प्राचीनकाल में संध्योपासना या संध्यावंदन की जाती थी। आगे चलकर यह पूजा, आरती और तरह तरह की पूजा विधियों में बदल गई। अब मोटे तौर पर कह सकते हैं कि संध्योपासना के 5 प्रकार हैं- (1) प्रार्थना, (2) ध्यान-साधना, (3) भजन-कीर्तन (4) यज्ञ और (5) पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। सभी को करने के पहले शौच और आचमन करना जरूरी रहता है। आओ जानते हैं पूजा संबंधी वह समस्त बातें जो आप जानते चाहेंगे। यह लेख संग्रहणीय होगा।
1. वैदिकालीन प्रार्थना हो गई लुप्त : प्राचीनकाल में वैदिक लोग अपने आश्रम या सभा स्थल पर वेदी बनाकर इकट्ठे होकर समूह रूप में प्रार्थना करते थे। वैदिक ऋषि जंगल के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे। इसके पहले से ही हिन्दू समाज के अधिकतर लोग किसी वृक्ष के नीचे एक पत्थर रखकर उसे अपना देवता मानकर उसे पूजते थे। वो पत्थर उनके देवता का प्रतीक होता था। आज भी यह प्रचलन में है।
2. पूजा का प्रचीन इतिहास : सोमनाथ के मंदिर के होने का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है इससे यह सिद्ध होता है भारत में मंदिर परंपरा कितनी पुरानी रही है। इतिहासकार मानते हैं कि ऋग्वेद की रचना 7000 से 1500 ईसा पूर्व हई थी अर्थात आज से 9 हजार वर्ष पूर्व। मतलब यह कि तभी से पूजा कर प्रचलन है। राम के काल में सीता द्वारा गौरी पूजा, महाभारत के काल में रुक्मिणी द्वारा गौरी पूजन और अर्जुन द्वारा युद्ध के पूर्व दुर्गा पूजा करना इस बात का सबूत है कि उस काल में देवी-देवताओं की पूजा का महत्व था और उनके घर से अलग पूजास्थल होते थे। शिवलिंग की पूजा का प्रचलन सबसे प्राचीन है। रामायण काल में भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की थी। शिवलिंग को उस काल में आदिवासी और वनवासी लोग पूजते थे। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन बढ़ने लगा।
3. पूजा में भाव जरूरी : गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मेरे भक्त को मेरा रूप चराचर किसी भी वस्तु में भी दिखाई देता है तो वह मन में मेरा ही ध्यान करके उसे पूजता है। मेरे रूप या अवतारों की मूर्तियां बनाकर भी पूजा की जाती है। जिन्हें इन मूर्तियों में मेरा विशाल रूप दिखाई नहीं देता वो मेरे अनादि और अनंत रूप की पूजा करते हैं। दोनों ही तरह के भक्त भक्ति के रास्ते पर चलते चलते मेरे परमधाम की ओर बढ़ते हैं।
हे अर्जुन पूजा मन की साधना होती है और मन की साधना का विधि से क्या लेना देना। जैसे प्रेम करने वाले दो प्रेमी मन से मन को लगाकर प्रेम करते हैं, वैसे ही भक्ति की जाती है। ये विधियां तो बनाने वालों ने बना दी हैं। मैं उन विधियों द्वारा पूजा करने वाले की पूजा भी स्वीकार कर लेता हूं परंतु मैं ये नहीं देखता कि मेरा भक्त विधि अनुसार पूजा कर रहा है कि नहीं। केवल पूजा करने वाले की भावना देखता हूं। उसके मन में मेरे प्रति प्रेम और भक्ति भाव हे या नहीं, ये देखता हूं। जिस पूजा में विधि ही विधि हो और प्रेम तथा भक्ति ना हो, उस पूजा द्वारा कोई भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। मुझे संपूर्ण साधने की एक ही विधि है मुझमें मन लगाएं, मुझमें ध्यान लगाएं।
4. पूजा नहीं है पाखंड : बहुत से लोग पूजा को पाखंड मानते हैं, क्योंकि पूजा के अब मनमाने तरीके विकसित हो चले हैं। बहुत से लोग यज्ञ करने को भी पाखंड मानते हैं, क्योंकि यज्ञ भी अब मनमाने और कभी भी कहीं भी होने लगे हैं। बहुत से लोग अब कीर्तन में भी नहीं जाते, क्योंकि कीर्तन का स्वरूप बिगाड़कर फिल्मी कर दिया गया है। कीर्तन या भजन क्यों किया जाता था इसका महत्व भी समाप्त हो गया है। प्रार्थना और ध्यान अब मंदिरों में नहीं, बड़े आश्रमों में या योगा क्लास में होता है।
