लेखक : धनंजय तिवारी
बाबा कपाल भैरव और उनके प्रभाव और कृपा के बारे में जानिए जिससे की आप उनकी शक्ती, उनके ऐश्वर्य, उनकी प्रभुता और उनकी उपयोगिता के बारे में जान और समझ सकें। कपाल का शाब्दिक अर्थ खोपड़ी होती है, खोपड़ी न केवल मनुष्यों की अपितु हर प्रकार के जीव की होती है। ये तो हुआ कपाल का सरल सात्विक अर्थ अब हम बात करते हैं इसके आध्यात्मिक अर्थ और इसकी उपयोगिता की। कपाल को ब्रह्मरंध्र भी कहा जाता है और अत्यंत सरल भाषा में इसे दिमाग कहा जाता है।
भैरव का शाब्दिक अर्थ होता है रक्षा करने वाला या रक्षक। भैरव भगवान शिव के पांचवें अवतार हैं, जिनके मुख्य दो रूप है- काल भैरव और बटुक भैरव। अधिकांश लोग काल भैरव को ही बटुक भैरव मानते हैं, जो की गलत है, हालांकि दोनों शिवरूप ही है परंतु इनमें अगाध भेद है। अब मैं आपको काल भैरव, बटुक भैरव और कपाल भैरव के जन्म की कथा बताता हूं।
काल भैरव की उत्पत्ति की कथा- पुराणों के अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु में विवाद उत्पन्न हुआ और दोनों एक दूसरे को अपना पुत्र बता रहे थे अर्थात विष्णु कहते की ब्रह्मा का जन्म उनसे हुआ है और ब्रह्मा कहते के विष्णु का जन्म उनसे हुआ है। इसी बीच उनके मध्य में एक अग्नि स्तम्भ प्रगट हुआ जिसने उन दोनों से कहा की आप दोनों में से जो भी इस अग्नि स्तम्भ का ओर या छोर पता लगा लेगा वही बड़ा होगा और वही सर्वत्र पूज्य होगा।
ब्रह्मा ने एक हंस का रूप धारण किया और विष्णु ने एक वराह का रूप धारण किया ब्रह्मा ने ऊपर और विष्णु ने निचे की ओर प्रस्थान किया। एक समय आने के बाद श्रीहरि विष्णु ने यह मान लिया की इस अग्नि स्तम्भ का कोई अंत नहीं है। परन्तु ब्रह्मदेव किसी भी कीमत पर अपनी पराजय मानने को तैयार नहीं थे। कुछ ऊपर पहुंचने पर उन्हें वहां केतकी नामक एक पुष्प मिला। उन्होंने उससे कहा की यदि तुम मेरा समर्थन करो तो मैं तुम्हें सबसे महत्वपूर्ण पुष्प की उपाधि प्रदान करूंगा।
केतकी ने ब्रह्मा की ये बात स्वीकार कर ली, और उस पुष्प को लेकर के ब्रह्मदेव वापस नीचे आ गए। जब उस अग्नि स्तम्भ ने उनसे पूछा की क्या आप दोनों में से किसी को मेरा ओर-छोर मिला? तो इस पर नारायण ने तो मना कर दिया परन्तु ब्रह्मदेव ने कहा की हां मुझे मिला है और सत्यापन के लिए केतकी पुष्प को प्रस्तुत कर दिया। केतकी ने भी ब्रह्मदेव का समर्थन किया।
तब उस अग्नि स्तम्भ ने एक पुरुष की आकृति ग्रहण की और प्रकट हुए महाकाल महारुद्र भगवान शिव। उन्होंने ब्रह्मदेव से कहा की आप असत्य बोल रहे हैं। और ब्रह्मा को असत्य भाषण के लिए कभी भी न पूजे जाने का श्राप दिया और केतकी के असत्य भाषण के लिए उसे अपनी पूजा में प्रयोग में लाए जाने से निषेध कर दिया।
