निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 29 सितंबर के 150वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 150 ) में यह सुनकर माता पार्वती शिवजी से कहती हैं- प्रभु ये संजय कैसी उलझी-उलझी बातें कर रहा है जो उसके मन में है उसे स्पष्ट रूप से क्यों नहीं कहता? तब शिवजी कहते हैं- देवी संजय ईश्वर पर आस्था रखता है। वह भगवान श्रीकृष्ण का भक्त है और दूसरी ओर वह महाराज धृतराष्ट्र का सेवक भी है। इसलिए उसे अपनी भक्ति और अपना सेवा धर्म दोनों ही निभाना पड़ रहा है। ना तो वह अपने भगवान के प्रभुत्व के विरूद्ध कुछ कह सकता है और ना अपने स्वामी महाराज धृतराष्ट्र की इच्छा के विरूद्ध। इसलिए वह खुलकर कुछ कहना नहीं चाहता।
यह सुनकर माता पार्वती कहती हैं- इस दुविधा के होते हुए भी संजय ने बड़ी चतुराई से बड़ी सच बात कह दी कि भगवान के दर्शन के लिए तन से कहीं अधिक मन की आंखों की आवश्यकता होती है और महाराज धृतराष्ट्र तन और मन दोनों आंखों से अंधे हैं। उधर, धृतराष्ट्र कहते हैं कि संजय तुम्हारी बातें भी श्रीकृष्ण की बातों की तरह गोलमोल है। मेरी समझ में नहीं आती, तुम मुझे बताओ की इस समय कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है।
श्रीकृष्ण युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान दे रहे हैं। सांख्य योग दर्शन के अंतर्गत वे बता रहे हैं कि प्राणी यदि अपने अंतर में झांके तो उसे आत्मा के अंदर परमात्मा का प्रकाश स्पष्ट दिखाई देगा। उसीको परमात्मा का साक्षात्कार कहते हैं। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तुम तो कहते हो की अपने अंतर में झांककर आत्मा को और उस आत्मा में प्रकाशित परमात्मा को पहचानो अर्थात आत्मा से अलग कोई और है जो आत्मा को पहचानेगा। ये किसको कह रहे हो की आत्मा को पहचानो? कौन पहचानेगा आत्मा को? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारा मन। यह सुनकर अर्जुन कहता है- परंतु तुम तो कहते हो कि मन मायाजाल में फंसाकर प्राणी को बहुत नाच नचाता है। फिर वह आत्मा और परामात्मा की ओर क्यूं ले जाएगा?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तुमने ठीक प्रश्न किया अर्जुन। इसका उत्तर ये है कि जब तक तुम अपने आपको मन और विषयों के आधीन रहने दोगे। तब तक वह तुम्हें नाच नचाता रहेगा। हे पार्थ! मनुष्य का शरीर एक रथ की भांति है। उस रथ के जो घोड़े हैं उन्हें मनुष्य की इंद्रिया समझो। जैसे आंख, नाक, कान, मुख, जिव्हा आदि। इन इंद्रियों के घोड़ों को जो सारथी चलाता है वह सारथी ही मन है और उस रथ में बैठा हुआ जो उस रथ का स्वामी है वही आत्मा है। मनुष्य की इंद्रिया अपने विषयों की ओर आकर्षित होती रहती हैं और उसका मन इंद्रियों को उनके विषयों की ओर ही दौड़ाता रहता है। यह तभी तक हो सकता है जब तक जीवात्मा अपने मन को अपने काबू में ना लाएं। तब तक मन काबू मैं नहीं आएगा वह इंद्रियों को उनके विषयों की ओर ही दौड़ाता रहेगा। विषय उनको बुलाते हैं और इंद्रियां उनकी ओर भागती हैं और मन जीवात्मा की परवाह किए बगैर रथ को उस ओर लिए जाता है। परंतु जब तुम स्वयं अपने मन के आधीन न रहकर मन को अपने आधीन कर लोगे तो वही मन एक अच्छे सारथी की तरह तुम्हारे शरीररूपी रथ को सीधे प्रभु के चरणों में ले जाएगा। जब तक तुम मन के अधीन हो तो वह माया के फेर में ले जाएगा और जब तुम उसके स्वामी बन जाओगे तो वही मन तुम्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे मधुसुदन! ये कहना तो बहुत आसान है कि तुम मन पर काबू पालो, उसके स्वामी बन जाओ परंतु यही तो दुष्कर कार्य है। हे केशव! मन तो वायु की तरह चंचल है। जिस प्रकार बहती हुई वायु पर काबू पाना असंभव है उसी प्रकार इस चंचल मन को अपने आधीन करना अति दुष्कर कार्य है।
इस तरह श्रीकृष्ण बताते हैं कि मन को अधीन करना दुष्कर कार्य नहीं और ना ही असंभव कार्य है। इसके काबू में करने का तरीका भी है। तब श्रीकृष्ण मन को काबू में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य के महत्व को बताते हैं। गीता के इस ज्ञान को जानने के लिए आगे क्लिक करें...
