आसान नहीं है
प्रेम पर लिखना
प्रेम को समझना
उसे जीना या
फिर परिभाषित कर
उसे बांधना शब्दों में।
प्रेम का कोई
पर्याय भी नहीं है
प्रेम तो शाश्वत है
सत्यम्, शिवम् और
सुंदरम् है।
वह
यहां-वहां नहीं
हमारे ही घट-घट में
रहता है विराजित
जिसे हम
जानते-बूझते हुए भी
करते हैं अनदेखा
और खोजते रहते हैं
यहां-वहां।
प्रेम रहता है उस
कस्तूरी की तरह
जो मौजूद है
हमारे ही अंदर
पर जानते हुए भी हम
भटकते हैं
उसे पाने के लिए
मृग की ही तरह
यहां-वहां।
नहीं होते हैं संतुष्ट
ममत्व, स्नेह और अपनत्व से
इसीलिए प्रेम
नहीं रह गया है अब प्रेम
बदल गया है रूप उसका
सांसारिक वासनाओं में।
जी हां,
नहीं देता मैं
सफल/असफल प्रेम का
कोई उदाहरण
जिनसे भरा है इतिहास।
इतिहास तो अब
रचना होगा नया
मिलकर हम सबको
आने वाली पीढ़ी को बचाने के लिए।
समझाना होगा उन्हें
प्रेम के सही अर्थ
जिससे बने माहौल
सौहार्द, समन्वय और
संस्कारों का
घर, परिवार, समाज
और देश में।
क्या हम तैयार हैं
नए ढंग से परिभाषित करने