धरती के महान सम्राट कुरु के वंशजों को भारत में कौरव कहा जाता है जबकि अन्य देशों में इनके वंशजों को अलग-अलग नाम से पुकारा गया है, लेकिन यह इतिहासकारों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि क्या ईरान की प्राचीन जाति कुरोश और अरब के कुरैश भी कुरु के वंशज हैं?
हालांकि भारतीय पुराणों के अनुसार ययाति के 5 पुत्रों में से दो अनु और द्रुह्मु का राज्य अफगानिस्तान से अरब और मिस्र तक था, जबकि पुरु, यदु और तुर्वस का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में था। सम्राट कुरु से कुरु वंश चला। इस वंश से एक से एक प्रतापी राजा हुए और उन्होंने धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर भिन्न-भिन्न संस्कृतियों, धर्म और राज्य की व्यवस्था का विकास किया। यहां उस सम्राट कुरु का जीवन परिचय दिया जा रहा है जिसकी वंशावली नीचे दी गई है। इससे पहले भी कुरु हुए, जो स्वायंभुव मनु के कुल में थे।
ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुह्मु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए।
पंचाल : सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक इतिहास की लेखकर शनिशबाला अनुसार ययाति की दो पत्नियां थीं : देवयानी और शर्मिष्ठा। ययाति प्रजापिता ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रहुयु (द्रुहु), अनु और पुरु हुए। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।
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महाभारत के अनुसार हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा था जिसका नाम संवरण था। संवरण वेदों को मानने वाला और सूर्यदेव का उपासक था। संवरण जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था।
एक दिन संवरण एक हिम पर्वत पर हाथ में धनुष-बाण लेकर आखेट के लिए भ्रमण कर रहा था, तो उसे एक अत्यंत ही सुंदर युवती दिखाई दी। वह युवती इतनी सुंदर थी कि संवरण उस पर आसक्त हो गया और वह उसके पास जाकर बोला, 'तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित्त चंचल और व्याकुल हो उठा। क्या तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करोगी... मैं सम्राट हूं, तुम्हें हर तरह से सुखी रखूंगा।'
युवती ने एक क्षण संवरण को देखा और फिर वह अदृश्य हो गई। युवती के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गया। वह धनुष-बाण फेंककर उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा। उसके विलाप के बाद युवती पुन: प्रकट हुई।
वह संवरण की ओर देखती हुई बोली, 'राजन! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूं, पर मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूं। मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूं। मेरा नाम ताप्ती है। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।'
युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई। संवरण पुन: विलाप करने लगा। वह बेसुध होकर ताप्ती को पुकारते-पुकारते धरती पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। होश में आने पर उसे ताप्ती के द्वारा कही गई बातें याद आईं और वह मन ही मन सोचता रहा कि वह ताप्ती को पाने के लिए सूर्यदेव की आराधना करेगा। वहीं पर संवरण सूर्यदेव की आराधना करने लगा। धीरे-धीरे सालों बीत गए, संवरण तप करता रहा। आखिर सूर्यदेव के मन में संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ।
रात के समय संवरण आंखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था। चारों ओर सन्नाटा था। तभी उसके कानों में किसी की आवाज सुनाई दी, 'संवरण, तू यहां तप में संलग्न है। तेरी राजधानी आग में जल रही है।'
संवरण फिर भी चुपचाप अपनी जगह पर बैठा रहा। उसके मन में रंचमात्र भी दुख पैदा नहीं हुआ। उसके कानों में पुन: दूसरी आवाज पड़ी, 'संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग आग में जलकर मर गए।'
किंतु फिर भी वह हिमालय-सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा, उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा, 'संवरण, तेरी प्रजा अकाल की आग में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं।' फिर भी वह दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूं। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?'
संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला, 'देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए। कृपा करके मुझे ताप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए।' सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, 'तथास्तु।'
संवरण अपनी पत्नी ताप्ती के साथ उसी दूसरे राज्य के सुंदर क्षेत्र में रहने लगा और राग-रंग में अपनी प्रजा और राज्य को भी भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा।
संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और उन्हें राज्य का संपूर्ण हाल बताया। मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से संवरण को स्वप्नलोक से बाहर निकाला और अपने राज्य के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराया।
मंत्री की बातें सुनकर संवरण का हृदय कांप गया और उसे इस बात का बोध होने लगा की मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया।
संवरण ने कहा, 'मंत्रीजी। मैं आपका कृतज्ञ हूं, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया।' संवरण ताप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुंचा। उसके राजधानी में पहुंचते ही जोरों की वर्षा हुई। सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढंक गई। अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी। संवरण और ताप्ती से ही कुरु का जन्म हुआ था।
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कुरु की वंश परंपरा : कौरव चन्द्रवंशी थे और कौरव अपने आदिपुरुष के रूप में चन्द्रमा को मानते थे। इनके आराध्य शिव और गुरु शुक्राचार्य थे। पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ।
कुरुवंश के अंतिम शासक भीष्म
पुरुरवा के कौशल्या से जन्मेजय हुए, जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए, प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए, संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए, अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए, सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए, जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए, अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए, अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए, महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए, अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए, अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए, देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए, अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए, ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए, मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए, तंसु के कालिंदी से इलिन हुए, इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए।
दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए, भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए, भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए, सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए, हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए, विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए, अजमीढ़ से संवरण हुए, संवरण के ताप्ती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया।
कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए, विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए, अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए, परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए, भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए, प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए, प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ।
