श्रावण मास का आगमन होते ही भारत के कोने-कोने से हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, सुल्तानगंज, देवघर, नासिक और तमाम पवित्र स्थानों की ओर लाखों कावड़िए बढ़ते हैं। कंधों पर गंगाजल लिए, 'बोल बम' के जयकारे लगाते, ये भक्तजन शिवलिंग का अभिषेक करने निकल पड़ते हैं।
कावड़ यात्रा की पौराणिक जड़ें: कावड़ यात्रा की परंपरा कोई नई नहीं। इसके पौराणिक स्रोत हमें त्रेता युग तक ले जाते हैं-
श्रवण कुमार प्रथम कावड़िया कहे जाते हैं, जिन्होंने अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ कराने के लिए कंधों पर कावड़ जैसी पालकी बनाकर यात्रा की। दुर्भाग्यवश, राजा दशरथ के तीर से मृत्यु के पश्चात वह खाली कावड़ में गंगाजल भरकर घर लौटे।
परशुराम जी ने भी गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल भरकर पूरा महादेव में शिवलिंग पर जल अर्पित किया। भगवान श्रीराम की कथा भी कावड़ यात्रा से जुड़ी है, जहां वे सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर (बाबा बैद्यनाथ धाम) पहुंचे और शिवलिंग पर जल अर्पित किया। ऐसे अनेक प्रसंग बताते हैं कि कावड़ यात्रा केवल यात्रा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक, आध्यात्मिक और मानसिक तपस्या रही है।
कलियुग में कावड़ यात्रा की प्रासंगिकता:
आज हम उस युग में जी रहे हैं, जहां वर्षों की पैदल यात्रा कुछ ही दिनों में वाहन और तकनीक के सहारे पूरी हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज की कावड़ यात्रा उतनी ही श्रद्धा और तपस्या का प्रतीक रह गई है? दुर्भाग्यवश, आज कावड़ यात्रा का स्वरूप कहीं न कहीं दिखावे और हुड़दंग में बदलता दिखाई देता है। डीजे की तेज़ आवाज़, सड़क पर जुलूस की तरह यातायात को बाधित करना, और कई जगहों पर मारपीट या अनुशासनहीनता की घटनाएं सुनाई देती हैं।
कितनी है सच्ची श्रद्धा?
मेरा मानना है, आज के कावड़ यात्रियों में कुछ प्रतिशत ही ऐसे होते हैं, जो सच्चे भाव से पैदल यात्रा करके शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। अधिकांश लोग यात्रा को प्रदर्शन बना रहे हैं। यह भी सत्य है कि कई स्थलों पर शिवलिंग पर जल चढ़ाने के लिए भारी भीड़, व्यवस्थाओं की कमी और अर्थ-प्रधान व्यवस्था आस्था को पीछे धकेल देती है। मठाधीशों और मंदिर व्यवस्थाओं में कई बार श्रद्धा की जगह पैसे की झलक अधिक दिखाई देती है।
कावड़ यात्रा: राजनैतिक मंच या आत्मिक साधना?
आज के दौर में धार्मिक आयोजनों में राजनीतिक स्वार्थ भी गहराई से जुड़ गए हैं। कई जगह कावड़ यात्रा वोट बैंक या शक्ति-प्रदर्शन का साधन बन जाती है। परंतु मेरा स्पष्ट विचार है कि 'कावड़ यात्रा का असली अर्थ है- स्वयं के भीतर के जल को शिव में अर्पित करना।' यह केवल शरीर से यात्रा नहीं, मन की यात्रा भी है। यह तपस्या है, जिसमें आप अपनी इच्छाओं, क्रोध, लोभ और अहंकार को छोड़कर शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं।
मेरा संदेश:
मैं उन सभी कावड़ यात्रियों को नमन करता हूं, जो आज भी श्रद्धा के साथ यह यात्रा करते हैं। पर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि- कावड़ यात्रा जुलूस नहीं, व्यक्तिगत साधना है। श्रद्धा को दिखावे और राजनीति से दूर रखना चाहिए। शिव तो भाव के भूखे हैं, भीड़ या शोरगुल के नहीं। यदि हम कावड़ यात्रा को फिर से भाव, साधना और आत्मिक शुद्धि का पर्व बना दें, तभी यह परंपरा कलियुग में भी उतनी ही प्रासंगिक और पवित्र रहेगी, जितनी त्रेता या द्वापर युग में थी।