Bhojan ke niyam: भोजन करने को लेकर हिन्दू शास्त्रों और आयुर्वेद में कुछ नियम और सेहत से जुड़ी जरूरी बातों को बताया गया है। प्राचीनकाल से ही इन बातों का सभी पालन करते आएं हैं परंतु आधुनिककाल में यह सबकुछ छूट गया है। अब लोग पाश्चात्य भोजन स्टाइल को अपनाकर गंभीर रोगों से ग्रस्त हो चले हैं। यदि आप अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहते हैं तो भोजन की इन 30 पारंपरिक बातों पर ध्यान दें।
1. भोजन करने का निश्चित समय नियुक्त करें। प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है, क्योंकि पाचनक्रिया की जठराग्नि सूर्योदय से 2 घंटे बाद तक एवं सूर्यास्त से 2.30 घंटे पहले तक प्रबल रहती है। जो व्यक्ति सिर्फ एक समय भोजन करता है वह योगी और जो दो समय करता है वह भोगी कहा गया है। दो वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वे समय के पाबंद रहें।
2. पानी हमेशा तांबे के बर्तन में रखना चाहिए और तांबे के गिलास में पीना चाहिए। बारिश का पानी उत्तम, नदी का पानी मध्यम और कुवे, तालाब का पानी निम्नतम माना गया है जिसे छानकर पीना चाहिए।
3. भोजन हमेशा पीतल या चांदी की थाली में रखकर खाना चाहिए। भोजन केल, आप या खांकरे के पत्ते पर रखकर भी किया जा सकता है। जर्मन और कांसे के पात्र में भोजन करना निषिद्ध है।
4. भोजन उत्तम, शुद्ध, सात्विक और संपूर्ण आहार करें। पने भोजन में दही, सलाद, अनार, हरि पत्तदार सब्जियां, लहसुन, बीन्स, फ्रूट और ड्राय फूड का उपयोग करें। चाय, कॉफी, कोल्ड्रिंक, मैदा और इसी तरह के पेय पदार्थ जीवनभर के लिए त्याग दें। गरिष्ठ भोजन कभी न करें। बहुत तीखा या बहुत मीठा भोजन न करें। किसी के द्वारा छोड़ा हुआ भोजन न करें। आधा खाया हुआ फल, मिठाइयां आदि पुनः नहीं खाना चाहिए।
5. गर्मी में पानी मिट्टी के घड़े या चांदी के घड़े में, सर्दी में पानी सोने या पीतल के घड़े में और बारिश में पानी तांबे के घड़े का पीना चाहिए। जहाँ पानी रखा गया है वह स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुथरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी है।
6. भोजन की थाली को पाट पर रखकर भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए। खड़े-खड़े, जूते पहनकर सिर ढंककर भोजन नहीं करना चाहिए।
7. भोजन के 1 घंटा पूर्व पानी पीना उत्तम और खाना खाने के कम से कम एक घंटे बाद पानी पीना चाहिए। भोजन के दौरान भी पानी नहीं पीना चाहिए। भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है।
8. 5 अंगों (2 हाथ, 2 पैर, मुख) को अच्छी तरह से धोकर ही भोजन करना चाहिए।
9. भोजन बनाने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से, मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाएं।
10. शैया पर, हाथ पर रखकर, टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन नहीं करना चाहिए।
11. मल-मूत्र का वेग होने पर, कलह के माहौल में, अधिक शोर में, पीपल, वटवृक्ष के नीचे भोजन नहीं करना चाहिए।
12. परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए। ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनभाव, द्वेषभाव के साथ किया हुआ भोजन कभी पचता नहीं है। भोजन करते वक्त मौन रहने से लाभ मिलता है।
13. भोजन अंगूठे सहित चारों अँगुलियों के मेल से करना चाहिए।
14. भोजन भोजन कक्ष में ही करना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए।
