प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
मित्रों, आज हम आपको बताएंगे भगवान कृष्ण की वह कहानी, जो शायद ही आपने सुनी होगी। आप ये तो जानते होंगे कि श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ना पड़ी थी लेकिन कैसे, कब और यात्रा में उन्होंने किन-किन कठिनाइयों का सामना किया, यह नहीं जानते होंगे। इस दौरान वे कहां-कहां रुके और किस-किस से मिले, यह भी आप नहीं जानते होंगे। अब आप जानेंगे एक अद्भुत और रहस्यमय कहानी।
कंस वध के बाद मथुरा पर शक्तिशाली मगध के राजा जरासंध के आक्रमण बढ़ गए थे। मथुरा पर उस वक्त यादव राजा उग्रसेन का आधिपत्य था। श्रीकृष्ण ने सोचा, मेरे अकेले के कारण यादवों पर चारों ओर से घोर संकट पैदा हो गया है। मेरे कारण यादवों पर किसी प्रकार का संकट न हो, यह सोचकर भगवान कृष्ण ने बहुत कम उम्र में ही मथुरा को छोड़कर कहीं अन्य जगह सुरक्षित शरण लेने की सोची।
दक्षिण में यादवों के 4 राज्य थे। पहला राज्य आदिपुरुष महाराजा यदु की 4 नागकन्याओं से प्राप्त 4 पुत्रों ने स्थापित किया था। यह राज्य मुचकुन्द ने दक्षिण ऋक्षवान पर्वत के समीप बसाया था। दूसरा राज्य पद्मावत महाबलीश्वरम के पास था। यदु पुत्र पद्मवर्ण ने उसे सह्माद्रि के पठार पर वेण्या नामक नदी के तट पर बसाया था। पंचगंगा नदी के तट पर बसी करवीर नामक वेदकालीन विख्यात नगरी भी इसी राज्य के अंतर्गत आती थी। उस पर श्रंगाल नामक नागवंशीय माण्डलिक राजा का आधिपत्य था। करवीर नगरी को दक्षिण काशी कहा जाता था।
उसके दक्षिण में यदु पुत्र सारस का स्थापित किया हुआ तीसरा राज्य क्रौंचपुर था। यहां क्रौंच नामक पक्षियों की अधिकता थी इसीलिए इसे क्रौंचपुर कहा जाता था। वहां की भूमि लाल मिट्टी की और उर्वरा थी। इस राज्य को 'वनस्थली' राज्य भी कहा जाता था। चौथा राज्य यदु पुत्र हरित ने पश्चिमी सागर तट पर बसाया था। इन चारों राज्यों में अमात्य विपृथु ने पहले ही दूतों द्वारा संदेश भिजवाए थे कि श्रीकृष्ण पधार रहे हैं।
अगले पन्ने पर श्रीकृष्ण की कठिन यात्रा...
पद्मावत राज्य में वेण्या नदी के तट पर भगवान परशुराम निवास करते थे। महेंद्र पर्वत से अर्थात पूर्व समुद्र से परशुराम नौकाओं में से अपने अनेक शिष्यों सहित पद्मावत राज्य में आए थे। संपूर्ण आर्यावर्त में मंत्र सहित ब्रह्मास्त्र विद्या देने की क्षमता रखने वाले इने-गिने पुरुषों में वे सर्वश्रेष्ठ थे। उनके चमत्कार और शक्ति के किस्से सभी को मालूम थे। उनके शिष्य आर्यावर्त में सर्वत्र फैले हुए थे। उनके प्रत्येक राज्य में अनेक आश्रम थे।
दाऊ से विचार-विमर्श कर श्रीकृष्ण ने निर्णय लिया कि सबसे पहले उनसे ही मिला जाए। उनसे मिलने के लिए कई नदियों और अरण्यों को लांघना पड़ा। जरासंध की सेनाओं ने मथुरा को घेर रखा था। उसकी सेनाओं का पड़ाव उठते ही श्रीकृष्ण के साथियों बंधु-बांधवों ने अलग-अलग गुटों में मथुरा से बाहर निकलकर एक निश्चित स्थान पर मिलने का निश्चय किया।
उक्त स्थान से यात्रा शुरू हुई। यात्रा में उनके साथ दाऊ, विपृथु, सत्यकि आदि कई यादव शामिल थे। दारुक द्वारा चुने गए अश्व उनके साथ थे। यात्रा के पूर्व सभी ने अपने अपने साथ विपुल संपत्ति, हीरे, माणिक, मोती, रत्न, स्वर्ण और खाद्य सामग्री साथ में रख ली थी। 3 माह की यात्रा के बाद उनके सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती खड़ी हो गई। वह थी दण्डकारण्य की विंध्य, सतपुड़ा और परियात्र पर्वत की श्रेणियां। गोकुल में या मथुरा में जहां भी दृष्टि डालें तो यमुना ही यमुना नजर आती थी। यहां तो जंगल और पहाड़ ही पहाड़ दिखाई दे रहे थे।
भिन्न-भिन्न हिंसक पशुओं गर्जनाओं से गूंजती, विविध पक्षियों के कलरव और फड़फड़ाहट से पट पड़े इसे बिहड़ अरण्यक को पार करना अत्यंत ही कठिन था। इन घने और खतरनाक जंगलों की भूमि पर सूर्य की किरणों का पहुंचना लगभग असंभव था। इन घने जंगलों में रात्रि हुई है या नहीं, यह जानना भी मुश्किल था। रात्रि में पड़ाव कैसे और कहां डालें? यह भी प्रश्न था। यह यात्रा कितने दिन चलेगी? यह भी तय नहीं था।
