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Shri Krishna 11 June Episode 40 : कंस का वध हुआ तब कृष्ण ने राजा बनना अस्वीकार किया

हमें फॉलो करें Shri Krishna 11 June Episode 40 : कंस का वध हुआ तब कृष्ण ने राजा बनना अस्वीकार किया

अनिरुद्ध जोशी

, गुरुवार, 11 जून 2020 (22:06 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 11 जून के 40वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 40 ) में श्रीकृष्ण अकेले ही अखाड़े में उतर जाते हैं। कंस यह देखकर मुस्कुरा देता है। एक पहलवान श्रीकृष्ण के हाथ पकड़ लेता है तो कृष्ण उसे उठाकर नीचे पटक देते हैं। यह देखकर दूसरा पहलवान कृष्ण की ओर लपकता है और उनसे युद्ध करने लगता है। यह देखकर बलरामजी भी अखाड़े में उतरकर पहलवानों से युद्ध करने लगते हैं। फिर दोनों भाई मिलकर चार में से दोनों पहलवानों को उठा-उठाकर पटकने लगते हैं। यह देखकर नंदबाबा और अक्रूरजी सहित सभी जनता में हर्ष व्याप्त हो जाता है। कृष्‍ण और बलराम दोनों पहलवानों का वध कर देते हैं। कंस और चाणूर ये देखकर घबरा जाते हैं।
 
 
यह देखकर दूसरे दो बचे पहलवान भी हमला कर देते हैं। दोनों भाई मिलकर उन दोनों पहलवानों का भी वध कर देते हैं। फिर कृष्‍ण क्रोधित होकर कंस की ओर देखते हैं। दोनों भाई मिलकर चारों का वध करके अखाड़े में छाती तानकर खड़े हो जाते हैं। 

रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
यह देखकर कंस खड़ा होकर अपने सैनिकों से कहता है देखते क्या हो। इन दोनों के टूकड़े-टूकड़े कर दो। यह सुन और देखकर अक्रूजी हरहर महादेव कहते हुए अपनी तलवार निकाल कर लहराते हैं। वहां अफरा-तफरी मच जाती है। युद्ध शुरू हो जाता है। यह देखकर श्रीकृष्ण दौड़ते हुए कंस के पास पहुंच जाते हैं और उसे ललकारते हैं। 
 
उधर, बलरामजी चाणूर से युद्ध करने लग जाते हैं। मंच के नीचे सभी यादव वीर कंस के सैनिकों से युद्ध करते रहते हैं।
 
कंस कहता है अच्छा हुआ तू स्वयं ही मेरे सामने आ गया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं हम तो सदा से तेरे सामने थे कंस, केवल तुमने हमें पहचाना नहीं। हमनें तुझे बार-बार अपनी शरण में आने का अवसर प्रदान किया। अब तेरे पापों का घड़ा भर गया है कंस। ये तेरा अंतिम समय है। अभ भी फेंक दें अपनी ये खड़ग और हमारी शरण में आ जा। हम तुझे क्षमा कर देंगे कंस। यह सुनकर कंस कहता है, मूर्ख बालक कंस मर सकता है मगर झुक नहीं सकता।

 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं अच्‍छी बात है तो अब मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ कंस।..इसके बाद श्रीकृष्‍ण पर वह खड़ग से वार करता है तो कृष्ण उसकी खड़ग पकड़कर उसके हाथ से छुड़ाकर उसे दूर फेंक देते हैं। उसका मुकुट भी गिर पड़ता है। फिर श्रीकृष्‍ण कंस को मारते और पटकते हुए मंच के नीचे ले जाते हैं। नीचे वे उसकी छाती पर चढ़कर उस पर मुक्के से वार करते हैं। फिर वे उसे पकड़कर उठाते हैं और मारते हुए अखाड़े के बीचोंबीच ले आते हैं। इस बीच अक्रूरजी के हाथों कंस के कई सैनिक और सैन्य प्रधान मारे जाते हैं और दूसरी ओर बलरामजी चाणूर का वध कर देते हैं।
 
