सिर पर पहानावे का प्रचलन तो भारत में ही हुआ, लेकिन ग्रीक, रोमन, फारस, हूण, कुषाण, मंगोल, मुगल आदि के काल में भारतीय परिधानों के साथ ही सिर के पहनावे में भी बदलावा आते गए लेकिन आज भी कुछ पहनावे तो वैसे के वैसे ही हैं। हालांकि परिवर्तन के चलते कई नए साफे या टोपी भी प्रचलन में आए और पहले की अपेक्षा भारतीयों ने इनमें खुद को ज्यादा आरामदायक महसूस भी किया लेकिन अंग्रेजों के काल में भारतीयों की वेशभूषा बिलकुल ही बदल गई। खैर, यहां जानिये भारत में प्रचलित साफे और टोपियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी।
सिर का पहनावा : सिर के पहनावे को कपालिका, शिरस्त्राण, शिरावस्त्र या शिरोवेष कहते हैं। यह कपालिका कई प्रकार की होती है। प्रत्येक प्रांत में यह अलग-अलग किस्म, नाम, रंग और रूप में होती है। राजा-महाराजाओं के तो एक से एक स्टाइल के टोप, पगड़ी या मुकुट हुआ करते थे लेकिन हम सामान्यजनों द्वारा पहने जाने वाले कपालिका के बारे में ही बात करेंगे। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि टोपी और पगड़ी में फर्क होता है। पगड़ी का इतिहास खास तौर पर राजपूत समुदाय से जुड़ा हुआ है। इसे पाग, साफा और पगड़ी कहा जाता है।
साफा : यदि हम साफे की बात करें तो मालवा में अलग प्रकार का और राजस्थान में अलग प्रकार का साफा बांधा जाता है। इसे पगड़ी या फेटा भी कहते हैं। महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, गुजरात में यह अलग होता है, तो तमिलनाडु में अलग। प्राचीनकाल और मध्यकाल में लगभग सभी भारतीय यह पहनते थे। राजस्थान में भी मारवाड़ी साफा अलग तो सामान्य राजस्थानी साफा अलग होता है।
राजस्थान में राजपूत समाज में साफों के अलग-अलग रंगों व बांधने की अलग-अलग शैली का इस्तेमाल समय-समय के अनुसार होता है, जैसे युद्ध के समय राजपूत सैनिक केसरिया साफा पहनते थे अत: केसरिया रंग का साफा युद्ध और शौर्य का प्रतीक बना। आम दिनों में राजपूत बुजुर्ग खाकी रंग का गोल साफा सिर पर बांधते थे तो विभिन्न समारोहों में पचरंगा, चुंदड़ी, लहरिया आदि रंग-बिरंगे साफों का उपयोग होता था। सफेद रंग का साफा शोक का पर्याय माना जाता है इसलिए राजपूत समाज में सिर्फ शोकग्रस्त व्यक्ति ही सफेद साफा पहनता है।
मुगलों ने अफगानी, पठानी और पंजाबी साफे को अपनाया। सिखों ने इन्हीं साफे को जड्डे में बदल दिया, जो कि उन्हें एक अलग ही पहचान देता है। सिक्खों में नीले, काले, सफेद और केसरिया रंगों की पगड़ी पहनी जाती है जबकि लाल पगड़ी अधिकतर शादी के मौके पर पहनी जाती है। मुसलामानों में भी पगड़ी पहनी जाती है। कहते हैं कि प्रोफेट मोहम्मद एक विशेष प्रकार की पगड़ी पहनते थे। हरी पगड़ी प्रकृति को समर्पित है। सहारा के रेगिस्थान में मुसलमान लोग पगड़ी इसलिए पहनते हैं क्योंकि वहां उन्हें तेज गर्मी और धूल-मिट्टी से बचना होता है। हालांकि मुस्लिम विद्वान सफेद पगड़ी धारण करते हैं।