इस अरण्य और पर्वत को पार करने के लिए बस एक ही संकरा पथ था जिसे 'दक्षिण पथ' नाम से जाना जाता था। उसके भटका देने वाले मोड़ों का चप्पा-चप्पा जिसको पता था ऐसे वनवासी मुखिया को उन्होंने अपने साथ ले लिया। इस मार्ग पर केवल एक अश्वारोही ही आगे बढ़ सकता था। उसमें भी मार्ग में जगह-जगह वनलताओं को काटकर आगे बढ़ना पड़ता था।
श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनि ने दाऊ और श्रीकृष्ण को बताया था कि सबसे पहले इस मार्ग को आर्य पुत्र दशरथनंदन श्रीराम ने पार किया था। पार करने के बाद गोदावरी के तट पर जनस्थान की पंचवटी में उन्होंने विश्राम किया था। विदर्भ में भी यादवों के कुछ राज्य थे, जैसे अश्मक, कुंतल, वनवासी, मलय और पाण्ड्य। भगवान परशुराम समुद्र के मार्ग से ही दक्षिण राज्य पद्मावत में गए थे।
इस भयानक जंगल को देखते हुए सभी यादवों ने आपस में निर्णय लिया कि हमें अपनी भोजन की कच्ची सामग्री को मितव्ययिता से उपयोग करना होगा। प्रत्येक पड़ाव पर कुछ लोग पहरा देंगे, बाकी सभी सोएंगे। एक माह बाद सभी ने इस निसर्ग निर्मित प्रचंड निविड़ अरण्य को पार कर लिया। यह कठिन यात्रा एक-दूसरे को संभालते हुए पूरी की। समीपवर्ती विदर्भ राज्य की सीमा पर गोदावरी नदी पार कर वे सभी अश्मक राज्य में आ गए। श्रीराम ने जहां निवास किया था, उस कुंतल राज्य के जनस्थान पर्वत नासिक परिसर को के बाईं ओर से भीमा नदी को पार कर वे सभी पद्मावत राज्य की सीमा में दाखिल हो गए।
अगले पन्ने पर जानिए श्रीकृष्ण और परशुराम की अद्भुत मुलाकात...
कृष्णा और कोयना के संगम में सभी ने स्नान किया। फिर करहाटक तीर्थक्षेत्र को पार कर वे वेण्या नदी के परिसर में आ गए। सभी के स्वागत के लिए परशुराम द्वारा भेजे गए कंधों पर चमकते हुए परशु लिए दो जटाधारी उनके पास आ खडे हुए। दोनों को देखकर श्रीकृष्ण और दाऊ सहित सभी यादव चकित रह गए। वे समझ नहीं पाए कि अखिकर भगवान परशुराम को हमारे यहां तक पहुंचने का समाचार कैसे मिला। दोनों सभी यादवों को भृगु आश्रम की ओर ले गए। यहां तक की यात्रा में लगभग डेढ़ माह बीत चुका था।
आश्रम के प्रदेश द्वार पर भृगुश्रेष्ठ परशुराम और सांदीपनि उनके स्वागत के लिए खड़े थे। दोनों ने श्रीकृष्ण और दाऊ को गले लगा लिया। परशुराम ने उनको देखते ही कहा, वत्स तुम्हारे आगमन से इस धरती का उद्धार हुआ है। मैं जानता हूं कि तुम कौन हो...। आश्रम में परशुराम ने सभी को फलाहार खिलाया और सभी के रुकने और विश्राम करने की व्यवस्था की। बाद में परशुराम ने विस्तार से उनकी यात्रा के बारे में जाना और जरासंध के आक्रमण पर भी जानकारी हासिल की। श्रीकृष्ण ने कहा कि एक यादव के लिए समस्त यादवों को संकट में क्यों डाला जाए? यही सोचकर मैंने मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया।
परशुराम ने कहा कि तुम मथुरा में ही नहीं, कहीं भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रह सकते, क्योंकि तुम जहां भी रहोगे जरासंध तुम्हें ढूंढ ही लेगा। तुम चक्रवर्ती हो तथा सदैव भ्रमण करने वाले वीर हो। जहां भी तुम्हारे पांव पड़ेंगे, उस भूमि का उद्धार होगा अत: तुम निरंतर भ्रमण ही करते रहोगे। अब मेरी सलाह है कि तुम अपने साधियों के साथ नैसर्गिक संरक्षण प्राप्त गोमंतक पर्वत पर चले जाओ। तुम्हारे लिए मैंने अब तक एक अमूल्य उपहार संभालकर रखा है। अपने हाथों से उसे सौंपकर मैं उससे मुक्त होना चाहता हूं। अन्य किसी को वह मैं दे नहीं सकता किसी योग्य व्यक्ति का ही इंतजार कर रहा था लेकिन अभी योग्य समय नहीं आया। अभी तुम गोमांतक पर्वत पर जाओ।
अगले गोमांतक पर्वत पर बिताए वो कठिन दिन...
