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श्रीमद्भागवत गीता और मैनेजमेंट के सिद्धांत

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अनिरुद्ध जोशी

, शुक्रवार, 22 मई 2020 (13:25 IST)
वेदों का तत्व ज्ञान है उपनिषद और उपनिषदों का सार है गीता। भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को जो ज्ञान दिया था वह गीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गीता में जीवन की हर समस्याओं का समाधान है। गीता में हर तरह का ज्ञान है लेकिन आओ जानते हैं मैंनेजमेंट के 7 सिद्धांत।

 
1. निष्काम कर्म करो : 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।2-47॥
भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥
 
यदि आप सफलता चाहते हैं तो कर्म के परिणाम की चिंता छोड़कर बस कर्म पर ही फोकस करना चाहिए। अपना 100 परसेंट अपने लक्ष्य को दो। कर्म पर फोकस करने से सफलता पीछे पीछे स्वत: ही चली आती है। इसलिए कर्म पर ध्यान देना चाहिए, कर्मफल पर नहीं।
 
2. संशय : 
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥4-40॥
भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥
 
किसी पर संदेह करना उचित है लेकिन संशय का अर्थ होता है दुविधा। अनिर्णय की स्थिति। इससे व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है। निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है। कहावत भी है कि दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। अर्जुन को समझ में नहीं आ रहा था कि युद्ध लड़ूं या नहीं। हमारे जीवन का निर्माण हमारे निर्णय ही करते हैं। यदि बुद्धि संशय रहित होगी तो निर्णय सही होंगे या संशययुक्त होगी तो गलत।
 
3. लालसा : 
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥ 16-21 ॥
भावार्थ : काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहां काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥
 
काम अर्थात किसी भी प्रकार की अनावश्यक भोग की इच्छा जिसमें संभोग भी शामिल है। क्रोध अर्थात गुस्सा, रोष, आवेश, तनाव, नाराजगी, द्वेष आदि प्रवृत्ति। लोभ अर्थात लालच, लालसा, तृष्णा आदि। बहुत से ज्योतिष, संत, कंपनियां या दूसरे धर्म के लोग लोगों को लालच में डालने के लिए प्रलोभन, गिफ्ट, इनाम आदि देते हैं। स्वर्ग, जन्नत का भी लालच दिया जाता है। लालच में फंसकर व्यक्ति अपने कुल का नाश कर लेता है और अपने साथियों को भी डूबो देता है।
 
4.एकनिष्ठ बनो : 
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ 7-15॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥23॥
भावार्थ : माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते॥....परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥
 
आजकल बहुत से लोग काल्पनिक देवी और देवताओं की पूजा करते हैं। कुछ तो अपने गुरु की ही पूजा और भक्ति करते हैं। बहुत से लोग किसी समाधि, वृक्ष, गाय, दरगाह, बाबा आदि की भी पूजा या प्रार्थना करते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों की पूजा या प्रार्थना का फल नाशवान है। लेकिन जो उस एक परम तत्व को मानते हैं उसे वे किसी भी रूप में भजे अंत में उसी को प्राप्त होते हैं और उनका कर्म कभी निष्फल नहीं होता।
 
एकनिष्ठ बनने से व्यक्ति के विचारों एकरूपता और दृढ़ता आती है और वह भयरहित होकर निर्णय लेता है। ऐसा ही व्यक्ति लोगों का लीडर भी बनने की योग्यता रखता है।
 
5.निराशा को छोड़ो :
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥2-14॥
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥2-15॥
भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर॥... क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥
 
संसार में सबकुछ आने जाने वाला और परिवर्तनशील है। सुख-दु:ख, हार-जीत, जीना मरना आदि सभी कुछ चलता रहेगा यह सोचकर मन में कभी भी निराशा का भाव नहीं लाना चाहिए। निराशा, हताशा और उदासी व्यक्ति के जीवन को नष्ट कर देती है। जीवन में उतार चढ़ाव तो जीवन का स्वभाव है। इस उतार चढ़ाव को उत्साह से पार करें। उत्साह ही सफलता का राज है।
 
6. समय का महत्व : 
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा॥32॥
 
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किसी भी कार्य को ठीक समय पर करने से ही उस कार्य का महत्व है। गीता में काल और परिस्थिति का विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि अर्जुन उस समय युद्ध नहीं लड़ता तो भी ये सभी तो मारे जाने वाले थे आज नहीं कल कभी भी। लेकिन यदि अर्जुन नहीं मारता तो अपयश को प्राप्त होता और संसार में उसकी कीर्ती भी नहीं होती। जब सामने युद्ध खड़ा हो तो युद्ध करना चाहिए। ऐसा ही जब जीवन में जो भी अवसर सामने खड़ा हो तो उसको भूना लेना चाहिए। वर्ना तो उस अवसार का नाश ही होने वाला है या उस अवसार को कोई और प्राप्त करने वाला होगा।

अंत मेें आज के युग में किसी भी कंपनी में कृष्ण रूपी सीईओ, धर्मराज युधिष्ठिर की भांति कानूनी सलाहकार, अर्जुन के समान रणनीतिकार और वित्तीय प्रबंधक, भीम के समान कार्यबल हो तथा नकुल एवं सहदेव की तरह मार्केटिंग प्रबंधक होने चाहिए। 

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