Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

कलयुग के संकट मोचन हनुमान : 5 पौराणिक कथाएं

हमें फॉलो करें कलयुग के संकट मोचन हनुमान : 5 पौराणिक कथाएं

अनिरुद्ध जोशी

, मंगलवार, 18 जनवरी 2022 (11:50 IST)
रामायण में हनुमानजी के पराक्रम के संबंध में सैंकड़ों रोचक कथाएं प्रचलित हैं। उनके बचपने से लेकर कलयुग तक तो हजारों कथाएं हमें पढ़ने को मिल जाती हैं। आओ जानते हैं यहां पर मात्र 5 ऐसी पौराणिक कथाएं जो बड़ी रोचक हैं।

 
1. चारों जुग परताप तुम्हारा : लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- ''यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।''
 
अर्थात : 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'
 
 
अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।' चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा।।
 
2. दो बार उठाया था संजीवनी पर्वत : एक बार बचपन में ही हनुमानजी समुद्र में से संजीवनी पर्वत को देवगुरु बृहस्पति के कहने से अपने पिता के लिए उठा लाते हैं। यह देखकर उनकी माता बहुत ही भावुक हो जाती है। इसके बाद राम-रावण युद्ध के दौरान जब रावण के पुत्र मेघनाद ने शक्तिबाण का प्रयोग किया तो लक्ष्मण सहित कई वानर मूर्छित हो गए थे। जामवंत के कहने पर हनुमानजी संजीवनी बूटी लेने द्रोणाचल पर्वत की ओर गए। जब उनको बूटी की पहचान नहीं हुई, तब उन्होंने पर्वत के एक भाग को उठाया और वापस लौटने लगे। रास्ते में उनको कालनेमि राक्षस ने रोक लिया और युद्ध के लिए ललकारने लगा। कालनेमि राक्षस रावण का अनुचर था। रावण के कहने पर ही कालनेमि हनुमानजी का रास्ता रोकने गया था। लेकिन रामभक्त हनुमान उसके छल को जान गए और उन्होंने तत्काल उसका वध कर दिया।
 
 
3. विभीषण और राम को मिलाना : जब हनुमानजी सीता माता को ढूंढते-ढूंढते विभीषण के महल में चले जाते हैं। विभीषण के महल पर वे राम का चिह्न अंकित देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। वहां उनकी मुलाकात विभीषण से होती है। विभीषण उनसे उनका परिचय पूछते हैं और वे खुद को रघुनाथ का भक्त बताते हैं। हनुमान और विभीषण का लंबा संवाद होता है और हनुमानजी जान जाते हैं कि यह काम का व्यक्ति है।
 
इसके बाद जिस समय श्रीराम लंका पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे होते हैं उस दौरान विभीषण का रावण से विवाद चल रहा होता है अंत में विभीषण महल को छोड़कर राम से मिलने को आतुर होकर समुद्र के इस पार आ जाते हैं। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है। कोई भी विभीषण पर विश्वास नहीं करता है।
 
 
सुग्रीव कहते हैं- 'हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई मिलने आया है।' प्रभु कहते हैं- 'हे मित्र! तुम क्या समझते हो?' वानरराज सुग्रीव ने कहा- 'हे नाथ! राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला न जाने किस कारण आया है।' ऐसे में हनुमानजी सभी को दिलासा देते हैं और राम भी कहते हैं कि मेरा प्रण है कि शरणागत के भय को हर लेना चाहिए। इस तरह हनुमानजी के कारण ही श्रीराम-विभीषण का मिलन सुनिश्चित हो पाया।
webdunia
4. सबसे पहले लिखी रामायण : शास्त्रों के अनुसार विद्वान लोग कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला (चट्टान) पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह 'हनुमद रामायण' के नाम से प्रसिद्ध है। यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और श्री हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहां वे अपनी शिव तपस्या के दौरान की एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए 'हनुमद रामायण' की रचना की।
 
 
कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी 'वाल्मीकि रामायण' लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंच गए। वहां उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई 'हनुमद रामायण' को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए।
 
वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करते हुए श्री हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है। वह आज भी समुद्र में पड़ी है।
 
 
5. हनुमान और अर्जुन : आनंद रामायण में वर्णन है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी रामेश्वरम तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- 'अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे?'
 
हनुमानजी- 'हां', तभी अर्जुन ने कहा- 'आपके स्वामी श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु बनवाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मैं वहां उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।'
 
 
इस पर हनुमानजी ने कहा- 'असंभव, बाणों का सेतु वहां पर कोई काम नहीं कर पाता। हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो बाणों का सेतु छिन्न-भिन्न हो जाता।'
 
अर्जुन ने कहा- 'नहीं, देखो ये सामने सरोवर है। मैं उस पर बाणों का एक सेतु बनाता हूं। आप इस पर चढ़कर सरोवर को आसानी से पार कर लेंगे।'
 
हनुमानजी ने कहा- 'असंभव।'
 
तब अर्जुन ने कहा- 'यदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।'
 
हनुमानजी ने कहा- 'मुझे स्वीकार है। मेरे दो चरण ही इसने झेल लिए तो मैं हार स्वीकार कर लूंगा।'
 
तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर दिया। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ, तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया।
 
हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।
 
 
तभी श्रीहनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्‍वलित हुई और जैसे ही हनुमान अग्नि में कूदने चले, वैसे भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले 'ठहरो!' तभी अर्जुन और हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया।
 
भगवान ने सारा प्रसंग जानने के बाद कहा- 'हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था। आपकी शक्ति से आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।'
 
 
यह सुनकर हनुमान को काफी कष्‍ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। 'मैं तो बड़ा अपराधी निकला, जो आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्?' तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्‍छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।
 
इसलिए द्वापर में श्रीहनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

षटतिला एकादशी कब है, व्रतकथा सहित जानिए मंत्र, शुभ मुहूर्त, महत्व, पूजा विधि और पारण का समय