वेण्या तट पर भृगु आश्रम में दो दिन आतिथ्य स्वीकार कर वे सभी यादव समूह गोमंतक पर्वत की ओर चल पड़े। कृष्णा नदी पार कर कोयना घाटी से सभी एक दूसरे भृगु आश्रम के पास आ गए। इस आश्रम को देखते हुए सभी कदम्बवंश के गोमांतक राज्य की सीमा गोमांतक पर्वत के नजदीक पहुंच गए। अभी तक लांघे सभी पर्वतों में सबसे घने जंगलों वाला था यह विशालकाय पर्वत। कई किलोमीटर तक फैले थे इसके जंगल। ऊंचे-ऊंचे सागवान और सीसम के वृक्षों के साथ जामुन, आम आदि हजारों तरह के वृक्षों से यह जंगल भरा हुआ था। यहां से एक बड़े से शिलाखंड पर खड़े होकर देखने से गोमंतक के उस पार सागर की जलरेखा धुंधली-सी दिखाई देती है। यहीं गोमंतक के घने जंगलों में यादवों ने अपना पड़ाव डाला।
उल्लेखनीय है कि गोमांतक पर्वत पर रहने वाले गरूड़ के पुत्र थे– वेन्तेय। वे किसी बीमारी की वजह से पूरी तरह अपंग हो गए थे। जब वे कृष्ण से मिले तो उनमें एक नया संचार हो गया। उनकी बीमारी पूरी तरह ठीक हो गई। गोमांतक पर्वत पार करके सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग था और उसके पार लगभग 32 किलोमीटर दूर कुशस्थली थी जिसे बाद में द्वारिका कहा गया।
यहां पर दाऊ और श्रीकृष्ण ने अपने कुछ साथियों सहित संपूर्ण पर्वत को घूम-घूमकर देखा। जंगल का मुआयना किया। कुछ दिनों पश्चात अग्रदूतों के संदेश अनुसार वनवासी, महिष्मती, पद्मावत और हरित राज्य में रह रहे यादवों की सशस्त्र सेनाएं गोमंतक पर्वत पर स्थित पड़ाव पर आने लगीं। इससे यादवों में आनंद और साहस का संचार हो गया। महारथी, आजानुबाहु, सेनापति सत्यकि सभी को देखकर यादवों में हर्ष व्याप्त हो गया। गोमांतक पर्वत यादवों के एक पड़ाव व एक सैन्य शिविर में बदल गया।
यहां आए हुए यादवों को अभी एक माह ही हुआ था कि जरासंध की सेना वहां आ धमकी। पर्वत पर से नीचे मगधों की सेनाओं के सिंदूरिया रंग के ध्वज लहरा रहे थे। उनके पीछे चेदिराज शिशुपाल की सेनाएं भी पंक्तियों में खड़ी थीं। शिशुपाल के साथ कलिंगराज श्रुतायु, कश्मीर नरेश गोनर्द, किन्नरराज द्रुम, मालवराज सूर्याक्ष, वेणुदारि, छागली, सोमक आदि राजा भी थे।
इतनी विशालकाय सेना को देखकर यादवों की सेना में चीते जैसी गतिविधियां शुरू हो गईं। सभी सैनिकों को पर्वत के ऊपर बुलाया गया। सभी ने घात लगाकर वार करने की रणनीति बनाई। अंतत: मगधों की सेना को हार का सामना करना पड़ा। लेकिन मागधों ने हार नहीं मानी। जरासंध और शिशुपाल प्रतिदिन सैनिकों की नई टुकड़ी भेजते थे। कई दिनों तक युद्ध चला।
अंत में हार और हताशा के कारण जरासंध ने गोमंतक पर्वत के चारों ओर आग लगाने का आदेश दिया। उसके इस कृत्य से बाघ, चीते, हाथी, नाग, अजगर और लाखों पक्षियों का जीवन संकट में पड़ गया। सभी यादवों ने पर्वत की पश्चिम दिशा से निकलकर खुद को सुरक्षित किया, जबकि जरासंध और शिशुपाल की सेना जंगल से कुछ पीछे हटकर यह सोचने लगी कि अब कोई भी यादव इस आग से बच नहीं पाएगा।
बाद में यादवों ने दक्षिण देश की सेना से हाथ मिलाया और जरासंध व शिशुपाल पर अचानक एक शक्तिशाली आक्रमण किया। मगध और चेदियों के शस्त्र संभालने के पहले ही युद्ध आरंभ हो गया। सबसे पहले दाऊ ने राजा दरद का वध कर दिया। भयंकर आक्रमण देखकर जरासंध पीछे हटकर भागने की योजना बनाने लगा। उसके इस निर्णय से उसकी सेना का मनोबल टूट गया और वह भी भागने लगी। वनवासी सीमा तक यादवों की सेना ने उनका पीछा किया। अंतत: सभी भाग गए और जहां जरासंध और शिशुपाल ने पड़ाव डाला था, वहीं यादवों की सेना ने पड़ाव डालकर विश्राम किया।
दूसरे दिन यादवों की सेना का विजयी समाचार सभी ओर फैल गया। जरासंध और शिशुपाल पर विजय प्राप्त करने पर सेनापति सत्यकि बहुत प्रसन्न थे। श्रीकृष्ण सहित सेना को भव्य स्वागत पास ही के परशुराम के शूर्पारक आश्रम में किया गया। अब कृष्ण सोच रहे थे कि यदि परशुराम गोमंतक जाने का नहीं कहते तो... हमारा सामना खुले मैदान में मगध की सेना से होता, तब शायद हमारी नियति कुछ और होती।
अगले पन्ने पर जानिए वह क्या उपहार था, जो परशुराम ने दिया कृष्ण को...