5. नियम से करें पूजा : पूजा को नित्यकर्म में शामिल किया गया है। पूजा करने के पुराणिकों ने अनेक मनमाने तरीके विकसित किए हैं। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूप, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। पूजा में सभी देवों की स्तुति की जाती है। अत: पूजा-आरती के भी नियम हैं। नियम से की गई पूजा के लाभ मिलते हैं।
6. पूजा का समय जानें : 12 बजे के पूर्व पूजा और आरती समाप्त हो जाना चाहिए। दिन के 12 से 4 बजे के बीच पूजा या आरती नहीं की जाती है। रात्रि के सभी कर्म वेदों द्वारा निषेध माने गए हैं, जो लोग रात्रि को पूजा या यज्ञ करते हैं उनके उद्देश्य अलग रहते हैं। पूजा और यज्ञ का सात्विक रूप ही मान्य है।
7. पूजा से मिलते हैं कई लाभ : पूजा से वातावरण शुद्ध होता है और आध्यात्मिक माहौल का निर्माण होता है जिसके चलते मन और मस्तिष्क को शांति मिलती है। पूजा संस्कृत मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाती है। पूजा समाप्ति के बाद आरती की जाती है। यज्ञ करते वक्त यज्ञ की पूजा की जाती है और उसके अलग नियम होते हैं। पूजा करने से देवता लोग प्रसन्न होते हैं। पूजा से रोग और शोक मिटते हैं और व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।
8. पूजा के 5 प्रकार : 1- अभिगमन : देवालय अथवा मंदिर की सफाई करना, निर्माल्य (पूर्व में भगवान को अर्पित (चढ़ाई) की गई वस्तुएं हटाना)। ये सब कर्म 'अभिगमन' के अंतर्गत आते हैं। 2- उपादान : गंध, पुष्प, तुलसी दल, दीपक, वस्त्र-आभूषण इत्यादि पूजा सामग्री का संग्रह करना 'उपादान' कहलाता है। 3- योग : ईष्टदेव की आत्मरूप से भावना करना 'योग' है। 4- स्वाध्याय : मंत्रार्थ का अनुसंधान करते हुए जप करना, सूक्त-स्तोत्र आदि का पाठ करना, गुण-नाम आदि का कीर्तन करना, ये सब स्वाध्याय हैं। 5- इज्या : उपचारों के द्वारा अपने आराध्य देव की पूजा करना 'इज्या' के अंतर्गत आती है।
9. पूजन के उपचार : (1) पाँच उपचार, (2) दस उपचार, (3) सोलह उपचार। (1) पाँच उपचार : गंध, पुष्प, धूप, दीप और नेवैद्य। (2) दस उपचार : पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र निवेदन, गंध, पुष्प, धूप, दीप और नेवैद्य। (3) सोलह उपचार : पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नेवैद्य, आचमन, ताम्बुल, स्तवपाठ, तर्पण और नमस्कार। पूजन के अंत में सांगता सिद्धि के लिए दक्षिणा भी चढ़ाना चाहिए।
10. पंचदेव पूजा : प्रत्येक देवता का अपना मंत्र होता है जिसके द्वारा उनका आह्वान किया जाता है। जिस भी देवता का पूजन किया जाता है उससे पूर्व पंचदेवों का पूजन किया जाना जरूरी है। स्नानादि कराने के बाद देवताओं को पत्र, पुष्प, धूप आदि अर्पित किए जाते हैं। प्रत्येक चीज अर्पित किए जाने के समय प्रत्येक का वैदिक मंत्र निर्धारित है।
आदित्यं गणनाथं च देवी रुद्रं च केशवम्।
पंच दैवत्यामि त्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत॥
अर्थ : सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव, विष्णु- ये पंचदेव कहे गए हैं। इनकी पूजा सभी कार्यों में करना चाहिए।
11. आरती : आरती को 'आरात्रिक' अथवा 'नीराजन' के नाम से भी पुकारा गया है। आराध्य के पूजन में जो कुछ भी त्रुटि या कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति आरती करने से हो जाती है। साधारणतया 5 बत्तियों वाले दीप से आरती की जाती है जिसे 'पंचप्रदीप' कहा जाता है। इसके अलावा 1, 7 अथवा विषम संख्या के अधिक दीप जलाकर भी आरती करने का विधान है। विशेष : दीपक की लौ की दिशा पूर्व की ओर रखने से आयु वृद्धि, पश्चिम की ओर दुःख वृद्धि, दक्षिण की ओर हानि और उत्तर की ओर रखने से धनलाभ होता है। लौ दीपक के मध्य लगाना शुभ फलदायी है। इसी प्रकार दीपक के चारों ओर लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है।
12. घर में पूजा हेतु क्या क्या होना चाहिए :
गृहे लिंगद्वयं नाच्यं गणेशत्रितयं तथा।
शंखद्वयं तथा सूर्यो नार्च्यो शक्तित्रयं तथा॥
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्राम शिलाद्वयम्।