तब ब्रह्मदेव ने क्रोधित होकर भगवान् रूद्र को अपशब्द कहना आरम्भ कर दिया और स्वयं को सबसे बड़ा बताने लगे। उस समय ब्रह्मदेव पंचमुखी होते थे। तब भगवान् शिव को आभास हुआ की ब्रह्मदेव में अहंकार व्याप्त हो रहा है और सृष्टि के रचना में यदि सृष्टि रचना से पूर्व ही अहंकार व्याप्त हो गया तो असमय ही सम्पूर्ण सृष्टि अहंकार के भाव से ग्रसित हो जाएगी। इसलिए उन्होंने अहंकार रूपी ब्रह्मदेव के उस पांचवें सर को काटने का निर्णय लिया। परन्तु इसमें भी एक समस्या थी। भगवान् शिव इस बात को जानते थे की यदि उन्होंने ब्रह्मदेव का सर काटा तो उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगेगा और यदि उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा और उसमें उलझकर के वो त्रिमूर्ति से अलग हो जाएंगे और असंतुलन व्याप्त हो जाएगा।
इसी कारण सर्व समर्थ भगवान रूद्र ने अपने ही अंश से एक ऐसे विकराल गण को उत्पन्न किया जो कृष्णवर्ण के थे। अस्थियों के आभूषणों से सुशोभित थे, उस दिव्य पुरुष को देखकर और उनकी गर्जना को सुनकर ऐसा लगता था मानो लाखों भयानक काले मेघों ने जीवंत रूप ले करके गर्जना की हो। उनकी जटाएं देख कर ऐसा प्रतीत होता था मानो असंख्य भयानक विषधर हो। उनके मस्तक पर श्वेत त्रिपुण्ड की तीन रेखाएं ऐसी लगती थी मानो चन्द्रमा ने उनके ललाट पर शुशोभित होने के लिए स्वयं को तीन टुकड़ों में विभक्त कर दिया हो, उन परम उग्र देवता की लम्बी भुजाएं ऐसी लगती थी मानो लौह स्तम्भ हो, भयानक अष्टमहानाग जिनका यज्ञोपवीत बने इतरा रहे थे, कमर पर बंधे मोटे मोटे घुंघरुओं से ऐसी आवाज़ आ रही थी जिससे ह्रदय विदीर्ण हो जाए।
उस महाकाय महाबाहु गण को भगवान् शिव ने स्पष्ट शब्दों में कहा की ब्रह्मदेव के पांचवें सर का छेदन कर दो। इतना सुनते ही उस वीर ने आव देखा न ताव अपने नाख़ून के एक ही प्रहार से ब्रह्मा का पांचवां सर उखाड़ लिया परन्तु वो सर उनके हाथ में ही चिपक गया। जब उन्होंने भगवान् शिव से इसका कारण पूछा तो उन्होंने उनसे कहा की ये केवल ब्रह्मा का सिर नहीं है अपितु ब्रह्महत्या है। इस ब्रह्महत्या के फलस्वरुप तुम्हें श्रापित होना पड़ेगा उन्होंने कहा की तुमने ब्रह्मा के सिर को काटकर इस सृष्टि की अहंकार से रक्षा की है। अतः आज से तुम्हारा नाम भैरव होगा अब तुम जाओ और ब्रह्मा के इस सिर को लेकर सृष्टि में विचरण करो और जहाँ भी ये सिर तुम्हारे हाथ से छूट जाएगा वहीं तुम रुक जाना और स्थापित हो जाना।
उसके बाद भैरव ने उस सर को हाथ में लेकर सृष्टि के चक्कर लगाने शुरू किए वो सारी सृष्टि में अनंत काल तक भ्रमण करते रहे परन्तु कही भी वो सर उनके हाथ से नहीं छूटा, परन्तु सृष्टि के चक्कर लगाते लगाते उनकी गति इतनी तीव्र हो गयी की वो समय से भी आगे निकल गए। जब भगवान नारायण के कर्ण कुण्डल गिरे और काशी नगरी स्थापित हुई तब वहां पर भगवान् भैरव के हाथ से ब्रह्मदेव का वो कपाल छूट गया। तब भगवान् भैरव वहीं रुक गए और तब वहां भगवान् शिव प्रकट हुए उन्होंने उनसे कहाँ की ये मेरी प्रिय काशी नगरी है और आज से तुम इसके संरक्षक के रूप में यहाँ स्थापित हो परन्तु तुम्हें इस काशी नगरी में केवल पैर के एक अंगूठे के बराबर स्थान मिलेगा और तुम्हें इसी ब्रह्म कपाल में भोजन करना होगा, तुम अपनी तीव्र गति के कारण समय से भी आगे चले गए थे अर्थात तुमने कालचक्र पर भी विजय प्राप्त की है इस कारण आज से तुम काल भैरव के नाम से जाने जाओगे।