इस विजय के बाद एक दिन श्रीकृष्ण अपने भाई दाऊ और साथी विपृथु और कुछ गिने-चुने यादवों के साथ परशुराम से मिलने गए और उनको जरासंध के आक्रमण का हाल सुनाया। श्रीकृष्ण ने कहा कि उस निर्दयी ने गोमंतक जैसा अद्भुत पर्वत जला डाला। तब परशुराम ने कहा- हे श्रीकृष्ण, मुझे तुम्हारी आंखों में अपना उत्तराधिकारी दिखाई दिया है अत: में आज तुमको वह उपहार सौंपता हूं जिसके तुम ही एकमात्र योग्य हो और जिसके बारे में मैं तुम्हें अपनी पहली मुलाकात में बताया था। अब वह समय आ गया है कि मैं तुम्हें वह सौंप दूं।
तब परशुराम ने धीरे-धीरे अपनी आंखें बंद कर लीं और कुछ मंत्र बुदबुदाने लगे। ऐसे मंत्र जो पहले कभी श्रीकृष्ण ने भी नहीं सुने थे। तभी तेज प्रकाश उत्पन्न हुआ और संपूर्ण आश्रम प्रकाश से भर गया। दाऊ, श्रीकृष्ण आदि सभी की आंखें चौंधिया गईं। जब प्रकाश मध्यम हुआ, तब उन्होंने देखा कि परशुराम की दाहिनी तर्जनी पर 12 आरों वाला वज्रनाभ गरगर घूमने वाला सुदर्शन चक्र घूम रहा है। उसे देखकर सभी चकित होकर भयभीत भी हो गए। परशुराम की तर्जनी पर घूमता चक्र स्पष्ट दिखाई दे रहा था। परशुराम ने नेत्र संकेत से श्रीकृष्ण को नजदीक बुलाया और कान में कहा, प्रत्यक्ष ही देखो, इस सुदर्शन चक्र के प्रभाव को। उन्होंने मंत्र बुदबुदाते हुए उस तेज चक्र को प्रक्षेपित कर दिया और वह तेज गति से वेण्या नदी को पार कर आंखों से ओझल हो गया। कुछ ही देर बाद वह पुन: लौटता हुआ दिखाई दिया और वह उसी वेग से लौटकर पुन: तर्जनी अंगुली पर स्थिर हो गया। परशुराम ने पुन: कुछ मंत्र बुदबुदाया और फिर वह जैसे प्रकट हुआ था, वैसे ही लुप्त हो गया।
तब परशुराम ने श्रीकृष्ण को आचमन कराकर उनको सुदर्शन की दीक्षा देकर कहा, आज से मेरे इस सुदर्शन चक्र के अधिकारी तुम हो गए हो। हे वासुदेव, इसकी जन्मकथा तो तुम जानते ही हो। सबसे पहले यह शिव के पास था। इससे त्रिपुरासुर की जीवनलीला समाप्त कर दी गई थी। उसके बाद यह विष्णु...ऐसा बोलकर परशुराम मुस्कराने लगे। विष्णु क्या हैं? यह मैं तुम्हें क्या बताऊं वासुदेव श्रीकृष्ण। तुम जानते ही हो। विष्णु के बाद यह चक्र अग्नि के पास था। अग्नि ने वरुण को दिया और वरुण से यह मुझे प्राप्त हुआ है। हे वासुदेव, बलराम के हल से इस धरती में बीज बोने हैं और इस सुदर्शन चक्र से इस धरती की रक्षा करनी है। आज से यह तुम्हारा हुआ जिम्मेदारी से इसका उपयोग करना।
जब पहली बार श्रीकृष्ण ने किया सुदर्शन चक्र का प्रयोग...
