भी जातियां या उपजातियां नजर आती हैं वे सभी उक्त तीनों वंशों से निकलकर ही विकृत हो चली हैं। इसके बाद उत्तर वैदिक काल के बाद समाज कर्मों के आधार पर 4 वर्णों में समाज बंट गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये कोई जातियां नहीं हैं और न ही ये किसी वंश का नाम हैं। ये श्रम विभाजन की श्रेणियां हैं। लेकिन भारतीय समाज को इसके कारण बहुत नुकसान उठाना पड़ा। आज ये एक समान सोच के समाज में बदलकर भारत को खंडित कर गए हैं। उक्त वंशों से ही क्षत्रियों, दलितों, ब्राह्मणों और वैश्यों के अनेक उपवंशों का निर्माण होता गया।  गोत्रों के आधार पर भी वंशों को समझा जाता है। भारत में रहने वाले हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख सभी किसी न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते हैं इसीलिए उन्हें भारतवंशी कहा जाता है। 
 
बदलती जातियां: बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं, ईसाई हैं या अब वे बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। हजारों वर्षों के कालक्रम के चलते क्षत्रियों की कई जातियां अब दलितों में गिनी जाने लगी हैं।
 
पहले नहीं होते थे उपनाम: इंद्र, वृत्त, शंभर, गार्गी, कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, दुर्योधन, अत्रि, एकलव्य, हनुमान, रावण आदि ऐसे हजारों चर्चित लोग रहे हैं, जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं। बौद्ध काल में उपनाम रखने का प्रचलन प्रारंभ हुआ। लोग अपने विशेषता के आधार पर नाम के आगे उस विशेषण को लगाते थे। जैसे कोई राजपुरोहित है तो राजपुरोहित और कोई चार वेदों का ज्ञाता है तो चतुर्वेदी। कोई किसी खास वंश से संबंध रखता था तो अपने वंश का नाम आगे लगा लेता था। जैसे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, यदुवंशी, आदि। कई लोग अपने वंश को दर्शाने के लिए गोत्र को ही उपनाम की तरह इस्तेमाल करने लगे, जैसे भार्गव, आत्रेय, कश्यप आदि।
 
मुगल काल में जातियां:
अधिकतर उच्च उपाधियां प्राप्त लोग अपने नाम के आगे उपाधि को ही उपनाम बनाकर दर्शाते थे ताकि उन्हें लोग उच्च समझे। फिर एक ही तरह की उपाधियों का एक उच्च वर्ग निर्मित होने लगा। बाद में जब मुगल आए तो सर्वप्रथम उन्होंने उपाधि प्राप्त लोगों को ही अपने राजदरबार में उच्च पद पर रखा। फिर धीरे-धीरे उन्होंने समय और परिस्थिति के अनुसार अन्य कई जाति समूह के लोगों के उक्त क्षेत्र का अच्छे से संचालन करने के लिए नए-नए पद निर्मित किए, जो बाद में एक जाति में बदल गए। इसके बाद जो धर्मांतरित नहीं होते थे या उनके समक्ष नहीं झुकते थे उन्हें या तो कत्ल कर दिया गया या उसने दुष्कर कार्य करवाए गए। मुगलों ने वाल्मिकी ब्रह्मणों और क्षत्रियों से मैला ढुलवाया जिसके कारण वे अब नीचले तबके के माने जाते हैं। ऐसी कई जातियां हैं जो मुगल काल में निर्मित हुई क्योंकि मुगल काल में नए नए कार्यों की भी उत्पत्ति हुई। मुगल काल में, जाति व्यवस्था का प्रभाव कृषि प्रणाली पर भी था। किसानों को विभिन्न जातियों में विभाजित किया गया था और वे जाति के आधार पर पंचायतें और व्यापार करते थे।
 
अंग्रेजों के काल में जातियां: फिर अंग्रेजों का राज आया तब उच्च पद पर आसीन लोगों के अलावा वे कई छोटी और पिछड़ी जातियों के लोगों को भी छोटी-मोटी नौकरी पर रखने लगे। जिस तरह मुगलों के राज में कोई व्यक्ति खुद को खान कहलाना पसंद करता था उसी तरह अंग्रेजों के राज में बाबू, जमीदार, पटवारी आदि। इस तरह जब अंग्रेजों की समझ बढ़ी तो उन्होंने हिन्दुओं में पद और श्रम आधारित कई नई उपाधियां दी जो आज जातियों में निर्मित हो गई है। 
 
अंग्रेज काल की उपजातियां : माना जाता है कि हिन्दुओं को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिन्दुओं को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिन्दुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाम देकर स्पष्ट तौर पर जातियों में बांट दिया। इतना ही नहीं, 1991 की जनगणना में केवल मोची की ही लगभग 1,156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होंगी।
 
बदलते उपनाम: कई ऐसे उपनाम हैं, जो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा प्रांत या धर्म बदलने के साथ बदल गए हैं, जैसे कश्मीर के भट्ट और धर जब इस्लाम में दीक्षित हो गए तो वे अब बट या बट्ट और डार कहलाने लगे हैं। दूसरी और चौहान, यादव और परमार उपनाम तो आप सभी ने सुना होगा। जब ये उत्तर भारतीय लोग महाराष्ट्र में जाकर बस गए तो वहां अब चव्हाण, जाधव और पवार कहलाते हैं। पांडे, पांडेय और पंडिया ये तीनों उपनाम ब्राह्मणों में लगते हैं। अलग-अलग प्रांत के कारण इनका उच्चारण भी अलग हो चला। जैसे पाटीदार ही गुजरात में पटेल कहे जाते हैं।
 
