-मनोज शर्मा
हमारे देश में लगभग सभी नदियां पवित्र एवं पूजनीय मानी जाती हैं। उनमें से जो नदियां सीधे समुद्र में जाकर मिलती हैं, वे और नदियों से श्रेष्ठ हैं एवं उनमें से भी 4 नदियां सर्वश्रेष्ठ मानी गई हैं- गंगा, यमुना, सरस्वती एवं नर्मदा। गंगा नदी ऋग्वेदस्वरूप, यमुना युजुर्वेदस्वरूपा, नर्मदा सामवेदस्वरूपा एवं सरस्वती अथर्ववेदस्वरूपा है।
नर्मदाजी ने अपनी योग्यता से प्रथम श्रेणी में तो स्थान प्राप्त कर लिया किंतु वे चाहती थीं कि प्रथम श्रेणी में भी मुझे सर्वप्रथम स्थान मिले। और यह संभव तपस्या के द्वारा ही हो सकता था और इसे लोकपितामह ब्रह्मा ही दे सकते थे। इसके लिए नर्मदाजी ने घोर तपस्या प्रारंभ कर दी। तपस्या से ब्रह्माजी प्रसन्न होकर प्रकट हुए एवं वरदान मांगने को कहा। तब नर्मदाजी ने विनम्रता से कहा कि मुझे गंगा के समान सर्वश्रेष्ठ पद प्रदान कर दीजिए। तब ब्रह्माजी ने कहा, बिटिया, हम तुमसे कुछ प्रश्न पूछते हैं। पहले उसका उत्तर दो, तब हम तुम्हारी बात सुनेंगे।
तब ब्रह्माजी ने पूछा, बताओ, भगवान पुरुषोत्तम के समान कोई और पुरुष हो सकता है?
नर्मदाजी ने कहा, 'नहीं।'
ब्रह्माजी ने पूछा, क्या सती पार्वती गौरी के समान कोई और नारी हो सकती है?
नर्मदाजी ने कहा, 'नहीं।'
पुन: ब्रह्माजी ने पूछा, काशी के समान परम पावन कोई और पुरी हो सकती है?
नर्मदाजी ने फिर कहा, 'नहीं।'
तब ब्रह्माजी ने कहा, तब बिटिया, तुम कैसे कह सकती हो कि मैं गंगा के समान सर्वश्रेष्ठ बन जाऊं?
यह सुनकर नर्मदाजी चुप हो गईं एवं मन-ही-मन सोचा, भूल हो गई। मैं तो अनुपयुक्त परीक्षक के पास पहुंच गई जिन्हें मोह, ममता व अपनापन नहीं है। अब ऐसे परीक्षक की शरण में जाऊं जिसके हृदय में अपनापन हो।
यह सोचकर वे अपने पिता शिवजी की शरण में काशी गईं और घोर तपस्या की। अपने नाम के नर्मदेश्वर की स्थापना कर उनकी आराधना करने लगीं। इनकी सेवा से संतुष्ट होकर शंकरजी उनके सम्मुख प्रकट हुए और वर मांगने को कहा। अबकी बार नर्मदाजी संभल गईं और अपने स्वार्थ की बात न कहकर बोलीं, प्रभु आपके चरणविंदों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे, यही वरदान आप मुझे दें।
आशुतोष भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए एवं सोचा, यह तो अपनी पुत्री ठहरीं, कुछ मांग नहीं रही हैं। केवल मेरे चरणों की भक्ति मांग रही हैं।
शिवजी बोले, वह तो तुम्हें प्राप्त होगी ही किंतु मैं तुम्हें अपनी ओर से कुछ वरदान देना चाहता हूं।
तब शिवजी बोले, अच्छा सुन, भक्ति के अतिरिक्त पहला वर यह मैं देता हूं कि तेरे दोनों किनारे के जितने भी पाषाण होंगे, वे सब मेरे स्वरूप ही शिवलिंग समझे जाएंगे। दूसरा वर यह देता हूं कि गंगा, यमुना, सरस्वती और तू 4 सर्वश्रेष्ठ में। तू इन चारों में सर्वश्रेष्ठ समझी जाएगी।
नर्मदाजी ने बात पक्की करने के लिए पूछा, सो कैसे जाना जाएगा भगवन्?
