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क्या कोई युग लाखों वर्ष का होता है? जानिए युग की सचाई

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अनिरुद्ध जोशी

युग के बारे में कहा जाता है कि 1 युग लाखों वर्ष का होता है, जैसा कि सतयुग लगभग 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार वर्ष, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्ष और कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का बताया गया है। तो क्या यह सही है या कि युग की धारणा कुछ और ही है? सचाई को जानने के लिए इस लेख को ध्यान से पढ़ेंगे तो आपकी युग के बारे में सोच बदल जाएगी। उल्लेखनीय है कि आपने सुना ही होगा मध्ययुग, आधुनिक युग, वर्तमान युग जैसे अन्य शब्दों को। इसका मतलब यह कि युग शब्द को कई अर्थों में प्रयुक्त किया जाता रहा है।
 
युग के मान को जानने के पहले हमें जानना होगा कि धरती के मान से समय की अवधारणा क्या है। 1 दिन-रात आधुनिक मान से 24 घंटे का होता है जिसे पुराण और ज्योतिष में 'अहोरात्र' कहा गया है। ज्योतिष धारणा के अनुसार सूर्य उदय से लेकर अगले दिन के सूर्य उदय तक के समय को अहोरात्र अर्थात 1 पूर्ण दिन माना गया है। इस अहोरात्र में 30 मुहूर्त और 8 प्रहर होते हैं। 15 मुहूर्त दिन में और 15 मुहूर्त रात्रि में होते हैं। 2 घटी का 1 मुहूर्त होता है। 3 मुहूर्त का 1 प्रहर होता है। इस तरह 7 दिन का 1 सप्ताह होता है। 15 दिन का 1 पक्ष होता है। 2 पक्षों का 1 अयन होता है। 2 अयनों का 1 वर्ष होता है। वर्ष को 'संवत्सर' कहते हैं। प्रत्येक संवत्सर का अलग नाम होता है। इस तरह 60 संवत्सर होते हैं। यहां तक तो समझ में सभी को आता है।
 
उक्त काल की धारणा धरती के अपनी धूरी पर घूमने और उसके सूर्य के परिक्रमा करने पर आधारित है। अब जानिए आगे का हाल...। धरती अपनी धूरी पर 23 घंटे 56 मिनट और 4 सेकंड अर्थात 60 घटी में 1,610 प्रति किलोमीटर की रफ्तार से घूमकर अपना चक्कर पूर्ण करती है। यही धरती अपने अक्ष पर रहकर सौर मास के अनुसार 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट और 46 सेकंड में सूर्य की परिक्रमा पूर्ण कर लेती है, जबकि चन्द्रमास के अनुसार 354 दिनों में सूर्य का 1 चक्कर लगा लेती है। अब सौरमंडल में तो राशियां और नक्षत्र भी होते हैं। जिस तरह धरती सूर्य का चक्कर लगाती है उसी तरह वह राशि मंडल का चक्कर भी लगाती है। धरती को राशि मंडल की पूरी परिक्रमा करने या चक्कर लगाने में कुल 25,920 साल का समय लगता है।
 
जिस तरह से धरती से हमें सूर्य उदय और अस्त होता हुआ दिखाई देता है उसी तरह से हमें धरती पर से चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अरुण, वरुण भी उदय और अस्त होते हुए दिखाई देते हैं लेकिन उनके उदय और अस्त होने के काल समय में फर्क है। जैसे सूर्य उदय होने के 12 घंटे बाद धरती के आधे हिस्से में अस्त होकर धरती के दूसरी ओर उदय हो जाता है। उसी तरह जब शुक्र और गुरु ग्रह पृथ्वी के दूसरी ओर चला जाता है, तब इसे शुक्र या गुरु का अस्त होना या डूबना कहते हैं। इनके अस्त होने पर शुभ कार्य वर्जित हो जाते हैं।
 
इसी तरह सभी ग्रह अपने-अपने समय काल को भोगकर उदय और अस्त होते हैं। सौरमंडल के उक्त सभी ग्रहों के उदय और अस्त काल, धरती की सौरमंडल के तारागणों में परिक्रमा और सूर्य का स्थिर रहकर भी संपूर्ण ग्रहों के साथ धुव्र का परिभ्रमण काल मिलाकर लाखों वर्षों का 1 चक्कर पूर्ण होता है। उक्त सभी ग्रह, नक्षत्र या तारे एक-दूसरे का चक्कर लगा रहे हैं। किसी ग्रह को सूर्य का 1 चक्कर लगाने में 88 दिन लगते हैं तो किसी ग्रह को 60,000 दिन लगते हैं। किसी ग्रह के 1 चन्द्रमा तो किसी ग्रह के कई चन्द्रमा हैं। हमारे समय की अवधारणा धरती के मान से है, क्योंकि हम धरती पर रहते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि लगभग 26,000 वर्ष बाद हमेशा ही उत्तर में दिखाई देने वाला ध्रुव तारा अपनी दिशा बदलकर पुन: उत्तर में दिखाई देने लगता है। 
 