श्रीमद्भगवद्गीता
यह सुनकर माता पार्वती शिवजी से कहती हैं- प्रभु विषयों का आभास तो मनुष्य को इंद्रियों के माध्यम से ही होता और भगवान श्रीकृष्ण तो विषयों के मोह को त्यागने को कह रहे हैं तो क्या मनुष्य इंद्रियों का प्रयोग करना ही छोड़ दें। फिर शिवजी इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से देते हैं।
फिर श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रश्नों का उत्तर देते हैं और बताते हैं कि इस जन्म से पहले और इस जन्म के बाद इन रिश्तों का कोई महत्व नहीं रहता है। इसलिए कहता हूं कि जब शरीर नाशवान है तो ये रिश्ते भी नाशवान है। फिर श्रीकृष्ण बताते हैं कि तुम्हारे पिताश्री इस समय जिस भी जन्म में होंगे उनके लिए तुम्हारा रिश्ता समाप्त हो चुका है। पिता की बात छोड़ों अपनी बात करो, पिछले जन्म में जब तुम्हारी मृत्यु हुई होगी उस समय तुम्हारे सब संबंध और रिश्तेदार रोएं होंगे। तुम्हारी पत्नी ने और तुम्हारे पुत्रों ने बहुत विलाप किया होगा। परंतु आज इस जन्म में तुम्हें याद भी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु पर किस-किस ने विलाप किया था। आज तुम्हारे लिए उनका या उनके रोने-धोने का कोई मोल नहीं। इसलिए समझा रहा हूं कि ना किसी के मरने का शोक करो और ना किसी के साथ नाता टूटने का दु:ख करो। जिन्हें तू समझता है कि तेरी मृत्यु के बाद वे शोक करेंगे और सारा जीवन रोते रहेंगे वो भी असत्य है। मेरी माया के प्रभाव से उन रोने वालों को तू फिर से हंसता-खेलता देखेगा। मित्र चार दिन रोता है, भाई 10 दिन रोता है, पत्नी उससे अधिक रोती है। माता सबसे अधिक समय तक रोती है परंतु सबके आंसू धीरे-धीरे सुख जाते हैं और उन आंखों में फिर से नए-नए सपनों की रोशनी चमकने लगती है। हे अर्जुन! क्या तुम बता सकते हो कि पिछले जन्म में तुम्हारे किस रिश्तेदार ने तुम्हारे लिए कितना विलाप किया था?
यह सुनकर अर्जुन कहता है- नहीं केशव ये मैं कैसे बता सकता हूं। मुझे तो ये तक याद नहीं की वो सब कौन थे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- बस जिस तरह तुम अपने पिछले जन्म को भूल गए हो उसी तरह तुम अपने इस जन्म को भी भूल जाओगे। इस जन्म के रिश्तों का अर्थ तुम्हारे आने वाले जन्म में कुछ भी नहीं रह जाएगा। आज अभिमन्यु को अपना पुत्र समझ रहे हो, हो सकता है कि पिछले जन्म में वह तुम्हारा पिता रहा हो या आने वाले जन्म में तुम्हारा महाशस्त्रु बन जाए। आज तुम जिनको अपना रिश्तेदार समझ रहे हो, जिन्हें आदरणीय समझ रहे हो और इसी कारण उनकी हत्या करने से संकोच कर रहे हो, हो सकता है कि उन्हीं में से किसी ने तुम्हारे किसी पिछले जन्म में तुम्हारी हत्या की हो या तुम अगले जन्म में उनकी हत्या कर दो। हे अर्जुन! ये रिश्ते शरीर के साथ ही जन्मते हैं और शरीर की मृत्यु के साथ ही मर जाते हैं। इसलिए इन रिश्ते-नाते के चक्रव्यूह से बाहर आ जाओ। आत्मा अमर है और इस अमर सत्य को पहचानो। रिश्ते तो बदलते रहते हैं।
संजय से यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं- संजय ऐसे ही लोग होते हैं जो परिवारों में फूट डाल देते हैं। भाई को भाई से अलग कर देते हैं। अखंड परिवार में दुश्मनी के बीज बो देते हैं। ये कृष्ण तो बातों का धनी है। बचपन में माखन खा-खाकर इसकी बातें भी चिकनी-चुपड़ी हो गई है। लगता है ये अर्जुन को रिश्तेदारी के मोह से निकालकर ही छोड़ेगा।