देवापि किशोरावस्था में ही संन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली। शांतनु की गंगा से देवव्रत हुए, जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भीष्म का वंश आगे नहीं बढ़ा, क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की थी। शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। लेकिन इनका वंश भी आगे नहीं चला। इस तरह कुरु की यह शाखा डूब गई, लेकिन दूसरी शाखाओं ने मगध पर राज किया और तीसरी शाखा ने ईरान पर।
अंतिम राजा निचक्षु : महाभारत के बाद यदि भीष्म को अंतिम न माने और पांडवों को कुरुवंश का मानें तो... कुरुवंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है।
जन्मेजय के बाद क्रमश: शतानीक, अश्वमेधदत्त, धिसीमकृष्ण, निचक्षु, उष्ण, चित्ररथ, शुचिद्रथ, वृष्णिमत सुषेण, नुनीथ, रुच, नृचक्षुस, सुखीबल, परिप्लव, सुनय, मेधाविन, नृपंजय, ध्रुव, मधु, तिग्म्ज्योती, बृहद्रथ और वसुदान राजा हुए जिनकी राजधानी पहले हस्तिनापुर थी तथा बाद में समय अनुसार बदलती रही। बुद्धकाल में शत्निक और उदयन हुए। उदयन के बाद अहेनर, निरमित्र (खान्दपनी) और क्षेमक हुए।
मगध वंश में क्रमश: क्षेमधर्म (639-603 ईपू), क्षेमजित (603-579 ईपू), बिम्बिसार (579-551), अजातशत्रु (551-524), दर्शक (524-500), उदायि (500-467), शिशुनाग (467-444) और काकवर्ण (444-424 ईपू) ये राजा हुए।
नंद वंश में नंद वंश उग्रसेन (424-404), पण्डुक (404-294), पण्डुगति (394-384), भूतपाल (384- 372), राष्ट्रपाल (372-360), देवानंद (360-348), यज्ञभंग (348-342), मौर्यानंद (342-336), महानंद (336-324)। इससे पूर्व ब्रहद्रथ का वंश मगध पर स्थापित था।
अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजीत, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजीत, वीरजीत और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेमधर्म (639-603 ईपू) से पूर्व राज किया था।
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कुरु जनपद : प्राचीनकाल में भारत में 16 महाजनपद थे। उन 16 में से एक कुरु जनपद था। इस कुरु जनपद पर ययाति के पुत्र कुरु के वंशजों का ही राज था, जो कौरव कहलाए। कुरु जनपद का उल्लेख उत्तर वैदिक युग से मिलता है। यह जनपद उत्तर तथा दक्षिण दो भागों में विभक्त था। महाभारत में उत्तरकुरु को कैलाश और बद्रिकाश्रम के बीच रखा गया है, जबकि प्रपंचसूदनी में कुरुओं को हिमालय पार के देश उत्तर कुरु का औपनिवेशिक बताया गया है, जो उत्तरी ध्रुव के निकट था। वहीं से श्वेत वराह आए थे। श्वेत वराह को विष्णु का अवतार माना जाता है।
हालांकि दक्षिण कुरु, उत्तर कुरु की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है और वहीं कुरु के नाम से विख्यात है। यह जनपद पश्चिम में सरहिंद के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से लेकर सारे दक्षिण-पश्चिमी पंजाब और उत्तरप्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों तक फैला हुआ था।
ऋग्वेद में कुरु जनपद के कुरुश्रवण, उपश्रवस् और पाकस्थामन् कौरायण जैसे कुछ राजाओं की चर्चा हुई है। कौरव्य और परीक्षित (अभिमन्यु पुत्र परीक्षित नहीं) के उल्लेख अथर्ववेद में हैं।
कई ग्रंथों में कुरु और पांचाल का उल्लेख एकसाथ हुआ है किंतु दोनों की भौगोलिक सीमाएं एक-दूसरे से भिन्न थीं। कुरु के पूर्व में उत्तरी पांचाल तथा दक्षिण में दक्षिणी पांचाल के प्रदेश थे। प्राचीनकाल में पांचाल संभव है कि गंगा-यमुना दोआब का कुछ उत्तरी भाग कुरु जनपद की सीमा में रहा हो। हालांकि पांचालों की सीमाएं युद्ध और काल के अनुसार बदलती रही है। एक समय में वे कुरु जनपद का ही हिस्सा बन गए थे।
शतपथ ब्राह्मण में कुरु-पांचाल को मध्यप्रदेश (ध्रुवामध्यमादिक्) में स्थित बताया गया है। मनु स्मृतिकार ने कुरु, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन को ब्रह्मर्षियों का देश कहा है। महाभारत में (वनवर्ष, अध्याय 83) कुरु की सीमा उत्तर में सरस्वती तथा दक्षिण में दृषद्वती नदियों तक बताई गई है।
पालि साहित्य में भी कुरु जनपद का उल्लेख मिलता है। अंगुत्तरनिकाय और महावंश में उसे प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में गिना गया है। त्रिपिटकों की बुद्धघोषकृत टीकाओं में बुद्ध को कुरुओं के बीच अनेक बार उपदेश करते बताया गया है। कुरुधम्म जातक के अनुसार बोधिसत्व ने कुरुराज की रानी के गर्भ से जन्म लिया था। महासुतसोम जातक में कुरु राज्य का विस्तार 300 योजन कहा गया है।