15. भोजन के पश्चात घुड़सवारी, दौड़ना, बैठना, शौच आदि नहीं करना चाहिए। बैठना ही हो तो कुछ समय तक वज्रासन की स्थिति में बैठना चाहिए। भोजन के पश्चात दिन में टहलना एवं रात में सौ कदम टहलकर बाईं करवट लेटने अथवा वज्रासन में बैठने से भोजन का पाचन अच्छा होता है। भोजन के एक घंटे पश्चात मीठा दूध एवं फल खाने से भोजन का पाचन अच्छा होता है।
16. भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है। थाली में कभी जूठन न छोड़े। भोजन करने के बाद थाली को कभी, किचन स्टेन, पलंग या टेबल के नीचे न रखें। उपर भी न रखें। रात्रि में भोजन के जूठे बर्तन घर में न रखें। इसी तरह के कई और भी नियम हैं जिनका पालन करें।
17. भोजन के पहले तीखा इसलिए खाते हैं क्योंकि इससे आपका पाचन तंत्र सक्रिय हो जाए। खाने के बाद मीठा भी खाने की परंपरा है। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले मीठा, फिर नमकीन, अंत में कड़वा खाना चाहिए। हालांकि इसे किसी आयुर्वेदाचार्या से कंफर्म कर लें।
18. भोजन करने के पूर्व तीन कोल गाय, कुत्ते और कौवे या ब्रह्मा, विष्णु और महेष के नाम के निकालकर थाली में अलग रख देना चाहिए।
19. पानी छना हुआ होना चाहिए और हमेशा बैठकर ही पीया जाता है। पानी गिलास में घूंट-घूंट ही पीना चाहिए। अंजुली में भरकर पिए गए पानी में मिठास उत्पन्न हो जाती है।
20. भोजन से पूर्व अन्नदेवता, अन्नपूर्णा माता की स्तुति करके उनका धन्यवाद देते हुए तथा 'सभी भूखों को भोजन प्राप्त हो', ईश्वर से ऐसी प्रार्थना करके भोजन करना चाहिए।
21. भोजन किचन में बैठकर ही सभी के साथ करें। प्रयास यही रहना चाहिए की परिवार के सभी सदस्यों के साथ मिल बैठकर ही भोजन हो। नियम अनुसार अलग-अलग भोजन करने से परिवारिक सदस्यों में प्रेम और एकता कायम नहीं हो पाती।
22. भोजन पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुंह करके ही करना चाहिए। दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है। पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है।
23. खाना छोड़कर उठ जाने पर दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए। जो ढिंढोरा पीटकर खिला रहा हो, वहां कभी न खाएं।
24. पशु या कुत्ते का छुआ, रजस्वला स्त्री का परोसा, श्राद्ध का निकाला, बासी, मुंह से फूंक मारकर ठंडा किया, बाल गिरा हुआ भोजन न करें। अनादरयुक्त, अवहेलनापूर्ण परोसा गया भोजन कभी न करें। कंजूस का, राजा का, वेश्या के हाथ का, शराब बेचने वाले का दिया भोजन और ब्याज का धंधा करने वाले का भोजन कभी नहीं करना चाहिए।
25. भोजन के समय मौन रहें। बोलना जरूरी हो तो सिर्फ सकारात्मक बातें ही करें। भोजन करते वक्त किसी भी प्रकार की समस्या पर चर्चा न करें।
26. रात्रि में भरपेट न खाएं। भोजन को बहुत चबा-चबाकर खाएं। गृहस्थ को 32 ग्रास से ज्यादा न खाना चाहिए। सबसे पहले रसदार, बीच में गरिष्ठ, अंत में द्रव्य पदार्थ ग्रहण करें। थोड़ा खाने वाले को आरोग्य, आयु, बल, सुख, सुंदर संतान और सौंदर्य प्राप्त होता है।
27. रात्रि को दही, सत्तू, तिल एवं गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए।
28. शहद व घी का समान मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। राईं के साथ जीले का सेवन नहीं करना चाहिए। इस तरह के कई पदार्थ है जिनका उचित मात्रा में ही सेवन करना चाहिए।
29.तिथि और माह को जानकर ही भोजन का चयन करना चाहिए। जैसे नवमी के दिन लौकी नहीं खाना चाहिए।
30. भोजन के उचित मेल को भी जान लेना चाहिए। जैसे बैंगन के साथ दही नहीं खाते, दूध के साथ नमक, दही, खट्टे पदार्थ, मछली, कटहल का सेवन नहीं करना चाहिए। दूध-खीर के साथ खिचड़ी नहीं खाना चाहिए।