यह सुनकर संजय कहता है- महाराज बातें सच्ची हो तो मनुष्य उसे तुरंत मान लेता है। श्रीकृष्ण की बातें सच्ची हैं तभी तो दिल को भांति है। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं- भांति हैं, अरे मेरे दिल में तो तीर की तरह चुभ रही है उसकी बातें। मैं तो खुश था कि कृष्ण इस युद्ध में हथियार नहीं उठाएगा परंतु अब पता चला कि उसका शस्त्र ही उसकी भयंकर जीभ है और वह इस शस्त्र का बेधड़क प्रयोग कर रहा है और कोई कुछ नहीं कर सकता। अब बताओ उसकी जीभ कौन-से अंगारे बरसा रही है।
श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! इसलिए तुम्हें ना रिश्तों का मोह करना चाहिये और ना रिश्तों के टूटने का शोक करना चाहिए। यही सांख्य योग का ज्ञान है कि मनुष्य को एक संन्यासी की भांति सोचना चाहिए। ये सब रिश्ते-नाते मोह को उत्पन्न करते हैं और मोह इन रिश्ते नातों को इतनी जोर से पकड़ लेता है कि जैसे एक लोभी पुरुष डूबते हुए भी धन की गठरी को नहीं छोड़ता है और आखिर में उसकी गठरी के बोझ से खुद भी डूब जाता है। इसलिए अपने मन को संन्यासी बनाओ, मोह को छोड़ो और इस बात पर ध्यान दो कि इस समय तुम्हारा कर्तव्य क्या है, तुम्हारा धर्म क्या है और उसी के अनुसार कर्म करो।
यह सुनककर देवी पार्वती कहती हैं- प्रभु श्रीकृष्ण एक ओर तो कह रहे हैं कि ये रिश्ते-नाते सब व्यर्थ हैं इनका मोह त्याग दो, इन बंधनों से मुक्त हो जाओ और दूसरी ओर वे अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा दे रहे हैं। उसे सगे-संबंधियों के विरूद्ध हथियार उठाने को कह रहे हैं और उनकी हत्या करने को कह रहे हैं। एक ओर वे संन्यासी होने का कह रहे हैं और दूसरी ओर युद्ध करने का कह रहे हैं ये कैसा परस्पर विरोधी विचार हैं? संन्यासी हो जाए तो युद्ध क्यों करें और युद्ध करे तो संन्यासी कहां रहा? यह सुनकर शिवजी इस बात को विस्तार से बताते हैं, परंतु पार्वतीजी कई तरह के उत्तर पर पु:न प्रश्न करती हैं। तब शिवजी सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं। अंत में श्रीकृष्ण को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करके कहते हैं कि वे संन्यासी होकर भी युद्ध करते रहे हैं। कभी हारे और कभी जीते परंतु उनके चेहरे पर वही मुस्कान और वही शांति बनी रही। उन्होंने कर्म करते हुए भी लाभ-हानि और परिणाम की कभी चिंता नहीं की।
अर्जुन कहता है- हे केशव एक तरफ तुम संन्यासी की भांति रहने को कह रहे हो और दूसरी ओर सब रिश्ते-नाते को तोड़कर कर्म करने को कह रहे हो। ये दोनों बातें विरोधी हैं। तुम जानते हो कि मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उस कर्म का कोई कारण होता है, कोई प्रेरक होता है जिसकी प्रेरणा से मनुष्य कर्म करता है। कोई भावना तो होती है जिस भावना की पूर्ति के लिए मनुष्य अच्छा या बुरा कोई भी कर्म करता है। अर्थात कर्म की जड़ में एक भावना होती है और भावना की जड़ में कोई ना कोई रिश्ता होता है। क्योंकि किसी ना किसी रिश्ते की जड़ से ही तो भावना पैदा होती है। इसलिए यदि मनुष्य सारे रिश्ते तोड़ देगा और भावना को त्याग देगा तो फिर वह कर्म किसके लिए करेगा?..
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म के लिए। यह सुनकर अर्जुन कहता है- धर्म के लिए? अर्थात अपने धर्म के लिए भावना की आवश्यकता नहीं होती? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं धर्म के लिए भावना की नहीं, अपने कर्तव्य के ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह सुनकर शिवजी कहते हैं- वाह प्रभु वाह।