श्रीकृष्ण और दाऊ के मुख से सुदर्शन प्राप्त करने वाली घटना सुनकर सत्यकि तो सुन्न ही रह गया था। यादवों के तो हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। उत्सव जैसा माहौल था। अत्यंत हर्ष के साथ दो दिनों तक भृगु आश्रम में रहने के बाद क्रौंचपुर के यादव राजा सारस के आमंत्रण पर उनके राज्य के लिए निकल पड़े। उनके सेनापति उनकी एक टुकड़ी के साथ उनका मार्गदर्शन कर रहे थे। राजा सारस ने एक विशेष राज्यसभा का आयोजन किया।
राजा सारस ने सभी अतिथियों को सालंकृत, सुशोभित छत्र और अश्वों सहित राजरक्ष उपहार में दिए थे। कृष्ण को अपने अश्व दारुक, शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक अश्वों की याद आ गई। रथों को देखकर उनको अपने गरूड़ध्वज रथ की भी याद आ गई। वहीं पर अब कृष्ण को लगने लगा था कि उनको मथुरा लौटना चाहिए। अब किसी भी प्रकार का भय नहीं रहा क्योंकि अब सुदर्शन चक्र जो है। मुझे मथुरा लौटकर अपने बंधु बांधवों आदि की रक्षा करनी है। श्रीकृष्ण ने वहां से विदा होने से पहले राजा सारस ने सहायता करने का वचन लिया।
वहां से वे ताम्रवर्णी नदी पार कर घटप्रभा के तट पर आ गए। वहां एक सैन्य शिविर में सत्यकि के साथ मथुरा जाने की योजना बनाने लगे। यात्रा में आने वाली रुकावटों पर चर्चा करने लगे। इस महत्वपूर्ण मीटिंग में दक्षिण देश के चारों राज्यों के सेनापति भी शामिल थे। सभी अपनी-अपनी राय रख रहे थे। श्रीकृष्ण सभी की सुन रहे थे लेकिन उनका मन तो सुदर्शन चक्र के मंत्र में ही खोया हुआ था। जबसे उनको यह प्राप्त हुआ तब से उनकी मानसिक दशा बदल चुकी थी। वे इसकी शक्ति, कार्यों और इसके उचित समय पर इस्तेमाल करने के बारे में सोचने लगे थे। अब उनकी दृष्टि दूर तक भविष्य में उड़ान भरने लगी थी। शक्ति का यह आभास देह, मन और काल से भी परे था। वे अब साधारण मानव नहीं थे।
श्रीकृष्ण सुदर्शन के बारे में सोच रहे थे तभी गुप्तचर विभाग का एक प्रमुख हट्टे-कट्टे नागरिक को पकड़कर उनके सामने ले आया। नागरिक ने करबद्ध अभिनन्नक कर कहा- मैं करवीर का नागरिक हूं आपसे न्याय मांगने आया हूं। हे श्रीकृष्ण महाराज! पद्मावत राज्य के करवीर नगर का राजा श्रगाल हिंसक वृत्ति का हो गया है। वह किसी की भी स्त्री, संपत्ति और भूमि को हड़प लेता है। कई नागरिक उसके इस स्वभाव से परेशान होकर राज्य छोड़ने पर मजबूर हैं। क्या मुझे भी राज्य छोड़ना पड़ेगा?
श्रीकृष्ण उठकर उसके समीप गए और उससे कहा, 'हे श्रेष्ठ मैं किसी राज्य का राजा नहीं हूं। न में किसी राजसिंहासन का स्वामी हूं फिर भी मैं तुम्हारी व्यथा समझ सकता हूं।' वह नागरिक श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और सुरक्षा की भीख मांगने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सेनापति सत्यकि की ओर मुखातिब होकर कहा कि हम करवीर से होते हुए मथुरा जाएंगे।
श्रीकृष्ण और उनकी सेना करवीर की ओर चल पड़ी। पद्मावत राज्य के माण्डलिक श्रगाल का पंचगंगा के तट पर बसा करवीर नामक छोटा सा राज्य था। करवीर के दुर्ग पर यादवों की सेना ने हमला कर दिया। दुर्ग को तोड़कर सेना अंदर घुस गई। श्रगाल और यादवों की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण राजप्रासाद तक पहुंच गए। ऊपर श्रगाल खड़ा था और नीचे श्रीकृष्ण। श्रगाल ने चीखकर श्रीकृष्ण को कहा, यह मल्लों की नगरी करवीर है, तू यहां से बचकर नहीं जा सकता। मैं ही यहां का सम्राट हूं।