शिवजी बोले, गंगा स्नान से तुरंत निष्पाप हो जाओगे। यमुनाजी के किनारे 7 दिन रहो, स्नान-पूजन करो, तब निष्पाप होंगे। सरस्वती के किनारे 3 दिन रहो, तब निष्पाप, किंतु रेवे (नर्मदाजी का एक नाम) तुम्हारे तो केवल दर्शन मात्र से ही प्राणी निष्पाप बन जाएंगे।
त्रिमि: सारस्वतं पुण्यं सप्ताहेन तु यामुनय्,
सद्य: पुनाति गांगेय दर्शनादेव नर्मदा।
गंगा कनखले पुण्या कुरुक्षेत्रं सरस्वती,
ग्राम वायदि वारण्ये पुण्या नर्मदा सर्वत्र।
गंगा कनखल व सरस्वती कुरुक्षेत्र में विशेषतया पुण्य रूप हैं। पर नर्मदा कहीं भी बहे, वन में, ग्राम में सर्वत्र पुण्यमयी मानी गई है। इसके अतिरिक्त तुम्हारे इस स्थापित नर्मदेश्वर के काशी में दर्शन करके पापी, निष्पाप हो जाएंगे। इन वरदानों को प्राप्त कर नर्मदाजी काशी से अपने विंध्यप्रदेश में स्वस्थान को चली गईं।
इसके अलावा नर्मदाजी की अन्य विशेषताओं में-
1. नर्मदाजी आदि से अंत तक पहाड़ों में ही होकर बही है। इसलिए स्वराज से पूर्व कोई नहर नहीं निकली। हालांकि अब बांध बन रहे हैं।
2. नर्मदाजी उल्टी दिशा में बही है। पूर्व से पश्चिम की ओर।
3. जितने तीर्थ नर्मदाजी के तट पर स्थित हैं, उतने तीर्थ किसी भी नदी के तट पर नहीं हैं। इसका प्रत्येक पत्थर शंकर है।
4. जितने पक्के घाट नर्मदा के हैं, उतने घाट किसी नदी पर नहीं हैं।
5. जितने घने जंगल, वन इनके किनारे-किनारे हैं, उतने कहीं नहीं हैं।
6. किसी भी नदी के जयकार में उनके पिता का नाम नहीं लिया जाता है। इनके साथ पिता का नाम लिया जाता है- नर्मदेहर, नर्मदेहर।
7. अनादिकाल से जैसी इनकी विधिवत् परिक्रमा होती है, वैसी किसी भी नदी की नहीं होती है।
वायुपुराण, स्कंदपुराण में तो रेवा (नर्मदा) खंड एक पृथक खंड ही है। संपूर्ण देश के शिव मंदिरों में नर्मदाजी से लाए हुए शिवलिंग ही स्थापित होते हैं। नर्मदाजी के किनारे आकर ब्रह्मा-विष्णु-महेश, लोकपाल, देवता, उरग, राक्षस, वानर, भालू, अप्सरा, यक्ष, गंधर्व, किंपुरुष आदि सभी ने तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की है।
रेवा तपस्थली है- अत: कहा गया है-
'रेवातीरे तप: कुर्यात मरणं जाह्नवी तट।'
अर्थात् नर्मदाजी के तट पर जाकर तपस्या करें और मृत्यु के समय जाह्नवी (गंगाजी) के तट पर आ जाएं।
लेखक : मनोज शर्मा (पूर्व संयुक्त निदेशक- परमाणु उर्जा विभाग, अनुवादक, स्वतंत्र लेखक और योग शिक्षक।)