अखाड़े में कंस को श्रीकृष्ण पटक-पटक कर मारते हैं और फिर उसे हवा में उछाल देते हैं। सभी ये दृश्य देखने लग जाते हैं और युद्ध रुक जाता है। लहूलुहान कंस उछलता हुए मंच की सीढ़ियों पर जा गिरता है। श्रीकृष्ण दौड़ते हुए वहां पहुंचते हैं और फिर अपनी दोनों मुठ्ठी बंद करके उसकी छाती पर वार करते हैं। कंस के मुंह से रक्त बहने लगता है और वह फिर श्रीकृष्ण को देखने लगता है तो उसे भगवान विष्णु नजर आते हैं और तभी वह अपने प्राण छोड़ देता है।
 
यह दृश्य देखकर सभी अचंभित और हर्षित हो जाते हैं। कुछ देर तक सन्नाटा छा जाता है। सभी श्रीकृष्ण की ओर हाथ जोड़े खड़े हो जाते हैं। आकाश में नृत्यगान प्रारंभ हो जाता है। फिर कंस की आत्मा निकलकर श्रीकृष्ण के चरणों में समा जाती है। देवता लोग श्रीकृष्ण पर फूल बरसाते हैं।
 
फिर नगर में श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत होता है और उनकी जय जयकार होती है। सभी और गुंजने लगता है राजकुमार कृष्ण की जय, राजकुमार कृष्ण की जय। यह गुंज कारागार में बैठे देवकी और वसुदेव को सुनाई देती है तो उनके मन में प्रसन्नता छा जाती है। वे सुनते हैं कि ये गुंज हमारी नजदीक आ रही है। एकदम कारागार के नजदीक। कारागार के द्वार खुल जाते हैं सभी सैनिक कृष्ण और बलराम के समक्ष झुक जाते हैं।
 
श्रीकृष्‍ण कारागार में प्रवेश करते हैं तो सभी सैनिक उनकी जय-जयकार करते हुए भूमि पर लेट जाते हैं। सभी को आशीर्वाद देते हुए कृष्ण आगे बढ़ते हैं। देवकी और वसुदेवजी ये जयकार सुनकर अपने हृदय पर हाथ रखकर प्रसन्नचित होने लगते हैं। अंत में श्रीकृष्‍ण आशीर्वाद मुद्रा में उस कक्ष के द्वार पर पहुंचते हैं जहां देवकी और वसुदेवजी कैद रहते हैं। एक सैनिक उनके द्वार पर पहुंचने के पहले ही द्वार खोलता है तो देवकी और वसुदेवजी उठ खड़े होते हैं और द्वार की ओर देखने लगते हैं।
 
जैसे ही श्रीकृष्ण भीतर प्रवेश करते हैं तो सबसे पहले दोनों की आंखें हर्षित हो श्रीकृष्ण के चरणों पर पड़ती है और फिर उनकी नजरें ऊपर उठते हुए श्रीकृष्ण के मुखमंडल पर पहुंच जाती है।
 देवकी उन्हें देखकर रोने लगती हैं। श्रीकृष्ण की आंखों में भी आंसू झलक पड़ते हैं। वसुदेवजी भी खुशी से रोने लगते हैं। दोनों के हाथ और पैरों में बंधी हथकड़ी को देखकर बलराम और श्रीकृष्ण की आंखों में से आंसू झरझर बहने लगते हैं। देवकी उनको गले लगाने के लिए दोनों हाथ फैलाती हैं लेकिन श्रीकृष्ण रोते हुए उनके चरणों में गिर पड़ते हैं और उनके चरण पकड़ लेते हैं।
 
फिर देवकी उन्हें उठाती है तो वे घुटनों के बल हाथ जोड़कर खड़े होते हैं और फिर नंदबाब की ओर देखते हुए उनके चरणों में लेटे जाते हैं। उधर फिर देवकी बलराम को देखकर उसे बुलाती है तो बलरामजी भी आकर उनके चरणों में गिर जाते हैं। फिर श्रीकृष्‍ण माता के गले लगते हैं तो उधर बलरामजी वसुदेवजी के चरणों में नमन करते हैं। बलरामजी को वसुदेवजी गले लगा लेते हैं। 
 
