यूक्रेन युद्ध के चलते अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर हजारों की संख्या में भारत लौटने को मजबूर हुए मेडिकल छात्रों के भविष्य को लेकर अब कई सवाल उठने लगे है। यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्रों की पढ़ाई युद्ध के चलते बीच में रूकने से अब उनका भविष्य अंधकार में लग रहा है। यूक्रेन से वापस लौटे इन छात्रों की पढ़ाई पूरी करने को लेकर अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप करने की मांग अब तेज पकड़ने लगी है।
उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर यूक्रेन से भारत लौटे छात्रों की पढ़ाई जारी रखने के लिए राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग और संबंधित मंत्रालयों के हस्तक्षेप का अनुरोध किया है। नवीन पटनायक ने पीएम मोदी से अनुरोध किया है कि यूक्रेन युद्ध के कारण जिन भारतीय मेडिकल छात्रों की पढ़ाई बधित हुई है, सरकार उनकी समस्याओं को गंभीरता से ले।
यूक्रेन संकट देश में इस बात पर भी बहस तेज कर दी है कि आखिर ऐसे कौन से कारण है कि जिसके चलते इतनी बड़ी संख्या में बच्चे विदेश जाकर पढ़ने के लिए मजबूर होते है। दरअसल यूक्रेन संकट ने देश की हायर एजुकेशन की मौजूदा शिक्षा प्रणाली से जुड़ी मूलभूत कमजोरियों और समस्याओं की ओर सबका ध्यान खींच लिया है।
यूक्रेन में युद्ध में मारे गए कर्नाटक के भारतीय छात्र नवीन के पिता का यह बयान की महंगी मेडिकल शिक्षा और जातिवाद के चलते छात्र डॉक्टर बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए यूक्रेन जैसे देशों को रूक करते है। नवीन के पिता का संतप्त शेखरप्पा ज्ञानगौड़ा ने कहा कि प्राइवेट कॉलेजों में मेडिकल की एक सीट के लिए करोड़ो रूपए देने पड़ते है।
मेडिकल की महंगी पढ़ाई और कोटा सिस्टम- भारत से हर साल हजारों भारतीय छात्र पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं। यह कोई खुलासा नहीं है, बड़ी बात ये है कि इनमें से ज्यादातर बच्चे मेडिकल का कोर्स करने के लिए बाहर जाते हैं। इसमें भी रूस, चीन, यूक्रेन, अजरबैजान, आर्मीनिया, फिलीपींस और यहां तक कि बांग्लादेश उनकी पसंद के देश होते हैं।
इतनी बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों के विदेश जाने का प्रमुख कारण भारत में मेडिकल की पढ़ाई का अत्यधिक महंगाई होना और एडमिशन की प्रक्रिया में आरक्षण की व्यवस्था है। सीटों में आरक्षण की कोटा प्रणाली इस चुनौती को और कठिन बनाती है। भारत के कई निजी मेडिकल कॉलेजों की सालाना फीस इतनी है कि चीन, कजाखिस्तान, फिलीपींस, यूक्रेन और आर्मीनिया जैसे देशों में पूरा एमबीबीएस कोर्स किया जा सकता है। इन सभी देशों में बिना किसी प्रवेश परीक्षा के 35 से 40 लाख रुपये में मेडिकल डिग्री मिल जाती है।
यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले भोपाल के हर्षित कहते हैं कि वहां पर एबीबीएस का पूरा कोर्स 35-40 लाख पूरा हो जाता है जबकि भारत में एबीबीएस कोर्स में एडमिशन के लिए ही एक करोड़ रूपए तक देने होते है।
मेडिकल कॉलेजों में सीटों की संख्या बहुत कम–भारत में मेडिकल की पढ़ाई महंगी होने का बड़ा कारण है कॉलेजों की संख्या समिति होने के साथ सीटों की संख्या भी सीमित होना है। भारत में सरकारी और प्राइवेट कॉलेजों को मिलाकर लगभग 85 हजार सीटें हैं जबकि एडमिशन की कतार में लाखों छात्र होते है। इसके साथ भारत में NEET के जरिए एमबीबीएस, बीडीएस और डेंटल कॉलेजों में प्रवेश दिया जाता है जिनकी सीटों की संख्या सीमित होती है जिसकी वजह से प्रतिस्पर्धा ज्यादा है। जबकि विदेशों में प्रतिस्पर्धा कम है।