तभी कृष्ण का मन मचल गया उस सुदर्शन चक्र का प्रयोग करने का। अब मौका था कि इसे आजमाया जाए। उन्होंने मंत्र बुदबुदाया और चमत्कार हुआ। उनकी तर्जनी अंगुली पर गरगर करने लगा था वह प्रलयंकारी चक्र और श्रीकृष्ण ने सुदर्शन का पहला प्रक्षेपण कर दिया। पलक झपकने से पहले ही वह श्रगाल का सिर धड़ से अलग कर पुन: अंगुली पर विराजमान हो गया। दोनों ओर की सेनाएं देखती रह गईं और चारों तरफ सन्नाटा छा गया। श्रीकृष्ण को भी समझ में नहीं आया। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि सभी आवाक् रह गए। आश्चर्य कि चक्र में रक्त की एक बूंद भी नहीं लगी हुई थी।
करवीर नगरी अब श्रगाल से मुक्त हो गई थी। श्रीकृष्ण ने श्रगाल के पुत्र शुक्रदेव को वहां का राजा नियुक्त किया तथा उसको उपदेश देकर वे वहां से चले गए। वहां के बाद कुंतल, अश्मक जनपदों को पीछे छोड़ते हुए यादवों की सेना ने विदर्भ में पड़ाव डाला। जहां पड़ाव डाला था वहां से कुछ योजन दूर पर ही कौण्डिन्यपुर था, जहां के राजा भीष्मक जरासंध से हाथ मिला चुका था। उनका पुत्र रुक्मी था, जो शिशुपाल का मित्र था। रुक्मी की बहन ही रुक्मिणी थी। उसके और भी भाई थे।
यहां से चलने के बाद एक माह की कठिन यात्रा के बाद यादव सेना दण्डकारण्य पार कर अवंती राज्य के भोजपुर नगर पहुंच गई। यह कुंति बुआ के पालक पिता राजा कुंतिभोज का नगर था। यहां अचानक ही श्रीकृष्ण की गर्ग मुनि से भेंट हुई। वे पश्चिम सागर तट पर स्थित अजितंजय नगर के यवन राजा से मिलकर आ रहे थे। श्रीकृष्ण के पास इसी नाम (अजितंजय) से एक धनुष भी था। दूर गांधार, काब्रा नदी के प्रदेश के लोगों को 'यवन' कहा जाता था।
अंतत: कुछ दिन कुंतिभोज के नगर में विश्राम करने के बाद वे यादव सेना सहित मथुरा पहुंच गए। यहां महाराजा उग्रसेन, तात वसुदेव, भ्राता ऊधो और अन्य विशिष्ट यादवों ने उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण के मथुरा पहुंचने से पहले ही जरासंध पर उनकी विजय का समाचार भी पहुंच गया था। वहां उन्होंने वसुदेव को उनकी बहन कुंति और उनके पुत्र पांडवों की रक्षा का वचन दिया। यहीं रहकर उन्होंने विदर्भ राज्य की पुत्री रुक्मिणी का अपहरण कर उसके साथ विवाह भी किया।
श्रीकृष्ण के मथुरा आगम पर जब खबर लगी जरासंध को...
जरासंध को श्रीकृष्ण के पुन: मथुरा आगमन का समाचार मिल चुका था। इस बार उसने मथुरा को घेरने और कृष्ण का वध करने की बड़ी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। जरासंध ने सौभपति शाल्व को अपना मित्र बना लिया था। शाल्व के पास अत्यंत ही तेज गति से उड़ने वाला एक विमान था जिसका नाम 'सौभ' था इसी कारण उसे सौभ्यपति कहते थे।
शाल्व की नगरी मार्तिकावती आनर्त और मरुस्थली की सीमा अर्बुद गिरि पर बसी हुई थी। पश्चिमी सीमा पार कर उसने मित्रता कायम कर रखी थी। वह अपने वायुयान में बैठकर गांधार देश गया था और मथुरा पर आक्रमण करने के लिए उसने कालयवन को मना लिया था। कालयवन कुछ माह आर्यावर्त के दक्षिण देश के अजितंजय नगर में अपने पालक पिता यवनराज के साथ रहता था। यह कालयवन मथुरा के राजपुरोहित गर्ग मुनि का पुत्र था। यह बात कोई नहीं जानता था। दरअसल, अजितंजय के संतानहीन यवन राजा को पुत्र प्राप्ति का वर दिया था। कई पत्नियां होने के बावजूद उसको कोई संतान नहीं होने की बात पता चली तो गर्ग मुनि को वर देने का पछतावा हुआ। तब उन्होंने कहा कि तुम अपने पुत्र के न सही, लेकिन मेरे पुत्र के पालक पिता बनोगे। तब गर्ग मुनि ने मथुरा में ही गोपाली नामक गोप स्त्री से जन्मे अपने पुत्र को यवन राजा को सौंप दिया था।
गर्ग मुनि ने यह बात बाद में श्रीकृष्ण को बता दी। उन्होंने कहा, जब मैंने उसे सौंप दिया तो वह उन्हीं का हो गया। मेरा उससे संबंध समाप्त हो गया है। उसके विषय में कोई भी कठोर निर्णय करने का तुम्हें अधिकार है। मेरी निष्ठा सदैव यादवों के प्रति रही है और रहेगी। गर्ग मुनि ने अपने जीवन का सभी ज्ञान यादवों को दिया था। वे उनके आदर्श थे।
