आज संत कबीर की जयंती : जानिए कबीर के प्रेरक किस्से
कबीर (saint, kabir) भारत के विनम्र संत हैं। उन्हें गुरुओं के गुरु भी कहा जाता है। उनमें पुरुषार्थ, विनय, विवेक, साधना, फक्कड़पन, समन्वय आदि कई विलक्षण विशेषताएं थीं। वे सर्वधर्म सद्भाव के प्रतीक थे। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना और सौहार्द को बल दिया। यहां पढ़ें उनके जीवन के प्रेरक किस्से... kabir interesting stories
चक्की छोड़िए, भजन कीजिए
संत कबीर के बारे में एक रोचक कथा-किस्से के अनुसार एक बार कबीर दास पंजाब गए थे, जहां उनके अनुयायियों ने संतों को बल्ख-बुखारा में दी जा रही इस यातना की जानकारी देते हुए कुछ करने को कहा। कबीर साहब यत्नपूर्वक बल्ख-बुखारा पहुंचे और संतों-फकीरों की यह यातना देख द्रवित हो उठे।
कबीर ने संतों-फकीरों से कहा- 'आप भगवद् भजन कीजिए। चक्की छोड़िए। यह तो चलती चक्की है। अपने आप चलेगी।'
और उन्होंने उस चक्की को छू दिया। चक्की खुद-ब-खुद चलने लगी और लगातार चलती रही। बाद में कबीर पंथ के पांचवें संत लाल साहब कबीरदास के द्वारा छूकर चलाई गई इसी चक्की को भारत ले आए।
इस संबंध प्रचलित कथा और किंवदंतियों के अनुसार रूस के पास अरब देश बल्ख-बुखारा के बादशाह रहे सुलतान इब्राहिम के कैदखाने में यह चक्की लगाई गई थी। इस चक्की को सुलतान के शासन काल में गिरफ्तार किए गए साधु-संतों से चलवाया जाता था। इस भारी-भरकम चक्की का नाम 'चलती चक्की' था।
सुलतान इब्राहिम साधु-संतों, फकीरों को दरबार में बुलाता था और उनसे अनेक प्रश्नों का समाधान पूछता था। जब साधु-संत उनकी शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाते थे, तब उन्हें कैदखाने में डालकर इस भारी चक्की चलाने का दंड दिया जाता था।
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कबीर की हाजिरजवाबी
कबीर बचपन से ही विलक्षण बुद्धि वाले थे। उनकी हर बात तर्कपूर्ण एवं सत्य होती थी। कबीर का यह किस्सा उस समय का है जब श्राद्ध पक्ष के दिन चल रहे थे और गुरु रामानंद जी को अपने पितरों को श्राद्ध करना था।
मान्यतानुसार श्राद्ध पक्ष में पितृओं के पसंद की चीजें बनाई जाएं तो पितृ संतुष्ट होते हैं। इसलिए रामानंद जी ने कबीर दास से कहा, जाओ, गाय का दूध ले आओ।
कबीर जी दूध लेने निकल पड़े। रास्ते में एक मृत गाय दिखाई दी। उन्होंने मृत गाय के आगे घास रख दिया और दूध का पात्र लेकर वहीं खड़े हो गए। अब श्राद्ध का समय निकला जा रहा था। जब कबीर दास दूध लेकर गुरु के पास नहीं पहुंचे, तब रामानंद जी दूसरे शिष्यों के साथ उन्हें ढूंढ़ने निकले। उन्हें रास्ते में मृत गाय के पास कबीर खड़े दिखाई दिए। उन्होंने पूछा, तुम यहां क्यों खड़े हो?
कबीर दास ने कहा, गुरु देव! यह गाय न तो घास खा रही है और ना ही दूध दे रही है। इतना सुन कर रामानंद जी ने कबीर जी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, पुत्र! मृत गाय भी कहीं घास खाकर दूध दे सकती है?
कबीर दास भी हाजिरजवाबी थे, उन्होंने तुरंत प्रश्न किया, जब आपके पूर्वज जो वर्षों पूर्व मृत हो चुके हैं, वे दुग्धपान कैसे कर सकते हैं?
गुरु रामानंद जी अपने शिष्य की तर्कपूर्ण बात सुनकर मौन हो गए और कबीर जी को हदय से लगा लिया। इसीलिए कबीर दास गुरु रामानंद जी को प्रिय थे।
कबीर दास का संयम
एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था। उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुंचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता?
उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहां पहुंचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे? जुलाहे ने कहा- 10 रुपए की।
तब लड़के ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिए और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे? जुलाहे ने बड़ी शांति से कहा 5 रुपए।
लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किए और दाम पूछा? जुलाहा अब भी शांत। उसने बताया - ढाई रुपए। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के?
जुलाहे ने शांत भाव से कहा- बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लड़के को शर्म आई और कहने लगा- मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूं। जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं?
लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा, मैं बहुत अमीर आदमी हूं। तुम गरीब हो। मैं रुपए दे दूंगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।
जुलाहे ने मुस्कुराते हुए कहा- तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बुना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपए से यह घाटा कैसे पूरा होगा? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।
लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आंखें भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।
जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा- बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपए ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता पर तुम्हारी जिंदगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।
साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूंगा। पर तुम्हारी जिंदगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहां से लाओगे तुम? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है। उस महान संत की ऊंची सोच-समझ ने लडके का जीवन बदल दिया। यह संत कोई और नहीं बल्कि कबीर दास जी थे।
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