हिन्दू धर्म को दुनिया और भारत का सबसे प्राचीन धर्म माना गया है। ऋग्वेद विश्व की सबसे प्राचीन धार्मिक पुस्तक है। इस पुस्तक पर आधारित धर्म को पहले वैदिक धर्म कहा जाता था, जो आर्यों का धर्म है। आज इस धर्म के अनुयायियों को हिन्दू कहा जाता है। ऋग्वेद के ही कुछ मंत्रों से यजुर्वेद और सामवेद की स्थापना हुई। इस तरह पहले वेद तीन ही थे। इसीलिए वेदत्रयी कहा जाता था। भगवान श्रीराम के काल में अर्थवेद की रचना हुई, जिसमें वेदों के अलावा भी बहुत कुछ है। मूल रूप से वेद एक ही है और वह है ऋग्वेद। हालांकि कहते हैं कि यह चार किताबें ही दुनिया की सबसे प्राचीन किताबें है जोकि उपर से उतरी है।
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ऋग्वेदकाल के पूर्व धरती पर लोग कहीं पर कबीलों तो कहीं पर समुदायों में जंगली जीवन व्यतीत करते थे। उनके जीवन में नैतिकता, धर्म और विज्ञान के लिए कोई जगह नहीं थी। कबीलों के सरदारों के अनुसार ही जीवन चलता था। प्रकृति में विद्यमान ताकतों की देवी और देवताओं के रूप में वे पूजा-करते थे। एकेश्वरवाद की कोई धारणा नहीं थी और समाज में किसी भी प्रकार की कोई नैतिकता, कानून, न्याय और सामाजिक व्यवस्था नहीं थी।
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...लेकिन मनुष्यों के एक छोटे से समुह ने दुनिया को बदल दिया और बाद में उन्हें आर्य कहा जाने लगा। आर्यों (यह कोई जातिसूचक शब्द नहीं है) ने अनुमानित रूप से लगभग 15 हजार ईसा पूर्व धर्म को एक व्यवस्था दी, रीवाज दिया, नियम दिया, सामाजिक कानून दिया, विज्ञान दिया और सबसे बड़ी बात कि उन्होंने व्यक्ति को नैतिकरूप से रहना सिखाया। पहले आर्यों का राजा इंद्र हुआ करता था। इंद्र के काल में धरती के एक भाग को स्वर्ग, दूसरे को पाताल और तीसरे को पृथिवी कहा जाता था। तब धरती का बहुत छोटा सा ही हिस्सा जल से अनावृत था। इंद्र के बाद व्यवस्थाएं बदली और स्वायंभुव मनु संपूर्ण धरती के शासन बने। उनके काल में धरती सात द्वीपों में बंटी हुई थी, जिसमें से सिर्फ जम्बूद्वीप पर ही अधिकांश आबादी रहती थी। बाकी द्वीपों पर नाम मात्र के ही जीव रहते थे।
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स्वायंभुव मनु के बाद उनके पुत्र प्रियव्रत धरती के राजा बने। राजा प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से कवि, महावीर तथा सवन ये 3 नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।
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राजा प्रियव्रत ने धरती का विभाजन कर अपने 7 पुत्रों को अलग-अलग द्वीप का शासक बना दिया। आग्नीध्र को जम्बूद्वीप मिला। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने 9 पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न 9 स्थानों का शासन का दायित्व सौंपा। जम्बूद्वीप के 9 देश थे- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, नाभि (भारत), हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय।
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भारतवर्ष का शासक : इन 9 पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के 100 पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। भरत को जैन धर्म में भरतबाहु कहते हैं। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखंड को भारतवर्ष कहने लगे। इस भारतवर्ष में बसे लोगों को ही 'भारतीय' कहा जाता है।
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प्राचीनकाल में यह अखंड भारतवर्ष हिन्दूकुश पर्वत माला से अरुणाचल और अरुणाचल से बर्मा, इंडोनेशिया तक फैला था। दूसरी ओर यह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी-श्रीलंका तक और हिन्दूकुश से नीचे सिंधु के अरब सागर में मिलने तक फैला था। यहां की प्रमुख नदियां सिंधु, सरस्वती, गंगा, यमुना, कुम्भा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, महानदी, शिप्रा आदि हैं। 16 जनपदों में बंटे इस क्षेत्र को भारतवर्ष कहते हैं।
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एक अन्य कथा के अनुसार वेन के पुत्र पृथु का संपूर्ण भूमण्ड पर राज्य स्थापित था। उन्हें भागवत महापुराण में धरती का प्रथम राजा कहा गया है। कथा के अनुसार अंग के दुष्ट पुत्र वेन से तंग आकर ऋषियों ने उसको हुंकार-ध्वनि से मार डाला था। तब अराजकता के निवारण हेतु निःसन्तान मरे वेन की भुजाओं का मन्थन किया गया जिससे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम 'पृथु' रखा गया तथा स्त्री का नाम 'अर्चि'। वे दोनों पति-पत्नी हुए। पुराणों में उन्हें भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का अंशावतार माना गया है।
कहते हैं कि सम्राट पृथु ने ही धरती को सर्वप्रथम समतल कर रहने और उपज के योग्य बनाया था। उन्होंने ही धरती पर पुर (नगरी) ग्राम (गांव) आदि बनाए और लोगों को जंगल, गुफा से निकालकर उन्हें उनकी सुविधा और योग्यता अनुसार पुर या ग्राम में बसाया था।
कहते हैं कि सम्राट पृथु ने 99 अश्वमेध यज्ञ किए थे। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने उनका घोड़ा चुराकर उसमें अनेक बार विघ्न उत्पन्न किया। इंद्र के इस कृत्य से महाराज पृथु अत्यन्त क्रोधित हो चले थे। तब उन्होंने इंद्र को मारने के लिए यज्ञ के ऋत्विजों से उनकी यज्ञ-दीक्षा रोककर मन्त्र-बल से इन्द्र को अग्नि में हवन कर देने की बात कही। बाद में ब्रह्माजी के समझाने से पृथु मान गए और यज्ञ को रोक दिया गया।