फिर श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर कहते हैं कि मेरे कारण आप दोनों ने कितने दु:ख उठाए, इसके लिए मुझे क्षमा करना मैया। मुझे क्षमा करना पिताश्री। मैं इतने वर्षों तक आपकी कोई सेवा नहीं कर सका। लोग पुत्र पाते हैं तो बाल्यावस्‍था से लेकर किशोरावस्था तक उसकी बाल्य लीला का आनंद प्राप्त करते हैं। परंतु मेरी विवशता ने मुझे आपके चरणों से दूर कर दिया था। इसलिए मैं तो आपको वो सुख भी न दे सका। परंतु मैं भी तो तेरे लाड़-प्यार से वंचित रह गया मैया। मेरी भी बहुत हानि हुई है। यह सुनकर वसुदेवजी कहते हैं इसका दोषी मैं हूं पुत्र। मैं ही तुझे यहां से उठाकर दूसरे स्थान पर छोड़ आया। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि ये तो माया की विधान था जिसके कारण आपको पुत्र सुख का भी बलिदान करना पड़ा। वास्तव में दोषी तो मैं हूं जो इतने वर्षों तक अपने पुत्र धर्म को न निभा सका। उसके लिए आप हमें क्षमा कर देना। यह सुनकर वसुदेवजी कहते हैं क्षमा कैसे, अरे पुत्र रूप में तुम्हें पाकर तो हमारा ये जीवन धन्य हो गया। 
 
तभी वहां अक्रूरजी और नंदबाबा पहुंच जाते हैं। वसुदेवजी उन्हें देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। नंदबाबा और वसुदेवजी दोनों गले मिलते हैं। फिर नंदबाबा देवकी मैया को प्राणाम करते हुए कहते हैं, देवकी भाभी और कुमार वसुदेव आज, आज मैं आपको आपकी दोनों धरोहरें आपको सौंप रहा हूं। मुझे केवल इतना कहना है यदि इन दोनों के लालन-पालन में हमसे कोई भूल हो गई हो तो गांववाला समझकर हमें क्षमा कर देना।
 
यह सुनकर वसुदेवजी की आंखों में आंसू आ जाते हैं और देवकी माता कहती हैं, ये आप क्या कह रहे हैं नंद भैया। आपने इन दोनों की रक्षा करके जो कार्य किया है उसका ऋण हम जीवनभर नहीं उतार सकते। फिर नंदबाबा कहते हैं कि आते समय यशोदा ने मुझसे कहा कि था कि देवकी भाभी से कहना कि आपके लाल कि एक धाय समझकर उसकी सारी भूलों को क्षमा कर देना। यह सुनकर वसुदेवजी फिर से रोने लगते हैं। तब देवकी कहती हैं नहीं भैया, यशोदा धाय नहीं हैं। इतिहास में युगों तक लोग यशोदा को ही कृष्‍ण की मां कहेंगे। वही मेरे कृष्‍ण की असली मां है और सदा रहेगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण की आंखों में आंसू आ जाते हैं।
 
फिर अक्रूरजी सैनिकों से कहते हैं कि इनकी बेड़ियां काट दो। सैनिक वसुदेवकी बेड़ियां काटने लगते हैं। फिर बताया जाता है कि श्रीकृष्‍ण उस जगह पहुंचते हैं जहां कंस के पिता उग्रसेनजी कैद रहते हैं। उग्रसेन भी गले से लेकर पैरों तक हथकड़ियों से बंधे होते हैं। वे वहां पहुंचकर उग्रसेन को प्रणाम करके कहते हैं नानाश्री! मेरा प्रणाम स्वीकार करें। तब उग्रसेन पूछते हैं कौन हो तुम? तब श्रीकृष्ण कहते हैं, मैं देवकी माता और वसुदेवजी का पुत्र कृष्‍ण हूं। यह सुनकर उग्रसेनजी प्रसन्नता से उठते हैं और कृष्‍ण के चेहरे को हाथ लगाकर कहते हैं देवकी का पुत्र? मेरी देवकी का पुत्र? कृष्ण हां में गर्दन हिला देते हैं।
 