कॉमन उपनाम : नाम की तरह बहुत से ऐसे उपनाम हैं, जो मुगल और अंग्रेज काल में हुए हिन्दुओं के धर्मां‍तरण के कारण अब सभी धर्म और समाज के कुछ परिवारों में एक जैसे पाए जाते हैं जैसे पटेल, शाह, राठौर, राणा, सिंह, शर्मा, स्मिथ, चौहान, ठाकुर, बोहरा या वोहरा आदि। अनगिनत उपनाम हैं जिन्हें लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम हो जाए।
 
स्थानों पर आधारित उपनाम: जैसे कच्छ के रहने वाले क्षत्रिय जब कच्छ से निकलकर बाहर किसी ओर स्थान पर बस गए तो उन्हें कछावत कहा जाता था। बाद में यही कछावत बिगड़कर कुशवाह हो गया। हालांकि कुश के वंशज होने के कारण भी कुशवाह कहा जाता है। अब कुशवाह उपनाम दलितों में भी लगाया जाता है और क्षत्रियों में भी। महाराष्‍ट्र में स्थानों पर आधारित अनेक उपनाम मिल जाएंगे, जैसे जलगांवकर, चिपलूनकर, राशिनकर, मेहकरकर आदि। दूसरे प्रांतों में भी स्थान पर आधारित उपनाम पाए जाते हैं, जैसे मांडोरिया, देवलिया, आलोटी, मालवी, मालवीय, मेवाड़ी, मेतवाड़ा, बिहारी आदि।
 
पदवी बने उपनाम, उपनाम बने जाति: राव, रावल, महारावल, राणा, राजराणा और महाराणा ये भी उपाधियां हुआ करती थीं राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में। अन्य भी कई पदवियां हैं, जैसे शास्त्र पढ़ने वालों को शास्त्री, सभी शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य, दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी, चार के ज्ञाता चतुर्वेदी कहलाते थे। उपाध्याय, महामहोपाध्याय उपाधियां भी वेदों के अध्ययन या अध्याय पर आधारित होती थीं। अंग्रेजों के काल में बहुत सी उपाधियां निर्मित हुईं, जैसे मांडलिक, जमींदार, मुखिया, राय, रायबहादुर, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चिटनीस, पटेल इत्यादि।
 
'ठाकुर' शब्द से कौन परिचित नहीं है। सभी जानते हैं कि ठाकुर तो क्षत्रियों में ही लगाया जाता है, लेकिन आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि यह ब्राह्मणों में भी लगता है। ठाकुर भी पहले कोई उपनाम नहीं होता था तथा यह एक पदवी होती थी। लेकिन यह रुतबेदार वाली पदवी बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई। खान, राय, राव, रावल, राणा, राजराणा और महाराणा ये भी उपाधियां या पदवी हुआ करती थीं।
 
व्यापार पर आधारित उपनाम: भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले सभी धर्म के कुछ लोगों का व्यापार पर आधारित उपनाम भी पाया जाता है, जैसे भारत में सोनी उपनाम बहुत प्रसिद्ध है, जो सोने या सुनार का बिगड़ा रूप है। कालांतर में ये लोग सोने का धंधा करते थे तो इन्हें सुनार भी कहा जाता था। ज्यादातर लोग अब भी यही धंधा करते हैं। लुहार उपनाम से सभी परिचित हैं। गुजरात में लोहेवाला, जरीवाला आदि प्रसिद्ध हैं। लकड़ी का सामान बनाने वाले सुतार या सुथार उपनाम का प्रयोग करते हैं। ऐसे अनगिनत उपनाम हैं, जो किसी न किसी व्यवसाय पर आधारित है।
 
जाति जनगणना क्यों?
भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी। तब से ही हर 10 साल पर जनगणना हो रही है। 1881 से 1931 तक जातीय जनगणना हुई। 1941 में जातीय आंकड़े जुटाए गए लेकिन इनको सार्वजनिक नहीं किया गया। आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई थी। उस समय सरकार ने तय किया कि सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के आंकड़े ही जुटाए जाएंगे। 1991 में राज्यों को ओबीसी की अपनी सूची तैयार करने के लिए सर्वेक्षण की अनुमति दी गई। 2011 में यूपीए सरकार ने समाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के लिए करीब 4.5 हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे लेकिन जातियों के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। एक वर्ग का मानना है कि जातीय जनगणना की मांग के पीछे मकसद पिछड़ी जतियों को सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना नहीं है, बल्कि समाज को विभाजित करके राजनीतिक फायदा हासिल करना है। इस वर्ग का कहना है कि सरकार के पास पहले से जरूरी आंकड़े हैं, इनके आधार पर कमजोर वर्गों के सामाजिक आर्थिक तरक्की के लिए नीतियां और कार्यक्रम प्रभावी तरीके से लागू किए जा सकते हैं और ऐसा हो भी रहा है। ऐसे में जातीय जनगणना से देश में जातीय विभाजन और गहरा होगा और इससे समाज में तनाव और कटुता पैदा होगी।
 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

जाग्रत रहना रे , नगर में चोर आवेगा.... जानिए कबीर वाणी के इस भजन का मर्म