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गर्भावस्था में हिंदुओं का सबसे बड़ा संस्कार... जानें क्यों

हमें फॉलो करें गर्भावस्था में हिंदुओं का सबसे बड़ा संस्कार... जानें क्यों

अनिरुद्ध जोशी

संस्कार का सामान्य अर्थ है-किसी को सुसंस्कृत करना या शुद्ध करके उपयुक्त बनाना। संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं। संस्कार विरुद्ध आचरण असभ्यता की निशानी है। हिन्दू धर्म में कम से कम 32 तरह के संस्कारों का वर्णन मिलता है उसमें से 16 संस्कारों को प्रमुख माना गया है। हिन्दू धर्म के ये संस्कार अन्य धर्मों के लोगों ने भी भिन्न रूप में अपना रखें हैं। आओ जानते है 16 संस्कारों में से एक दूसरा संस्कार पुंसवन संस्कार के बारे में।
 
 
कब करते हैं पुंसवन संस्कार?
हिन्दू धर्म संस्कारों में पुंसवन संस्कार द्वितीय संस्कार है। पुंसवन संस्कार जन्म के तीन माह के पश्चात किया जाता है। पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। 
 
क्यों कहते हैं पुंसवन संस्कार?
पुंसवन संस्कार एक हष्ट पुष्ट संतान के लिये किया जाने वाला संस्कार है। कहते हैं कि जिस कर्म से वह गर्भस्थ जीव पुरुष बनता है, वही पुंसवन-संस्कार है। शास्त्रों अनुसार चार महीने तक गर्भ का लिंग-भेद नहीं होता है। इसलिए लड़का या लड़की के चिह्न की उत्पत्ति से पूर्व ही इस संस्कार को किया जाता है।
 
 
धर्मग्रथों में पुंसवन-संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है। मूलत: यह संस्कार वे लोग करते हैं जिन्हें पुत्र की कामना होती है। दूसरा पुंसवन-संस्कार का उद्देश्य बलवान, शक्तिशाली एवं स्वस्थ संतान को जन्म देना है। इस संस्कार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा होती है तथा उसे उत्तम संस्कारों से पूर्ण बनाया जाता है।
 
 
हिंदू धार्मिक ग्रंथों में सुश्रुतसंहिता, यजुर्वेद आदि में तो पुंसवन संस्कार को पुत्र प्राप्ति से भी जोड़ा गया है। स्मृतिसंग्रह में यह लिखा है - गर्भाद् भवेच्च पुंसूते पुंस्त्वस्य प्रतिपादनम् अर्थात गर्भस्थ शिशु पुत्र रूप में जन्म ले इसलिए पुंसवन संस्कार किया जाता है।
 
कैसे करते हैं पुंसवन संस्कार?
इस संस्कार में एक विशेष औषधि को गर्भवती स्त्री की नासिका के छिद्र से भीतर पहुंचाया जाता है। हालांकि औषधि विशेष ग्रहण करना जरूरी नहीं। विशेष पूजा और मंत्र के माध्यम से भी यह संस्कार किया जाता है। कहते हैं कि तीन माह तक शिशु का लिंग निर्धारण नहीं होता है। इस संस्कार से लिंग को परिवर्तित भी किया जा सकता है।
 
 
जब तीन माह का गर्भ हो, तो लगातार 9 दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री को एक विशेष मंत्र अर्थसहित पढ़कर सुनाया जाता है तथा मन में पुत्र ही होगा ऐसा बार-बार दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण श्रद्धा के साथा संकल्प कराया जाता है, तो पुत्र ही उत्पन्न होता है।

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