फिर उग्रसेनजी कहते हैं, नहीं उसका कोई भी पुत्र जीवित नहीं है। एक-एक करके कंस ने सभी को मार दिया है। तभी वहां बलराम के साथ अक्रूरजी आ जाते हैं और कहते हैं परंतु महाराज वह इसे नहीं मार सका। फिर अक्रूरजी हाथ जोड़ते हुए पास आकर कहते हैं, महाराज ये वही देवकी का आठवां पुत्र है जिसके लिए कंस को आकाशवाणी ने चेतावनी दी थी। और वह भविष्‍यवाणी आज सत्य हो गई। महाराज सत्य हो गई। यह सुनकर उग्रसेनजी आश्चर्य चकित होकर कहते हैं, सत्य हो गई, क्या कंस मारा गया? 
 
तब अक्रूरजी कहते हैं हां महाराज। तब उग्रसेनजी क्रोधित होकर कहते हैं किसने मारा उसे? अक्रूरजी कहते हैं राजकुमार कृष्ण ने। उग्रसेनजी कहते हैं कृष्ण ने? क्या कृष्‍ण ने उसे मार दिया? अक्रूरजी कहते हैं हां महाराज। यह सुनकर उग्रसेनजी कहते हैं नहीं, ये ठीक नहीं हुआ। ये तुमने क्या किया कृष्‍ण, ये तुमने क्या किया। उसे मारकर तुमने मुझे मेरे अधिकार से वंचित कर दिया। उसे मृत्युदंड देने का अधिकार केवल मेरा था मेरा। ऐसे महापापी को जन्म देने का पाप मैंने किया था। उसका प्रायश्चित ये था कि उसकी हत्या मैं अपने हाथों से करता। इसी संकल्प को लेकर तो मैं इस घोर अंधकार में जीता रहा हूं। ऐसे जघन्य पापी को मारकर मुझे मुक्ति तो मिल जाती। यह कहकर वे रोने लगते हैं।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं, नानाश्री वास्तव में वह आप ही का मनोबल था जिसकी शक्ति के कारण मैं उसे मार सका। वर्ना मैं एक छोटासा बालक, मुझमें इतनी शक्ति कहां थी नानाश्री। यह सुनकर उग्रसेनजी प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, हां बेटा तेरी रगों में हमारे वंश का रक्त बह रहा है। इसीलिए तुने मेरा कर्तव्य पूरा किया। हमारे वंश ने कभी किसी पापी को क्षमा नहीं किया। तू भी ये बात सदा याद रखना। कंस को मारने के बाद नीति अनुसार अब उसके सिंघासन पर तेरा अधिकार है। राजा बनने के बाद यह बात हमेशा याद रखना की कंस की भांति सभी हत्यारे को कभी क्षमा न करना बेटा। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं परंतु मैं तो उस सिंघासन पर नहीं बैठूंगा नानाश्री। उस सिंघासन पर तो आपका अधिकार है। मथुरा के राजा महाराज उग्रसेन थे, हैं और महाराज उग्रसेन ही मथुरा के राजा रहेंगे। हम तो केवल दासों की भांति आपकी सेवा करते रहेंगे महाराज। यह सुनकर उग्रसेन आंखों में आंसूभरकर प्रसन्न होकर श्रीकृष्‍ण के सिर पर हाथ रख देते हैं। अक्रूरजी भी यह सुनकर हाथ जोड़कर रोने लगते हैं। बलरामजी भी श्रीकृष्ण को नमस्कार करके मन ही मन अपने प्रभु को धन्य मानते हैं। द्वार पर खड़े सभी सैनिक महाराज उग्रसेन की जय-जयकार करने लगते हैं।
 
फिर से महाराज उग्रसेन को राज सिंघासन पर बिठाकर महर्षि गर्ग मुनि उनका अभिषेक करते हैं। सभा में देवकी, वसुदेव, अक्रूजी, नंदबाबा, श्रीकृष्ण, बलराम आदि सभी जन उपस्थित रहते हैं और राज्य में उत्सव प्रारंभ हो जाता है। जय श्रीकृष्‍णा ।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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