भारत में मेडिकल कॉलेजों में एडिमशन में लेना कितनी बड़ी चुनौती है इसको इस बात से आसानी से समझा जा सकता है कि पिछले साल मेडिकल की 83,000 सीट के लिए 16 लाख छात्रों ने नीट-यूजी की परीक्षा दी थी। इन 83 हजार सीटों में आधी सीटें ही सरकारी मेडिकल कॉलेजों में है, बाकी सीटें निजी मेडिकल कॉलेजों में है जहां एडमिशन के लिए एक सीट के लिए करोड़ों रूपए खर्च करने होते है।
लोकसभा में 20 मार्च 2020 को एक प्रश्न के उत्तर में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि भारत के 541 मेडिकल कॉलेजों में कुल 82926 एमबीबीएस सीटों की पेशकश की जाती है, जिसमें 278 शासकीय और 263 प्राइवेट कॉलेज शामिल हैं।
पीएम मोदी ने भी जताई थी चिंता-भारत में मेडिकल की सीटों की संख्या कम होने का जिक्र पिछले दिनों खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करते हुए कहा था कि साल 2014 से पहले देश में 90 हजार से भी कम मेडिकल सीटें थीं। बीते 7 वर्षो में इसमें 60 हजार नई सीटें जोड़ी गई हैं। इसके बावजूद यह छात्रों की बढ़ती संख्या की तुलना में बेहद कम है।
पिछले महीने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजट घोषणाओं पर एक वेबिनार में प्रधानमंत्री ने इस बात को उठाते हुए निजी क्षेत्र से इस सेक्टर में प्रवेश करने और राज्य सरकारों से इस संबंध में भूमि आवंटन के लिए अच्छी नीतियां बनाने का आह्वान किया था।
सीट बढ़ाने के साथ फीस पर भी बड़ा फैसला- देश में मेडिकल की पढ़ाई सस्ती करने के लिए मोदी सरकार ने प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में आधी सीटों पर सरकारी मेडिकल कॉलेज के बराबर ही फीस लेने का बड़ा फैसला किया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक कार्यक्रम में इस बात का एलान किया।
इसके साथ मोदी सरकार के पिछले सात साल के कार्यकाल में मेडिकल की अंडर ग्रेजुएट सीटों में 72 फीसद और पोस्ट ग्रेजुएट सीटों में 78 फीसद की वृद्धि हुई है। जब हाल के वर्षो में बड़ी संख्या में स्वीकृत एम्स समेत अन्य मेडिकल कॉलेज काम करना शुरू कर देंगे, तो यह संख्या और बढ़ जाएगी। कोरोना-काल में डॉक्टरों की कमी का बड़ी संख्या में सामना करने के बाद सरकार ने इस दिशा में कई बड़े ऐलान किए हैं, जिन पर तेजी से काम शुरू हो गया है।
आने वाले दिनों में सरकार हर तीन संसदीय क्षेत्रों पर एक मेडिकल कॉलेज की स्थापना करने जा रही है। इसके अलावा जिला और रेफरल अस्पतालों को अपग्रेड कर नये मेडिकल कॉलेज बनाने की योजना पर भी काम हो रहा है। इस योजना के पहले चरण में 58 जिला अस्पतालों और दूसरे चरण में 24 अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज में बदले जाने की मंजूरी दी जा चुकी है। इन 82 अस्पतालों में से 39 अस्पतालों पर काम शुरू हो चुका है, जबकि बचे हुए का निर्माण कार्य जारी है।
तीसरे चरण में भी 75 जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में बदला जाएगा। सरकार को उम्मीद है कि जब तीनों चरण पूरे हो जाएंगे तो देश में अंडर ग्रेजुएट की दस हजार और पोस्ट ग्रेजुएट की आठ हजार सीटें बढ़ जाएंगी। हालांकि सीटें बढ़ाने के बावजूद कोटा प्रणाली और सस्ती मेडिकल शिक्षा तब भी सरकार के सामने चुनौती बनी रह सकती है।