इधर, कालयवन की सेना के साथ पूर्व से शिशुपाल और जरासंध, पश्चिम से शाल्व और दक्षिण से भीष्मक ने मथुरा को घेरने की योजना बनाई। धीरे-धीरे मगध में दुश्मन सेनाएं एकत्रित होने लगीं। अब केवल कालयवन की सेना सहित 14 राजाओं और उनकी सेना का इंतजार था।
उधर, इस दौरान श्रीकृष्ण अमात्य विपृथु, उद्धव और दाऊ को लेकर ककुद्मिन महाराजा के पास रैवतक चले गए। उनकी सहायता से कुछ निष्णात पनडुब्बों (पानी के भीतर जहाज चलाने वाले) को साथ लिया और प्रभाष क्षेत्र में पहुंच गए। प्रभाष क्षेत्र से लेकर कुशस्थली तक के समुद्र का सूक्ष्म निरीक्षण किया। नौकाओं से समुद्र के संपूर्ण निर्जन क्षेत्र को छान मारा। परीक्षण करने के बाद रैवतक पर्वत के पास कुशस्थली के समीप एक शांत, विशाल द्वीप पर नजर गई, जहां उन्होंने शंखासुर का वध किया था। यह स्थान सभी दृष्टि से उत्तम था।
शंखोद्वार द्वीप भी समुद्र में समुद्र तट से एक योजन की दूरी पर स्थित था। आनर्त, सौराष्ट, भृगुकच्छ, मरुस्थल अवंती आदि दिशा में दूर तक सैकड़ों योजन तक मरुभूमि फैली थी। यह प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार था। इस स्थल पर श्रीकृष्ण ने एक पुरोहित के माध्यम से भूमिपूजन कराया और एक नए नगर के निर्माण की नींव रखी। बाद में मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण ने एक राजसभा को आमंत्रित किया। सभी प्रमुख यादवों की जीवनयात्रा में मथुरा में आयोजित यह अंतिम सभा थी। उस सभा में निर्णय लिया गया कि यादव एक नए नगर में वास करेंगे। उस सभा में गर्ग मुनि भी मौजूद थे। सभा के बाद सभी श्रेष्ठ इंजीनियरों को नए नगर निर्माण कार्य में जुटा दिया गया। योजनाबद्ध निर्माण कार्य की बागडोर मुनिवर गर्ग की देख-रेख में सौंपने का निर्णय लिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि महाराजा उग्रसेन अपनी इच्छा से इस मथुरा में ही कुछ योद्धा और सैनिकों के साथ रहेंगे लेकिन यादवों के सभी 18 कुल के परिवार सहित नए नगर में प्रस्थान करेंगे। सभी ने श्रीकृष्ण के इस प्रस्ताव को भाव-विभोर होकर स्वीकार कर लिया।
अगले पन्ने पर कालयवन की सेना का घेरा और श्रीकृष्ण का पलायन...
कुछ दिन बाद गर्ग मुनि द्वारा बताए गए खग्रास सूर्य ग्रहण की सूचना सभी ओर फैल गई। प्रथा के अनुसार इस ग्रहण का प्रदोष निवारण किया गया। प्रत्येक सूर्यग्रहण के बाद यादव, कुरु, मत्स्य, चेदि, पांचाल आदि कुरुक्षेत्र के सूर्य कुंड में आकर दान-पुण्य आदि कर्मकांड करते हैं। श्रीकृष्ण भी अपने बंधु- बांधवों के साथ एकत्रित हुए। सूर्य कुंड की उत्तर दिशा में उन्होंने पड़ाव डाला। यहीं पर श्रीकृष्ण की मुलाकात कुंति सहित पांडव पुत्रों से हुई।
मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण को पता चला कि कालयवन की सेना सागर मार्ग से नौकाओं द्वारा पश्चिमी तट पर पहुंच रही थी। मगध से आई जरासंध की सेना भी उनसे मिल गई थी। कालयवन की सेना अत्यंत ही विशाल और आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस थी। सभी ने मथुरा के यादवों को समूल नष्ट करने की योजना बना रखी थी। श्रीकृष्ण ने भी अपनी सेना तैयार कर कालयवन से नगर के बाहर मुकाबला करने की योजना बनाई। वे भी रथ पर सवार होकर सत्राजित, अक्रूर, शिनि, ववगाह, यशस्वी, चित्रकेतु, बृहदबल, भंड्कार आदि योद्धाओं के साथ पश्चिम सागर तट की ओर चल पड़े। एक के बाद एक पड़ाव डालते हुए वे पश्चिम सागर के पास मरुस्थली अर्बुदगिरि के समीप आ गए। धौलपुर के समीप पर्वत के पास पड़ाव डाला।