तुम काशी, काशी की पवित्रता और काशी के भक्तों की रक्षा करोगे, ध्यान रहे काशी में मरने वाले को यम स्पर्श न करे, तब बाबा काल भैरव ने महादेव से पूछा की इससे तो पापी कर्म के दंड से निर्भीक हो जाएंगे तो उन्होंने कहाँ की यहाँ मृत्यु प्राप्त करने वालो को यमराज दंड नहीं दे पाएंगे परन्तु तुम उन्हें दंड दोगे, बिना काल यातना प्राप्त किए कोई भी जीवात्मा ये काशी नगरी नहीं छोड़ेगी।
जिस जगह पर वो अग्नि स्तम्भ प्रकट हुआ था वो जगह आज के समय में अरुणाचल प्रदेश में स्थित है और जिस स्थान पर ब्रह्मा का कपाल छूटा था वो जगह आज के समय में वाराणसी स्थित कपाल मोचन तीर्थ है। इसी कथा से सम्बंधित बाबा कपाल भैरव के जन्म की कथा है जिसके बारे में मैं आपको आगे बताऊंगा अभी हम बाबा बटुक भैरव की जन्मकथा के बारे में जानते हैं।
बाबा बटुक भैरव के जन्म की कथा- आप सभी को उस कथा का ज्ञान होगा जब परमेश्वरि महाकाली को शांत करने के लिए परमेश्वर भगवान् शिव माता के चरणों के नीचे लेट गए थे तब माता काली को जिस पश्चाताप ने घेरा था उसके कारण माता ने भगवान् शिव से ये वचन लिया था की आज के उपरांत वो कभी उनके सामने भूमिशायी नहीं होंगे। तब भगवान् ने उन्हें वचन दे दिया परन्तु कालांतर में जब माता ने दारुक नमक असुर का संघार करने के लिए पुनः काली स्वरुप धारण किया और वो नियंत्रण से बाहर हो गयी तो भगवान् ने वचनबंधित होने के कारण एक नन्हें से बालक का रूप धारण किया और माँ माँ कह कर काली माँ को पुकारना आरम्भ किया।
बालक की करूण पुकार को सुन कर माँ काली का ह्रदय द्रवित हो गया और वो अपना आक्रोश भूलकर उसे गोद में लेकर लाड-प्यार करने लगी और उनका क्रोध शांत होकर उनका उग्र रूप शांत हो गया तब उस बालक से माँ ने पूछा की तुम कौन हो? तो उस बालक ने उत्तर दिया की मै शिव हूँ तुम्हें शांत करने के लिए मैंने ये बटुक रूप धारण किया है। बटुक का अर्थ होता है बाल रूप। तब माता ने कहा कि आप अपने पूर्व रूप को धारण करिए। तब भगवान् शिव अपने शिवरूप में आ गए। तब माता ने उनसे पुनः आग्रह किया की आप अपने भीतर से उस बटुक रूप को बहार निकालिए। तो भगवान् शिव ने उनसे इसका कारण पूछा। इस पर उन्होंने कहाँ की उस स्वरूप में आपने मुझे माँ कहाँ है? आप तो मेरे स्वामी हैं पुत्र नहीं हो सकते। तब परमेश्वर ने पुनः बटुक रूप को प्रकट किया। तब माता ने उनसे कहा की आपने इस बटुक रूप में संसार की रक्षा की है मेरे क्रोध से इसलिए आज से आपको भैरव की उपाधि दी जाती है। आज से आप 'बटुक भैरव' के रूप में पूजे जाएंगे और मेरे पुत्र के रूप में जाने जाएंगे।