तेषां तु पुजनेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही॥
अर्थ- घर में दो शिवलिंग, तीन गणेश, दो शंख, दो सूर्य, तीन दुर्गा मूर्ति, दो गोमती चक्र और दो शालिग्राम की पूजा करने से गृहस्थ मनुष्य को अशांति होती है।
एका मूर्तिर्न सम्पूज्या गृहिणा स्केटमिच्छता।
अनेक मुर्ति संपन्नाः सर्वान् कामानवाप्नुयात॥
अर्थ : कल्याण चाहने वाले गृहस्थ एक मूर्ति की पूजा न करें, किंतु अनेक देवमूर्ति की पूजा करे, इससे कामना पूरी होती है।
13. पूजन-आरती सामग्री : धूप बत्ती (अगरबत्ती), कपूर, केसर, चंदन, यज्ञोपवीत 5, कुंकु, चावल, अबीर, गुलाल, अभ्रक, हल्दी, आभूषण, नाड़ा, रुई, रोली, सिंदूर, सुपारी, पान के पत्ते, पुष्प माला, कमल गट्टे, धनिया खड़ा, सप्त मृत्तिका, सप्तधान्य, कुशा व दूर्वा, पंच मेवा, गंगा जल, शहद (मधु), शकर, घृत (शुद्ध घी), दही, दूध, ऋतु फल, नैवेद्य या मिष्ठान्न (पेड़ा, मालपुए इत्यादि), इलायची (छोटी), लौंग मौली, इत्र की शीशी, सिंहासन (चौकी, आसन), पंच पल्लव, (बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते), पंचामृत, तुलसी दल, केले के पत्ते, औषधि, (जटामासी, शिलाजीत आदि), पाना (अथवा मूर्ति), गणेशजी की मूर्ति, अम्बिका की मूर्ति, सभी देवी-देवताओं को अर्पित करने हेतु वस्त्र, जल कलश (तांबे या मिट्टी का), सफेद कपड़ा (आधा मीटर), लाल कपड़ा (आधा मीटर), पंचरत्न (सामर्थ्य अनुसार), दीपक, बड़े दीपक के लिए तेल, बंदनवार, ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा), श्रीफल (नारियल), धान्य (चावल, गेहूं), पुष्प (गुलाब एवं लाल कमल), एक नई थैली में हल्दी की गांठ, खड़ा धनिया व दूर्वा आदि अर्घ्य पात्र सहित अन्य सभी पात्र।
14. घर में पूजा करें या नहीं : कुछ विद्वान मानते हैं कि घर में पूजा का प्रचलन मध्यकाल में शुरू हुआ, जबकि हिन्दुओं को मंदिरों में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उनके अधिकतर मंदिर तोड़ दिए गए थे। इसी कारण उस काल में बनाए गए मंदिर घर जैसे होते थे जिसमें गुंबद नहीं होता था। वर्तमान में घर में पूजा नित्य-प्रतिदिन की जाती है और मंदिर में पूजा या आरती में शामिल होने के विशेष दिन नियुक्त हैं, उसमें भी प्रति गुरुवार को मंदिर की पूजा में शामिल जरूर होना चाहिए। प्राचीन समय में घर में नहीं, घर के बाहर मंदिर या पूजाघर के लिए अलग स्थान होते थे जहां लोग एकत्रित होकर पूजा, आरती, यज्ञ या कोई मांगलिक कार्य करके उत्सव मनाते थे। मंदिर निजी और सार्वजनिक दोनों ही प्रकार के होते हैं।
घर और मंदिर का वातावरण अलग-अलग होता है। घर में सांसार होता है और मंदिर में अध्यात्म। मंदिर में आध्यात्मिक वातावरण के बीच पूजा, आरती या जप करने का उचित लाभ मिलता है। वर्तमान में घर में पूजा के प्रचलन के चलते लोग मंदिर कम ही जाते हैं। अत: उचित होगा कि सप्ताह में एक बार मंदिर में जरूर पूजा-अर्चना करें और हो सके तो मंगल या गुरुवार के दिन ही करें। घर में मंदिर नहीं रखने का मुख्य कारण है घर में घर-गृहस्थी का होना। घर-गृहस्थी भोग का विषय है और मंदिर योग या संन्यास का। क्या आप अपनी घर-गृहस्थी को मंदिर में रख सकते हैं। क्या आप मंदिर में अपनी रसोई बना सकते हैं? शयनकक्ष बना सकते हैं?
15. प्राण-प्रतिष्ठा :
(1) शालग्राम शिलायास्तु प्रतिष्ठा नैव विद्यते।
अर्थ : शालग्राम की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती।
(2) शैलीं दारुमयीं हैमीं धात्वाद्याकार संभवाम्।
प्रतिष्ठां वै प्रकुर्वीत प्रसादे वा गृहे नृप॥
अर्थ : पत्थर, काष्ठ, सोना या अन्य धातुओं की मूर्तियों की प्रतिष्ठा घर या मंदिर में करनी चाहिए।
(3) गृहे चलार्चा विज्ञेया प्रसादे स्थिर संज्ञिका।
इत्येत कथिता मार्गा मुनिभिः कुर्मवादिभिः॥
अर्थ : घर में चल प्रतिष्ठा और मंदिर में अचल प्रतिष्ठा करना चाहिए। यह कर्म-ज्ञानी मुनियों का मत है।
'गंगाजी में, शालग्राम शिला में तथा शिवलिंग में सभी देवताओं का पूजन बिना आह्वान-विसर्जन किया जा सकता है।'