अब जानिए : भारतीय ज्योतिषियों ने समय की धारणा को सिद्ध धरती के सूर्य की परिक्रमा के आधार पर नहीं प्रतिपादित किया है। उन्होंने संपूर्ण तारामंडल में धरती के परिभ्रमण के पूर्ण कर लेने तक की गणना करके वर्ष के आगे के समय को भी प्रतिपादित किया है। वर्ष को 'संवत्सर' कहा गया है। 5 वर्ष का 1 युग होता है। संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर और युगवत्सर ये युगात्मक 5 वर्ष कहे जाते हैं।
 
बृहस्पति की गति के अनुसार प्रभव आदि 60 वर्षों में 12 युग होते हैं तथा प्रत्येक युग में 5-5 वत्सर होते हैं। 12 युगों के नाम हैं- प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति और क्षय। प्रत्येक युग के जो 5 वत्सर हैं, उनमें से प्रथम का नाम संवत्सर है। दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और 5वां युगवत्सर है।

1250 वर्ष का एक युग : एक पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक युग का समय 1250 वर्ष का माना गया है। इस मान से चारों युग की एक चक्र 5 हजार वर्षों में पूर्ण हो जाता है।
 
प्रमाण पढ़िए : ऋग्वेद में काल मान का द्योतक युग शब्द कई स्थानों में आया है, लेकिन कल्प शब्द का प्रयोग इस अर्थ में कहीं पर भी दिखलाई नहीं पड़ता है। ऋग्वेद में युग के संबंध में कहा गया है-
 
तदूचुषे मानुषेमा युगानि कीर्तेन्यं मधवा नाम विभ्रत्।
उपप्रमंदस्युहत्याय वज्री युद्ध सूनु: श्रवसे नाम दधे।।
(ऋग्वेद संहिता 1.103-4)
 
इस मंत्र की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने लिखा है-
मनुष्याणां सम्बन्धीनि इमानि दृश्यमानानि युगानि अहोरात्रसंघनिष्पाद्यानि
कृतत्रेतादीति सूर्यात्मना निष्पादयतीती शेष:।
 
अर्थात सतयुग, त्रेतादि युग शब्द से ग्रहण किए गए हैं। इससे स्पष्ट है कि वेदों के निर्माण काल में सतयुग, त्रेतादि का प्रचार था। ऋग्वेद के निम्न मंत्र से युग के संबंध में संबंध में एक नया प्रकाश मिलता है।
 
दीर्घतमा मामेतयो जुजुर्वान् दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथि।। 
(ऋग्वेद संहिता 1.158.6)
 
अर्थात इस मंत्र में एक आख्यायिका आई है तथा उसमें कहा गया है कि ममता के पुत्र दीर्घतम नाम के महर्षि अश्विन के प्रभाव से अपने दुखों से छुटकर स्त्री-पुत्रादि कुटुम्बियों के साथ 10 युगपर्यंत सुख से जीवित रहे।
 
यहां 10 युग शब्द विचारणीय है। यदि 5 वर्ष का युग माना जाए, जैसा कि आदिकाल में प्रचलित था तो ऋषि की आयु 50 वर्ष की आती है, जो बहुत-थोड़ी प्रतीत होती है और यदि 10 वर्ष का 1 युग माना जाए तो 100 वर्ष की आयु आती है। वैदिक काल के अनुसार यह आयु भी संभव नहीं जंचती। दूसरी ओर 10 वर्ष ग्रहण करना उचित नहीं। 
 
सायणाचार्य ने युग की इस समस्या को सुलझाने के लिए 'दशयुगपर्यन्तं जीवन् उक्तरूपेण पुरुषार्थसाधकोस्भवत्' अथवा 'जीवन् उत्तररूपेण पुरुषार्थसाधकोस्भवत्' इस प्रकार की व्याख्‍या की है।
 