योजना के अनुसार दाऊ शल्व को भुलावे में डालकर एक ओर ले गए। दूसरी ओर सेनापतिद्वय ने जरासंध को चुनौती दी। धौलपुर के पड़ाव पर रह गया अकेला कालयवन। खुद श्रीकृष्ण गरूड़ध्वज रथ लेकर उसके सामने आकर सीधे उससे भिड़ गए। दोनों के बीच युद्ध हुआ। अचानक श्रीकृष्ण ने दारुक को सेना से बाहर निकालने का आदेश दिया और उन्होंने पांचजञ्य से विचित्र-सा भयाकुल शंखघोष किया। उसका अर्थ था- पीछे हटो, दौड़ो और भाग जाओ। यादव सेना इस शंखघोष से भली-भांति परिचित थी। कालयवन और उसकी सेना को कुछ समझ में नहीं आया कि यह अचानक क्या हुआ? कालयवन ने अपने सारथी को कृष्ण के रथ का पीछा करने को कहा। कालयवन को लगा कि श्रीकृष्ण रथ छोड़कर भाग रहे हैं। वह और उत्साहित हो गया। गांधार देश की मदिरा में लाल हुई उसकी आंखें स्थिति को अच्छे से समझ नहीं पाईं। वह सारथी को हटाकर खुद ही रथ को दौड़ाने लगा।
इस पलायन नाटक का असर यह हुआ कि वह दूर तक उनके पीछे आ गया और सैन्यविहीन हो गया। दारुक ने गरूड़ध्वज की चाल को धीमा किया। कालयवन अबूझ यवनी भाषा में चिल्लाते हुए कृष्ण के पास पहुंचने लगा, तभी दारुक ने दाईं और जुते सुग्रीव नामक अश्व की रस्सी खोल दी और श्रीकृष्ण उस पर सवार हो गए। प्रतिशोध से भरा कालयवन भी अपने रथ के एक अश्व को खोलकर उस पर सवार होकर श्रीकृष्ण का पीछा करने लगा। सुग्रीव धौल पर्वत पर चढ़ने लगा।
श्रीकृष्ण जानते थे कि उनके आगे काल है और पीछे यवन। वे कुछ दूर पर्वत पर चढ़ने के बाद अश्व पर से उतरे और एक गुफा की ओर पैदल ही चल पड़े। कालयवन भी उनके पीछे दौड़ने लगा। श्रीकृष्ण गुफा में घुस गए। कुछ देर बाद काल यवन भी क्रोध की अग्नि में जलता हुआ गुफा में घुसा।
मदिरा में मस्त कालयवन ने गुफा के मध्य में एक व्यक्ति को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए श्रीकृष्ण इस तरह भेष बदलकर छुप गए हैं- 'देखो तो सही, मुझे मूर्ख बनाकर साधु बाबा बनकर सो रहा है', उसने ऐसा कहकर उस सोए हुए व्यक्ति को कसकर एक लात मारी।
वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था।
उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन का अंत हो गया। मुचुकुंद को वरदान था कि जो भी तुम्हें जगाएगा और तुम उसकी ओर देखोगे तो वह जलकर भस्म हो जाएगा।
अंत में श्रीकृष्ण सहित सभी यादवों का द्वारिका के लिए प्रस्थान...
कालयवन द्वारा लूटी गई अमित स्वर्ण संपत्ति को कुशस्थली भेज दिया गया। एक बार फिर मुनि गर्ग ने सांदीपनि के साथ जाकर मन्दवासर के शनिवार को रोहिणी नक्षत्र में भूमिपूजन किया। देश के महान स्थापत्य विशारदों को बुलाया गया। उन विशारदों में असुरों के मय नामक स्थापत्य विशारद और कुरुजांगल प्रदेश के विख्यात शिल्पकार विश्वकर्मा को भी बुलाया गया। दोनों ने मिलकर नगर निर्माण, भव्य मंदिर, गोशाला, बाजार, परकोटे और उनके द्वार सहित राजभवन के अन्य भवनों के निर्माण की भव्य योजना तैयार की। इस राजनगरी का प्रचंड कार्य कुछ वर्ष तक चलता रहा। मथुरा से श्रीकृष्ण और दाऊ वहां जाकर निरंतर निर्माण कार्य का अवलोकन करते रहते थे।
जब राजनगर का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया तब राज्याभिषेक का मुहूर्त निकलवाया गया। राज्याभिषेक के मुहूर्त के पहले श्रीकृष्ण अपने सभी 18 कुलों के यादव परिवारों को साथ लेकर द्वारिका प्रस्थान करने के लिए निकल पड़े। सभी मथुरावासी और उग्रसेन सहित अन्य यादव उनको विदाई देने के लिए उमड़ पड़े। विदाई का यह विदारक दृश्य देखकर सभी की आंखों से अश्रु बह रहे थे। कुछ गिने-चुने मथुरावासी यादवों को छोड़कर सभी ने मथुरा छोड़ दी। यह विश्व का पहला महानिष्क्रमण था।