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इस तरह के विवाह हैं धर्म विरुद्ध

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अनिरुद्ध जोशी

विवाह करने का प्रचलन हजारों पहले वर्ष तब अस्तित्व में आया जब मानव को सभ्य बनाने की प्रक्रिया के तहत धार्मिक नियमों को समाज में प्रचलित किया जा रहा था। आदिम काल में विवाह जैसा कोई संस्कार नहीं था। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से यौन-संबध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। समाज में रिश्ते और नाते जैसी कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण मानव जंगली नियमों को मानता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष को ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था।
धरती पर सर्वप्रथम आर्यों या कहें कि वैदिक ऋषियों ने ही मानव को सभ्य बनाने के लिए सामाजिक व्यवस्थाएं लागू की और लोगों को एक सभ्य समाज में बांधा। जो व्यक्ति उक्त नियमों का पालन करता था उसे आर्य कहा जाता था और जो नहीं करता था उसे अनार्य अर्थात दुष्ट, जंगली और नीच मान लिया जाता था।
 
विवाह करके एक पत्नी व्रत धारण करना ही सभ्य मानव की निशानी है। बहुत सोच-समझ कर वैदिक ऋषियों ने विवाह के कुछ प्रकार बताएं जिसमें से चार तरह के विवाह को समाज में निषेध किया गया। वर्तमान में देखा गया है कि उक्त निषेध तरह के विवाह का प्रचलन भी बढ़ा है जिसके चलते समाज में बिखराव और पतन स्वाभाविक रूप से देख सकते हैं। इस तरह के विवाह कुल नाश और देश के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं। आधुनिकता के नाम पर निषेध विवाह को बढ़ावा देना देश और धर्म के विरुद्ध ही है।

इस रीति से करें विवाह : भारतीय धर्म और संस्कृति में आठ तरह के विवाह बताएं गए हैं। उसमें से ब्रह्म विवाह को ही धर्म सम्मत और उचित रीति का बताया गया है। 
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1.ब्रह्म विवाह : दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह में वैदिक रीति और नियम का पालन किया जाता है।

इस विवाह में कुंली मिलान को उचित रीति से देख लिया जाता है। मांगलिक दोष मात्र 20 प्रतिशत ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते हैं। मांगलिक के अलावा यदि अन्य मामलों में कुंडली मिलती है तो विवाह सुनिश्चित कर दिया जाता है। अत: मंगल दोष कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं होती है।
 
वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानों एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी उस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करें कि उसने अपने व्यक्तित्व का अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना दिया और अपना हाथ भी सौंप दिया। दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया।
 
मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण- ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा उचित रीति से ब्रह्म विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सदधर्म का पालन करने की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में ब्रह्म विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।

मध्यम विवाह : देव विवाह और आर्श विवाह को मध्यम श्रेणी में रखा गया है, लेकिन इसमें कन्या की सहमति होना जरूरी है तभी यह विवाह मध्यम माना जाएगा अन्यथा यह निकृष्ट माना जाएगा। उक्त तरह के विवाह प्राचीनकाल में इसलिए प्रचलित थे क्योंकि उक्त काल में धर्म की उन्नति और सृष्टि के विस्तार हेतु इस तरह के विवाह की आवश्यकता होती थी।
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2.दैव विवाह : किसी सेवा धार्मिक कार्य या उद्येश्य के हेतु या मूल्य के रूप में अपनी कन्या को किसी विशेष वर को दे देना 'दैव विवाह' कहलाता है।
 
3.आर्श विवाह : कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य देकर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना 'अर्श विवाह' कहलाता है।
 
विवाह के लाभों में वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य सुख, मानसिक रुप से परिपक्वता, दीर्घायु, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है। इसके अलावा समस्याओं से जूझने की शक्ति और प्रगाढ़ प्रेम संबध से परिवार में सुख-शांति मिलती है। इस प्रकार विवाह-संस्कार सारे समाज के एक सुव्यवस्थित तंत्र का स्तम्भ है।

निकृष्ट विवाह :
4.प्रजापत्य विवाह:- कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग (धनवान और प्रतिष्ठित) के वर से कर देना 'प्रजापत्य विवाह' कहलाता है।
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5.गंधर्व विवाह:- इस विवाह का वर्तमान स्वरूप है प्रेम विवाह, लिव इन रिलेशनशिप आदि। यह मात्र यौन आकर्षण और धन तृप्ति हेतु किया जाता है, लेकिन इसका नाम प्रेम विवाह दे दिया जाता है। परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना 'गंधर्व विवाह' कहलाता है। उक्त विवाह समाज के लिए सबसे ज्यादा घात सिद्ध हुआ है।
 
हिन्दू विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक-संस्कार है। संस्कार से अंतःशुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण में ही दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत हो पाता है अन्यथा इसका परिणाम घुटन या तलाक ही होता है। गंधर्व विवाह करने वालों का न तो परिवार होता है और न ही समाज। उनकी संतानों का भविष्य अंधकार में होता है।
 
6. असुर विवाह:- कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना 'असुर विवाह' कहलाता है।
7.राक्षस विवाह:- कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना 'राक्षस विवाह' कहलाता है।
8.पैशाच विवाह:- कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक संबंध बना लेना और उससे विवाह करना 'पैशाच विवाह' कहलाता है।

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