इस व्याख्या से युग प्रमाण की समस्या सरलता से सुलझ जाती है अर्थात दीर्घतमा ने अश्‍विन के प्रभाव से दुख से छुटकारा पाकर जीवन के अवशेष 10 युग अर्थात 50 वर्ष सुख से बिताए थे। अतएव इस आख्यायिका से स्पष्ट है कि उदयकाल में युग का मान 5 वर्ष से लिया जाता था।
 
ऋग्वेद के अन्य 2 मंत्रों से 'युग' शब्द का अर्थ काल और अहोरात्र भी सिद्ध होता है। 5वें मंडल के 76वें सूक्त के तीसरे मंत्र में 'नहुषा युगा मन्हारजांसि दीयथ:' पद में युग शब्द का अर्थ 'युगोपलक्षितान् कालान् प्रसरादिसवनान् अहोरात्रादिकालान् वा' किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उदय काल में युग शब्द का अन्य अर्थ अहोरात्र विशिष्ट काल भी लिया जाता था। ऋग्वेद के छठे मंडल के नौवें सूक्त के चौथे मंत्र में 'युगे-युगे विदध्यं' पद में युगे-युगे शब्द का अर्थ 'काले-काले' किया गया है। 
 
वाजसनेयी संहिता के 12वें अध्याय की 11वीं कंडिका में 'दैव्यं मानुषा युगा' ऐसा पद आया है। इससे सिद्ध होता है कि उस काल में देव युग और मनुष्‍य युग ये 2 युग प्रचलित थे। तैतिरीय संहिता के 'या जाता ओ वधयो देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा' मंत्र से देव युग की सिद्धि होती है। ठाणांग में 5 वर्ष का 1 युग बताया गया है। इसमें ज्योतिष की दृष्टि से युग की अच्‍छी मीमांसा की गई है। एक स्थान पर बताया गया है कि
 
पंच संवच्छरा पं.तं. णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्‍छरे, लखखणसंवच्छरे, सणिचरसंवच्छरे। जुगसंवच्छरे, पंचविहे पं.तं. चंदे चंदे, अभिवड्ढिए चंदे अभिवडइढिए चेव। पमाणसंवच्छरे पंचविहे पं.तं. णक्खत्ते, चंदे, उऊ, अइच्चे, अभिवडढिए। -ठा. 5, उ. 3., सू. 10
 
अर्थात पंचसंवत्सरात्मक युग-युग के 5 भेद हैं- नक्षत्र, युग, प्रमाण, लक्ष और शनि। युग के भी 5 भेद बताए गए हैं- चन्द्र, चन्द्र, अभिवर्द्धित, चन्द्र और अभिवर्द्धित। 
 
समवायांग में युग के संबंध बहुत स्पष्ट और सुंदर ढंग से बताया गया है-
पंच संवच्छरियस्सणं जुगस्य रिउमासेणं मिज्जमाणस्य एगसट्ठिं उऊमासा प.। -स. 61, सू. 1
 
अर्थात पंचववर्षात्मक 1 युग होता है। इस युग के 5 वर्षों के नाम चन्द्र, चन्द्र, अभिवर्द्धित, चन्द्र और अभि‍वर्द्धित बताए गए हैं। पंचवर्षात्मक युग में 61 ऋतु मास होते हैं।
 
प्रश्न व्याकरणांग में भी युग प्रक्रिया का विवेचन किया गया है। इसमें 1 युग के दिन और पक्षों का निरुपण किया गया है। उदय काल में 'युग' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता था। उस काल में 5 वर्ष का ही 1 युग माना जाता था। पंचवर्षात्मक युग के संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर एवं युग्वत्सर ये 5 पृथक-पृथक वर्ष माने जाते थे।

संदर्भ : 
भारतीय ज्योतिष
लेखक : नेमीचंद्र शास्त्री
प्रकाशन : ज्ञानपीठ प्रकाशन
 
अगले पन्ने पर जानिए फिर सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग क्या है...