बटुक भैरव पापियों के काल है उनकी उपस्थिति जहाँ साधको को सुख का आभास करवाती है वही वो बालक पांच वर्ष की आयु में भी पापियों का काल है, सोचिये की जिस बालक ने माँ काली के क्रोध को शांत कर दिया उसके सामने कौन ऐसा है जो अपनी शक्ति दिखाएगा। ये थी बाबा बटुक भैरव की उत्पत्ति की कथा।
उपरोक्त वर्णित दो भैरवों के आलावा कोई भी ऐसे भैरव नहीं है जिनकी उत्पत्ति साक्षात् भगवान् शिव से हुई हो। रक्षक की भूमिका निभाने के लिए समय समय पर बाबा काल भैरव से ही अन्य सभी भैरवों, उप-भैरवों की उत्पत्ति हुई है जिनका मुख्य उद्देश्य माता के विभिन्न रूपों की रक्षा करना ही था। परन्तु इन सभी भैरवों में से भी एक भैरव ऐसे हुए जो काल भैरव को सबसे प्रिय है। भगवान् काल भैरव ने उन्हें अपने अनुज का स्थान दिया अपना दंडाधिकारी बनाया जिनका नाम है कपाल भैरव।
कपाल भैरव उत्पत्ति कथा : यहां कपाल भैरव के जन्म की उत्पत्ति की कथा बताने से पहले मैं आप सबकी बाबा कपाल भैरव की कुछ विशेष बाते बताना चाहता हूं और आध्यात्म में सिद्धि की पराकाष्ठा कपाल भेदन क्रिया को माना जाता है इस कपाल भेदन के मुख्य रूप से दो प्रतीकात्मक या मुख देवता है सर्व प्रथम है माता छिन्नमस्ता जिन्होंने स्वयं अपना शिरच्छेद कर दिया था और दूसरी है भगवान् परशुराम की माता और ऋषि जमदग्नि की धर्मपत्नी माँ रेणुका जिनका सर पिता की आज्ञा से स्वयं भगवान् परशुराम ने काट दिया था, जिस प्रकार सर्प जागृत कुण्डलिनी का प्रतीक होते हैं। उसी प्रकार ये दोनों माताएं कपाल भेदन क्रिया की प्रतीक एवं पराकाष्ठा है। परन्तु शास्त्रों के गूढ़ जानकार इस बात को जानते हैं कि इनके आलावा कुछ और देवता भी है जो कपाल के अधिष्ठात्र देवता है जिनमें प्रथम है माता हिंगलाज ये 52 शक्तिपीठो में प्रथम है यहाँ पर माता सती का ब्रह्मरंध्र गिरा था। यानी की माता सती का कपाल और दूसरे है बाबा कपाल भैरव जिनकी उत्पत्ति साक्षात् ब्रह्मदेव के ब्रह्मकपाल से हुई थी। इन्हीं बाबा कपाल भैरव की कथा अब मैं आपको बताने जा रहा हूँ।
जैसा की मैंने काल भैरव के जन्म की कथा सुनते हुए ये बताया था की कपाल भैरव की कथा इनके अंत से सम्बंधित हैं। उसी के आगे से मैं बाबा कपाल भैरव की कथा शुरू कर रहा हूँ। जब बाबा काल भैरव को महादेव द्वारा काशी में स्थापित किया गया तो वो ये सोचने लगे की भगवान् ने मुझे दंड देने का कार्य दे तो दिया परन्तु मैं दंड दूंगा कैसे, क्योंकि मुझे कैसे पता चलेगा की कौनसा व्यक्ति सही है और कौनसा व्यक्ति गलत? तब उनकी नज़र पड़ी ब्रह्मकपाल के ऊपर। उनके मन में ये विचार आया की ब्रह्मदेव के इस सिर के कारण मुझे मेरे पाप का दंड मिला तो क्यों न एक ऐसे गण की रचना की जाए जो व्यक्ति के अच्छे बुरे का निर्णय कर सके और उनके कर्मो के हिसाब से उसे दंड प्रदान कर सके।