यह श्रीमद्भगवती और श्रीमद्भगवत का वह क्षेत्र है, जहां कौरवों और पांडवों के बीच भीषण और विनाशकारी युद्ध हुआ था। राजा ययाति और अनेक ऋषियों ने वहां अपने अनेकानेक यज्ञ किए थे। हस्तिनापुर इसकी राजधानी थी, जो गढ़मुक्तेश्वर के पास गंगा के किनारे बसा था। अधिकांश उपनिषदों और ब्राह्मणों की रचना कुरु पांचाल प्रदेशों में ही हुई थी।
कुरु जनपद का इतिहास : इसके इतिहास का विशद वर्णन महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। सर्वप्रथम स्वायंभुव मनु की पुत्री इला को बुध से पुरुरवा नामक पुत्र हुआ, जो चंद्रवंशी क्षत्रियों का प्रथम पुरुष था। माना जाता है कि पुरुरवा ऐल का पिता (मध्य एशिया) से मध्यप्रदेश आया था। नहुष और ययाति उसके वंश में अत्यंत प्रसिद्ध और पराक्रमी राजा हुए। ययाति के पुत्र पुरु के नाम पर पौरव वंश का नाम पड़ा जिसमें दुष्यंत के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट हुए। उसके बाद का मुख्य शासक संवरण का पुत्र कुरु था।
कुरु के वंश में आगे चलकर शांतनु हुए। शांतनु के पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके और उनकी जल्दी ही मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य की रानियों से दो नियोगज पुत्र हुए- धृतराष्ट्र और पांडु। दरअसल, ये दोनों ही सत्यवती के पुत्र वेदव्यास के पुत्र थे। वेदव्यास से एक और पुत्र हुए जिनका नाम विदुर था। इस तरह इन तीनों के पिता एक ही थे। भीष्म को अंतिम कुरु माना जाता है।
धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे अत: पांडु को राजगद्दी मिली, पर वे भी जल्दी ही मर गए और धृतराष्ट्र ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। धृतराष्ट्र के गांधारी से दुर्योधनादि 100 पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए। उधर पांडु के पहले ही कुंती और माद्री नामक दोनों पत्नियों से 6 पुत्र उत्पन्न हुए, जो पांडव कहलाए। कौरवों से युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद अंत में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। वे भी बहुत दिनों तक शासन नहीं कर सके। कृष्ण की मृत्यु और यादवों के अंत का समाचार सुनकर उन्होंने राजगद्दी त्याग दी और अपने भाइयों के साथ तपस्या के लिए वन में चले गए।
युधिष्ठिर के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने हस्तिनापुर की गद्दी संभाली। परीक्षित अर्जुन के पौत्र थे। कहा जाता है कि भूलवश एक ऋषि के श्राप के चलते सर्पों के काटने से उनकी मृत्यु हो गई थी। यह बात उनके पुत्र को खटकने लगी। उनके पुत्र का नाम जन्मेजय था। उन्होंने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए नाग यज्ञ का आयोजन किया और समूल रूप से सर्पों का नाश करने का संकल्प लिया। कथानुसार उनमें से एक सर्प जिसका नाम कर्कोटक था, वह बच जाता है।
हालांकि इतिहासकार कहते हैं कि तक्षशिला के तक्षकों अथवा नागों द्वारा हस्तिनापुर पर किए गए आक्रमण के कारण परीक्षित की मौत हो गई थी जिसके बाद परीक्षित के पुत्र और उत्तराधिकारी जन्मेजय ने तक्षशिला पर चढ़ाई कर दी और जहां-जहां भी तक्षक थे उनको मार गिराया। विजय-प्राप्ति की इस कहानी को पुराणों में मिथकीय रूप दिया गया।
ऐतरेय ब्राह्मण में उन्हें विजेता बताया गया है। जन्मेजय के बाद शतानीक, अश्वमेघदत्त, अधिसीम कृष्ण तथा निचक्षु ने राज किया। इसी निचक्षु के राज्यकाल में हस्तिनापुर नगर गंगा में आप्लावित हो गया और उसके राज्य में टिड्डियों का भारी आक्रमण हुआ जिसके कारण निचक्षु और उसकी सारी प्रजा को हस्तिनापुर त्यागने को बाध्य होना पड़ा। वे इलाहाबाद के निकट कौशांबी चले आए। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है। उसके अनुसार वृद्धद्युम्न से एक यज्ञ में भूल हो गई। उसके परिणामस्वरूप एक ब्राह्मण ने शाप दिया कि कुरुओं का निष्कासन हो जाएगा।
अगले पन्ने पर सम्राट कुरु के ईरानी वंशज?...