दरअसल, युग को दो अर्थों में लिया जाता है, एक मानव वर्षों के हिसाब से युग का मान और दूसरा देवताओं के वर्षों अर्थात दिव्य वर्षों के हिसाब से युग का मान। इस मान से देवताओं का एक दिन मानवों का एक वर्ष माना गया है। संक्षेप में इस संकल्पना को इस तरह समझा जा सकता है कि ब्रह्म वर्ष का एक पूर्ण चक्र पांच हजार वर्षों का होता है। यह ब्रह्म वर्ष और ब्रह्म रात्रि के रूप में ढाई-ढाई हजार वर्षों के दो भागों में बंटा होता है।
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ब्रह्म वर्ष और ब्रह्म रात्रि भी एक बार फिर 1250 वर्षों के दो खंडों में बंटे हुए हैं। इन चार खंडों से ही चार युगों- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का निर्माण हुआ है। हर युग की अपनी विशेषताएं बताई गई हैं। चार वर्ष की जो कल्पना की गई है वह देवताओं के दिन और वर्षों की गणना के आधार पर है। लेकिन प्रचलन में इसका गलत अर्थ निकाला जाकर श्रीराम और कृष्ण के काल में लाखों वर्ष का अंतर पैदा कर दिया गया। हालांकि युग की गुत्थी को सुलझाना अभी भी बाकी है और यह शोध का विषय है।
 
लेकिन यदि हम भारतीय ज्योतिष की धारणा का अध्ययन करके इस समस्या को समझते हैं तो जिस तरह धरती के दिन और रात उसके द्वारा अपनी धूरी पर घूमने और उसके सूर्य की परिक्रमा पर आधारित है उसी तरह संपूर्ण ब्रह्मांड के ग्रह, नक्षत्रों के दिन रात भी अलग अलग समय के होते हैं और सभी का जब एक चक्र पूरा हो जाता है तो फिर उसे एक लंबी काल अवधि पूर्ण मान लिया जाता है। जैसे धरती ने अपना एक चक्र पूरा कर लिया 365 दिन में, लेकन अरूण और वरूण का चक्र अभी बाकी है जो कि लगभग 60 हजार दिनों का होता है। इसी तरह सप्तऋषियों अर्थात आकाश में दिखाई देने वाले सात तारों का चक्र अभी बाकी है। कहने का तात्पर्य यह कि हिन्दू धर्म ने प्रत्येक ग्रह, नक्षत्रों और तारों के घूमने के चक्र के आधार पर संपूर्ण ब्रह्मांण का समय निकाला है। इसके आधार पर ही महायुगों और कल्पों की धारणा को प्रतिपादिन किया गया जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक है। लेकिन चूंकि इसे समझना आसान नहीं इसीलिए फिलहाल इसे एक मानसिक व्याख्‍या माना जाता है।
 
 
हिन्दू धर्मानुसार परमाणु समय की सबसे सूक्ष्मतम इकाई है। यहीं से समय की शुरुआत मानी जा सकती है। यह इकाई अति लघु श्रेणी की है। इससे छोटी कोई इकाई नहीं। आधुनिक घड़ी का कांटा संभवत: सेकंड का सौवां या 1000वां हिस्सा भी बताने की क्षमता रखता है। धावकों की प्रतियोगिता में इस तरह की घड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। सेकंड के जितने भी हिस्से हो सकते हैं उसका भी 100वां हिस्सा परमाणु हो सकता है।
 
*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 ‍त्रुटि = 1 प्राण
*10 प्राण = 1 वेध
*3 वेध = 1 लव या 60 रेणु
*3 लव = 1 निमेष
*1 निमेष = 1 पलक झपकने का समय
*2 निमेष = 1 विपल (60 विपल एक पल होता है)
*3 निमेष = 1 क्षण
*5 निमेष = 2 सही 1 बटा 2 त्रुटि
*2 सही 1 बटा 2 त्रुटि = 1 सेकंड या 1 लीक्षक से कुछ कम।
*20 निमेष = 10 विपल, एक प्राण या 4 सेकंड
*5 क्षण = 1 काष्ठा
*15 काष्ठा = 1 दंड, 1 लघु, 1 नाड़ी या 24 मिनट
*2 दंड = 1 मुहूर्त 
*15 लघु = 1 घटी=1 नाड़ी 
*1 घटी = 24 मिनट, 60 पल या एक नाड़ी
*3 मुहूर्त = 1 प्रहर
*2 घटी = 1 मुहूर्त= 48 मिनट
*1 प्रहर = 1 याम
*60 घटी = 1 अहोरात्र (दिन-रात)
*15 दिन-रात = 1 पक्ष
*2 पक्ष = 1 मास (पितरों का एक दिन-रात)
*कृष्ण पक्ष = पितरों का एक दिन और शुक्ल पक्ष = पितरों की एक रात।
*2 मास = 1 ऋतु
*3 ऋतु = 6 मास
*6 मास = 1 अयन (देवताओं का एक दिन-रात)
*2 अयन = 1 वर्ष
*उत्तरायन = देवताओं का दिन और दक्षिणायन = देवताओं की रात।
*मानवों का एक वर्ष = देवताओं का एक दिन जिसे दिव्य दिन कहते हैं।
*1 वर्ष = 1 संवत्सर=1 अब्द
*10 अब्द = 1 दशाब्द
*100 अब्द = शताब्द
*360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।
*देवताओं का एक वर्ष पूरा होने पर सप्तर्षियों का एक दिन माना गया है।
* 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग)
सतयुग : 4000 देवता वर्ष (सत्रह लाख अट्ठाईस हजार मानव वर्ष)
त्रेतायुग : 3000 देवता वर्ष (बारह लाख छियानवे हजार मानव वर्ष)
द्वापरयुग : 2000 देवता वर्ष (आठ लाख चौसठ हजार मानव वर्ष)
कलियुग : 1000 देवता वर्ष (चार लाख ब्तीसहजतार मानव वर्ष)
 