तब उन्होंने उस ब्रह्मकपाल का एक हिस्सा तोड़ा और अपनी योग शक्ति से उस कपाल में अपनी कुण्डलिनी ऊर्जा को जागृत करके उसे एक जीवंत रूप प्रदान किया। उस कपाल के अंश से जिस गण का प्राकट्य हुआ वो गण अत्यंत भयानक थे। साक्षात् दूसरे काल भैरव के सामान ही प्रतीत हो रहे थे उनके हाथो में जो त्रिशूल था उसमें से विद्युत् निकल रही थी, हड्डियों के टकराने का सा उनका अट्टहास था। उनके मस्तक पर तीसरा नेत्र विद्यमान था।
परमेश्वर शिव के सामान ही वो सर्पाभूषण धारण किए हुए थे। उनके एक हाथ में कपाल था और दूसरे हाथ में त्रिशूल। भगवान् काल भैरव ने उन्हें देखते ही प्रसन्नता से उन्हें अपने ह्रदय से लगा लिया और उनसे कहा की तुम ब्रह्मदेव के खंडित कपाल से प्रकट हुए हो और तुम्हारे अंदर मेरे कपाल की ही उर्जाएं हैं। अतः आज से तुम्हारा नाम कपाल भैरव होगा, कपालहस्त होने के कारण तुम्हें कपाली भैरव भी कहा जाएगा और आज से तुम काशी में साक्षात काल भैरव का दंड बनकर मेरे कार्य में मेरी सहायता करोगे, जिस लाट पर ब्रह्मदेव का सर गिरा था तुम उसी लाट पर स्थापित होंगे और तुम्हें लाट भैरव कहा जाएगा और तुम्हारी पूजा के बाद ही मेरी पूजा होगी।
इसी कारण से आज भी बाबा कपाल भैरव का ध्यान किए बिना भगवान् काल भैरव की पूजा नहीं की जाती जिसके प्रमाण है काशी और उज्जैन के काल भैरव मंदिर जिनमें निम्नलिखित श्लोक से बाबा कपाल भैरव को याद किया जाता है।
वन्दे बालं स्फटिकसदृशं कुम्भलोल्लासिवक्त्रं।
दिव्याकल्पैफणिमणिमयैकिङ्किणीनूपुरञ्च।
दिव्याकारं विशदवदनं सुप्रसन्नं द्विनेत्रं।
हस्ताद्यां वा दधानान्त्रिशिवमनिभयं वक्रदण्डौ कपालम्।
काल यानी समय और काल भैरव यानी समय के भय से रक्षा करने वाले, बाबा काल भैरव और ब्रह्मदेव के ब्रह्मकपाल से प्रकट होने के कारण बाबा कपाल भैरव त्रिनेत्रधारी और त्रिकालदर्शी देवता है, ये अत्यंत शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता है और बिना साधक का अहित किए हुए ये उसके साथ रहते हैं। इनकी पूजा और साधना करने वाला व्यक्ति सदैव सुखी होता है। भगवान् कपाल भैरव कपाल से प्रकट होने के कारण कपाल तत्व के इष्ट देवता है।
जैसा की आप सबको मैंने बताया था की साधना क्षेत्र में कपाल भेदन क्रिया कितनी आवश्यक है परन्तु लोग इसे जल्दी से सिद्ध नहीं कर पाते। कारण की उन्हें पता ही नहीं होता की कपाल भेदन क्या होता है और किस देवता की कृपा से वो कपाल भेदन क्रिया संपन्न कर सकते हैं। कलयुग में तीन देवता ऐसे हैं जिन्हें मुख्य रूप से जागृत माना गया है जो समस्त कलयुग में मानव कल्याण का भार वहन करते हैं और वो तीन देवता है- भगवान् श्री हनुमान, भगवान् श्री भैरव, और माता श्री महाकाली। जागृत होने के कारण भैरव कम साधना उपासना में भी साधक को फल दे देते हैं और बाबा कपाल भैरव के आशीर्वाद से आप कपाल भेदन क्रिया को भी संपन्न कर सकते हैं।