प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दूसरी ओर लाल किताब के अनुसार यदि व्यक्ति ने किसी भी प्रकार का पाप किया है तो उसे कम से कम 43 दिन नंगे पांव मंदिर जाकर अपने पापों क्षमा मांगने के बारे में हिदायत दी गई है।
प्रायश्चित करना हिन्दू धर्म की दुनिया को महत्वपूर्ण देन है लेकिन हिन्दू धर्म में इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। खासकर पापों की बजाय पुण्य करने पर ध्यान दिया गया है। प्रायश्चित व्यक्ति के मन को निर्मल बनाता है लेकिन कभी कभी इसका बुरा असर भी होता है। व्यक्ति का मान कुलशित, संकुचित हो जाता है और वह खुद को जीवनभर पापी ही समझता रहता है। हालांकि प्रायश्चित करके अपने पापों को भुलकर पुण्य पर ही ध्यान देना जरूरी है। इसको लेकर जीवनभर अपराधबोध नहीं पालना चाहिए।
प्रायश्चित करने के कई प्रकार हैं:-
दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना, तपस्या का एक दूसरा रूप है। यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम, मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।
प्राचीन काल में अपने किसी पाप का प्रायश्चित करने के लिए देवता, मनुष्य या भगवान अपने अपने तरीके से प्रायश्चित करते थे। जैसे त्रेता युग में भगवान राम ने रावण का वध किया, जो सभी वेद शास्त्रों का ज्ञाता होने के साथ-साथ ब्राह्मण भी था। इस कारण उन्हें ब्रह्महत्या का दोष लगा था। इसके उपरांत उन्होंने कपाल मोचन तीर्थ में स्नान और तप किया था जिसके चलते उन्होंने ब्रह्महत्या दोष से मुक्ति पाई थी।
पाप की तीव्रता के अनुसार प्रायश्चित मंद से तीव्र स्वरूप का होता है। जैसे अनजाने में हुए पाप साधारणतः पश्चाताप होने से अथवा सबके समक्ष बताने से नष्ट हो जाते हैं। परंतु जानबूझकर किए गए पापों के लिए तीव्र स्वरूप का प्रायश्चित लेना चाहिए। प्रायश्चित करने के कुछ उदाहरण : तीर्थयात्रा पर जाना, दान करना, उपवास करना आदि। किस प्रकार के पाप के लिए कौन-सा प्रायश्चित लेना चाहिए, इसकी विस्तृत जानकारी पुराणों में मिलती है।
दंड का विधान : जब कोई व्यक्ति कोई सामान्य या घोर पाप या अपराध करता है। और उसे करने के बाद वह पश्चाताप करना है या प्रायश्चित लेता है तब उसके पाप क्षम्य हो जाते हैं लेकिन यदि वह वही पाप या अपराध बार बार करता है कि तो फिर उसे दंड भुगतना ही होता है। दंड और प्रायश्चित में यह भेद है।
अपने पाप का प्रायश्चित करने वाले व्यक्ति को पश्चाताप होता है। प्रायश्चित लेने वाला व्यक्ति, अपनी प्रतिज्ञा से बंधा होता है। वह अपनी प्रतिज्ञा का पूरी लगन से पालन करता है, तदुपरांत सदाचारी बन जाता है। इसके विपरीत, केवल अपने अपराध सबके सामने बताने से अथवा दंड भुगतने से कोई व्यक्ति अपने आप को वैसी चूकें दोहराने से रोक नहीं सकता। अपराधी व्यक्ति, जो अपने अपराध के लिए दंडित होते हैं, उनमें अधिकांशतः अंत में कोई सुधार नहीं दिखता, क्योंकि ना तो उन्हें पश्चाताप होता है और ना ही वे अपने अपराधी कृत्यों के भयानक परिणामों के प्रति सर्तक हो पाते हैं। ऐसे व्यक्ति को जीवन के एक मोड़ पर भयानक दंड का सामना करना होता है।
प्रायश्चित का सरल मार्ग : पिछले जन्मों के पाप और पुण्य भी हमारे अंतर्मन में संग्रहित रहते हैं। जिस प्रकार सूर्य कोहरे को हटा देता है और बर्फ को पिघला देता है, उसी प्रकार प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण की भक्ति हमारे अंतर्मन से न केवल अनावश्यक विचारों को नष्ट करती है, अपितु पापों को भी नष्ट करती है। वास्तव में जब हम भक्तिपूर्वक उनका नामजप करते हैं, तब पाप करने की इच्छा ही नष्ट हो जाती है।
प्रायश्चित किए बिना जीव मुक्ति नहीं। कहते हैं कि भगवान महावीर स्वामी को कहीं से एक पत्थर सनसनाता हुआ आया और उनके सिर में लग गया। शिष्यों ने उनके सिर में से खून निकलते हुए देखा और पूछा भगवन् ये अचानकर कैसे हुआ। महावीरजीन ने कहा कि मेरा यह अंतिम अपराध था जिसका प्रायश्चित आज पूरा हो गया। मैंने किसी जन्म में एक व्यक्ति को पत्थर मारा था। यह पत्थर आज लौटकर आया है। अब में इस भार से भी मुक्ति हुआ।
जैन धर्म में 'क्षमा पर्व' प्रायश्चित करने का दिन है। दोनों ही धर्मों के इस नियम या परंपरा को ईसाई और मुस्लिम धर्म में भी शामिल किया गया है। ईसाई धर्म में इसे 'कंफेसस' और इस्लाम में 'कफ्फारा' कहा जाता है। हालांकि ईसाई धर्म में कंफेसस या कंफेस्स को स्वीकार करना कहते हैं। यह प्रायश्चित का ही एक रूप है।