* 71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल)
* चौदह मन्वंतर = एक कल्प।
* एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है।
* ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)
 
मन्वंतर की अवधि : विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। एक मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष।
 
मन्वंतर काल का मान : वैदिक ऋषियों के अनुसार वर्तमान सृष्टि पंच मंडल क्रम वाली है। चन्द्र मंडल, पृथ्वी मंडल, सूर्य मंडल, परमेष्ठी मंडल और स्वायम्भू मंडल। ये उत्तरोत्तर मंडल का चक्कर लगा रहे हैं।
 
सूर्य मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा) के केंद्र का चक्र पूरा होने पर उसे मन्वंतर काल कहा गया। इसका माप है 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष)। एक से दूसरे मन्वंतर के बीच 1 संध्यांश सतयुग के बराबर होता है अत: संध्यांश सहित मन्वंतर का माप हुआ 30 करोड़ 84 लाख 48 हजार वर्ष। आधुनिक मान के अनुसार सूर्य 25 से 27 करोड़ वर्ष में आकाश गंगा के केंद्र का चक्र पूरा करता है।
 
कल्प का मान : परमेष्ठी मंडल स्वायम्भू मंडल का परिभ्रमण कर रहा है यानी आकाशगंगा अपने से ऊपर वाली आकाशगंगा का चक्कर लगा रही है। इस काल को कल्प कहा गया यानी इसकी माप है 4 अरब 32 करोड़ वर्ष (4,32,00,00,000)। इसे ब्रह्मा का 1 दिन कहा गया। जितना बड़ा दिन, उतनी बड़ी रात अत: ब्रह्मा का अहोरात्र यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।
 
इस कल्प में 6 मन्वंतर अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब 7वां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु की संतानों का काल माना जाता है। 27वां चतुर्युगी बीत चुका है। वर्तमान में यह 28वें चतुर्युगी का कृतयुग बीत चुका है और यह कलियुग चल रहा है। यह कलियुग ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में श्‍वेतवराह नाम के कल्प में और वैवस्वत मनु के मन्वंतर में चल रहा है। इसका प्रथम चरण ही चल रहा है।
 
30 कल्प : श्‍वेत, नीललोहित, वामदेव, रथनतारा, रौरव, देवा, वृत, कंद्रप, साध्य, ईशान, तमाह, सारस्वत, उडान, गरूढ़, कुर्म, नरसिंह, समान, आग्नेय, सोम, मानव, तत्पुमन, वैकुंठ, लक्ष्मी, अघोर, वराह, वैराज, गौरी, महेश्वर, पितृ।
 
14 मन्वंतर : स्वायम्भुव, स्वारो‍‍चिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, (10) ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि।
 
60 संवत्सर : संवत्सर को वर्ष कहते हैं: प्रत्येक वर्ष का अलग नाम होता है। कुल 60 वर्ष होते हैं तो एक चक्र पूरा हो जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं:- 
 
प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृषप्रजा, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, अव्यय, सर्वजीत, सर्वधारी, विरोधी, विकृति, खर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमलम्बी, विलम्बी, विकारी, शार्वरी, प्लव, शुभकृत, शोभकृत, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्ल्वंग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत, परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, काल, सिद्धार्थ, रौद्रि, दुर्मति, दुन्दुभी, रूधिरोद्गारी, रक्ताक्षी, क्रोधन और अक्षय।
 
संदर्भ : पुराण और कल्याण का ज्योतिषतत्त्वांक

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