'जाट प्राचीन शासक' (Aryan Tribes and the Rig Veda और Jats the Ancient Rulers (A clan study) के लेखक भीम सिंह दहिया के अनुसार महाराजा कुरु के पुत्र सुघनु के तीन पुत्र परीक्षित, जहानु और सुहोत्र थे। परीक्षित की सातवीं पीढ़ी में भीष्म हुए। जहानु नि:संतान था और तृतीय पुत्र सुहोत्र की आठवीं पीढ़ी में वृषभ हुए, जो कि कुरुवंशी ही कहलाए और पूर्वी भारत बिहार में अपना राज्य स्थापित किया। इनका ही वंशज जंतु मगध का राजा हुआ। महाभारत के युद्ध में क्षत्रिय वंशों के महाविनाश के बाद उनके वंशज दूर-दूर तक विस्तृत हुए। संभवतः कुरुओं की कुछ शाखाएं उस दौरान भी मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, ईरान, यूरोप, ग्रीक पहुंच गई हों।
जाटों की उत्पत्ति एवं विस्तार (जर्त तरंगिणी) और प्राचीन जाट और खोखर इतिहास के लेखक अटल सिंह खोखर के अनुसार राजा कुरु के नाम से टर्की के प्रांत कुरु (Corch) तथा जांगल (Zonguldak) के मध्य का क्षेत्र कुरु कहलाया।
खोखर के अनुसार खेर एक जाट कबीले का नाम है। इस कुल के लोगों को खेर कहा जाता है तथा खान तो मध्य एशिया की एक विख्यात उपाधि है, जो एक राजा को प्रदान की जाती है, जैसे प्राचीन खाकान तथा मध्य प्राचीन खान। इस पूर्ण सूची में जिन नामों को दिया गया है इनमें खस, खत्ती, खादोबिलय, कन्नड़, कन्नवरण, द्रविड़, चीना, चोल, बब्बर, खेरखान आदि शामिल हैं।
इन कबीलों में खत्री, चीना, चोल (चहल, चाहर), बब्बर और खेरखस जाटों के कबीले हैं। चोल मध्य एशिया और दक्षिण भारत में भी हैं। मृच्छ्कटिका में इनके राजा का नाम खेरखान कहा गया है। यहां खेरसाओं और खेरखान का एक ही अर्थ है- 'खेर लोगों का राजा'।
भारत, मध्य एशिया, ईरान, यूरोप में कुरु, कुर, केर, कर्ब, कुरूश, कारा और खिर, खैर, खर, खैरबा, खरब का तुलनात्मक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कुरु और खैर दोनों वंश एक ही समय पर साथ-साथ पाए जाते हैं। हालांकि उच्चारण में मध्य एशिया और यूरोप में 'क' वर्ण 'ख' वर्ण में बदल सकता है, किंतु यह बदला नहीं है। दोनों वंशों की अपनी अलग पहचान के कारण संभवतः इतिहासकारों द्वारा भी यह सावधानी बरती गई है।
दिवोदास सुदास का पितामह था। सुदास का राज्य दक्षिण में चंबल तक, उत्तर में हिमालय तक, पूर्व में कोसल तक फैला था। पांचाल राज्य में सुदास के बाद सहदेव, सोमक और जंतु के नाम मिलते हैं, जंतु सुदास का प्रपौत्र था।
उसके बाद 14 पीढ़ी तक किसी शासक का नाम नहीं मिलता जबकि वैदिक साहित्य में मिलता है कि पंचाल राज के उत्तराधिकारी सोमव को संवरण ने जीता था। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था।
इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दशराज्य (7200 ईसा पूर्व) युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था। सुदास और दक्षिण के पंचाल राजा द्रुपत के बीच 11 पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। जंतु से 15वीं पीढ़ी में राजा पृषत का उल्लेख मिलता है। जंतु के बाद पंचाल पर कौरवों का आधिपत्य हो गया था।
संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल-राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया। राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। कुरु के पश्चात उनके पुत्र परीक्षित हुए। शोध कार्य जारी...