राजस्थान में किसी व्यक्ति, जाति, समाज या समुदाय को उसकी पगड़ी के रंग या उसके बांधने की स्टाइल से पहचाना जा सकता है। जैसे, राजस्थान में राईका, रेबारी हमेशा लाल फूल का साफा बांधते हैं जबकि विश्नोई समाज सफेद रंग का साफा बांधते हैं। लंगा, मांगणियार, कालबेलिया आदि रंगीन छापेल डब्बीदार भांतवाले साफे बांधते हैं। कलबी लोग सफेद, कुम्हार और माली लाल, व्यापारी वर्ग लाल, गुलाबी, केसरिया आदि रंग की पगड़ी बांधते हैं। चरवाहे की पगड़ी लाल रंग की होती है।
रियासत काल के लोग लहरिया, सोना के किनारे वाली, लप्पेदार, कोर तुर्रा वाली, मौलिया, चस्मई पीला, मौलिया पंचरंगी, मौलिया कसूमल सब्ज, कसूमल घोटेदार, लहरदार, गंगा जमुनी, पोतिया कसूमल, पोतिया किरमिची आदि स्टाइल के साफे पहनते थे। इसके अलावा सफेद रंग का साफा या पगड़ी शोक का प्रतीक मानी जाती है जबकि खाकी, नीली और मेहरून रंग की पगड़ी सहानुभूति सभा के लिए पहनी जाती रही है।
पगड़ी के बारे में धारणा : किसी की पगड़ी को ठोकर मारना, लांघना या भूमि पर रखना अपमान माना जाता है। युद्ध स्थल से यदि किसी की पगड़ी आ जाए तो समझा जाता है कि वह व्यक्ति वीरगति को प्राप्त हो गया। किसी के पिता की मृत्यु पर 12वें दिन ज्येष्ठ पुत्र को पगड़ी बंधवाकर घर का उत्तराधिकारी घोषित किया जाता है। इसे पगड़ी की रस्म कहा जाता है। किसी भी अतिथि के घर आने पर मेजबान पगड़ी बांधकर ही उसका स्वागत करने घर से बाहर आता है। नंगे सिर सामने आना अपमानजनक एवं अपशकुन माना जाता है। बारात आने की सूचना देने वाले भाई को वधू पक्ष वाले आज भी पगड़ी बंधवाकर खुश करते हैं।
मांगलिक और धार्मिक कार्यों में साफा : आज भी मांगलिक या धार्मिक कार्यों में साफा पहने जाने का प्रचलन है जिससे कि किसी भी प्रकार के रस्मोरिवाज में एक सम्मान, संस्कृति और आध्यात्मिकता की पहचान होती है। इसके और भी कई महत्व हैं। विवाह में घराती और बाराती पक्ष के सभी लोग यदि साफा पहनते हैं तो विवाह समारोह में चार चांद लग जाते हैं। इससे समारोह में उनकी एक अलग ही पहचान निर्मित होती है।
अलग-अलग त्योहारों के लिए अलग-अलग पगड़ी पहनी जाती है। जैसे लाल किनारी वाली काली पगड़ी दिवाली के समय, लाल-सफेद पगड़ी फागुन में, चटक केसरिया पगड़ी दशहरे में, पीली पगड़ी बसंत पंचमी के समय, हलकी गुलाबी शरद पूर्णिमा की रात को पहनी जाती है।
टोपी : टोपी सिर का एक ऐसा पहनावा है, जो कि अधिकतर भारतीय हमेशा पहने रखते हैं। जिस गांधी टोपी को गांधी टोपी कहा जाता है, गांधीजी ने उसे कभी नहीं पहना होगा। दरअसल, यह महाराष्ट्र के गांवों में पहनी जाने वाली टोपी है। इसी तरह हिमाचली टोपी, नेपाली टोपी, तमिल टोपी, मणिपुरी टोपी, पठानी टोपी, हैदराबादी टोपी आदि अनेक प्रकार की टोपियां आज भी प्रचलत में हैं।