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मृतकों की देहलीज पर रखे कंडों की आग बुझने से पहले ठंडी न हो जाए इंतकाम की आग

अब सरकारी कर्मचारी आपके दरवाजे पर आकर पूछेगा भाई साब कौन जात हो?

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नवीन रांगियाल

... और अंतत: मामला जाति पर आ गया है। सिनेमा पर भी। उन्‍होंने कहा कि भारतीय सिनेमा की पूरी दुनिया में गूंज है। भारतीय संस्‍कृति का डंका पूरी दुनिया में बजता है। सारी बैठकें खत्‍म हो गई हैं, जिन्‍हें ताबड़तोड़ अंजाम दिया गया था। एनएसए, रक्षामंत्री और आर्मी चीफ के साथ। शायद बातचीत खत्‍म हो गई। कुछ बचा नहीं कहने सुनने को। जो बैठकों में कहा-सुना गया वो मीडिया में आ गए। मिट्टी में मिला दिया जाएगा। ऐसी कीमत चुकानी होगी, जिसकी कल्‍पना भी नहीं की होगी। दुनिया के आखिरी छोर तक नहीं छोड़ेंगे।

पहलगाम हमले को 8 दिन हो गए। जिन परिवारों ने अपना बेटा, पति, बाप खोया उनके घर की डेहरी पर रखे कंडे की आंच अभी बुझी भी नहीं, उनके फूल अभी पवित्र नदियों में बहे भी नहीं होंगे कि उसके पहले इंतकाम की आग बुझकर ठंडी पड़ गई है। अब जल्‍द ही शायद कोई सरकारी कर्मचारी आकर आपके घर का दरवाजा खटखटाएगा और पूछेगा— भाई साहेब आपकी जाति क्‍या है?

आप थोड़ा सकुचाएंगे या शायद न भी सकुचाए क्‍योंकि आपको भी आदत हो गई है अपनी जाति बताने की और दूसरों की जाति पूछने की। ट्रेनों में, बसों में रोटी खाते हुए हम पूछ ही तो लेते हैं— कौन जात हो?

कौन हो? ब्राह्मण हो? शूद्र? वैश्‍य? फिर उसमें भी छिलके निकाले जाएंगे, गुर्जर हो, पाटीदार, पटेल, राजपूत, ब्राह्मण में कौनसे वाले? औदिच्‍य, नार्मदीय? मराठी में कौन? देशस्‍थ, कोंकणस्‍थ? राजपूत कौन, राजस्‍थानी या हिमाचली।

वही जाति जो कभी जाती ही नहीं। पहले समाज से नहीं जाती थी, अब राजनीति से भी नहीं जा रही है। शायद अब नहीं जाएगी। कभी नहीं जाएगी, क्‍योंकि अब सरकारी दस्‍तावेज और फाइलों में दर्ज होगी। हालांकि पहले भी दर्ज होती रही है, लेकिन अब और पुख्‍ता और ठोस तरीके से दर्ज होगी। अब जाति का ये हल्‍ला और जोर से होगा, खुलेआम होगा।

कोई फर्क नहीं है, वहां पहलगाम में उन्‍होंने धर्म पूछकर गोलियां दागीं और आप यहां जाति पूछकर समाज को बांट रहे हो। पाकिस्‍तान के एक आतंकी संगठन में पहलगाम हमले की जिम्‍मेदारी ली है और मृतकों के परिजनों के बयानों और आंसुओं से यह साफ हो जाता है कि पहलगाम एक जातीय- नरसंहार था। उन्‍होंने कहा भी है कि उनसे धर्म पूछा और गोली मार दी। इसे आपके और हमारे अस्‍तित्‍व पर संकट की तरह देखा जाना चाहिए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ— कई बार ऐसे हमले हुए और तत्‍कालीन सरकारों ने वर्तमान सरकार से भी ज्‍यादा साहसी फैसले लिए। चाहे अटल बिहारी वाजपेयी का कारगिल वार हो, इंदिरा गांधी ने 1971 में हमला कर पाकिस्‍तान के दो टुकड़े कर बांग्‍लादेश बना दिया। लालबहादुर ने 1965 में पाकिस्‍तान को धूल चटाई थी। सवाल उठता है कि क्‍या ऐसे युद्ध से कोई देश बाज आएगा? शायद नहीं। ऐसे में दूसरा विकल्‍प भारत के पास बचता है और वो है कुटनीतिक चालें और अंतरराष्ट्रीय दबाव। वर्तमान सरकार को इतना तो पूरी ईमानदारी और शिद्दत से करना ही होगा। अगर युद्ध नहीं तो कम से कम इतना कि एक पाकिस्‍तान की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कमर इतनी तोड़  दी जाए कि वो उम्रभर झुककर चले।

किसी भी देश को युद्ध नहीं तो इतना संघर्ष तो करना ही होगा कि उसका अस्‍तित्‍व खतरे के दायरे में न आए। कई बार संघर्ष हार या जीत के लिए नहीं किए जाते, हार जीत की फिक्र किए बगैर अपने अस्‍तित्‍व के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। ठीक उसी तरह जैसे इजरायल अपने अस्‍तित्‍व की लड़ाई लड़ रहा है, बावजूद इसके कि सिर्फ 1 करोड़ हैं।

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