निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 24 जून के 53वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 53 ) में श्रीकृष्ण कहते हैं, नहीं गुरुदेव मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता। मैंने वचन दिया है कि प्राण देकर भी मैं अपना वचन पूरा करूंगा तो आज मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि आपका पुत्र तीनों लोकों में जहां भी होगा मैं उसे ढूंढकर आपके पास ले आऊंगा और तभी मैं अपने आपको आचार्य ऋण और गुरु दक्षिणा के उत्तरदायित्व से मुक्त समझूंगा। जब तक मैं आपके पुत्र को वापस न ले आऊं तब तक मैं अपने घर नहीं जाऊंगा। मुझे आशीर्वाद दीजिये की मेरा ये प्रण पुरा हो जाए। फिर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों से आशीर्वाद लेकर वहां से चले जाते हैं।
श्रीकृष्ण और बलराम प्रभाष क्षेत्र में पहुंचकर समुद्र के किनारे खड़ हो जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण अपनी माया से एक धनुष को हाथ में प्राप्त करके उसकी प्रत्यंचा से टंकार करते हैं जिसके चलते समुद्र और आसमान में भूचाल जैसा आ जाता है। फिर समुद्र के भीतर से समुद्रदेव प्रकट होकर कहते हैं जगतपति के श्रीचरणों में प्रणाम। क्या आज्ञा है प्रभु?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं हे रत्नाकर हमारे गुरु महात्मा सांदीपनि का पुत्र पुर्नदत्त तुम्हारे इस प्रभाष क्षेत्र में पर्व स्नान के लिए आया था। यहां से तुम्हारी लहरें उसे बहाकर ले गईं। हमारी आज्ञा है कि पुर्नदत्त जहां भी है उसे तत्काल लाकर हमें वापस कर दो।
तब समुद्रदेव कहते हैं प्रभु पुर्नदत्त मेरे पास नहीं है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं तो फिर कहां है? तब समुद्रदेव कहते हैं भगवन मेरी गहराइयों में पांचजन्य नाम का एक राक्षस रहता है। यह उसी महादैत्य का काम हो सकता है क्योंकि वह प्राय: तट पर स्नान करने वालों को खींच कर समुद्र में ले जाता है और उन्हें खा जाता है। पुर्नदत्त को भी वही खा गया होगा। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं कि वह महादैत्य इस समय कहां है? इस पर समुद्रदेव कहते हैं कि इस समय वह समुद्र तल पर पड़े हुए एक छोटे से शंख के अंदर छिपकर विश्राम कर रहा है। यह सुनकर बलराम कहते हैं छोटे से शंख के अंदर। इस पर समुद्रदेव कहते हैं जी, वह मयावी राक्षस अपने शरीर को छोटा करके उस शंख के अंदर चला जाता है। वही उसका निवास स्थान है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों समुद्र के अंदर चले जाते हैं और बहुत ही गहरे तल में वे उस शंख को खोज लेते हैं। श्रीकृष्ण उस शंख के पास जाकर कहते हैं जागो दैत्यराज और देखो तुम्हारा काल तुमसे मिलने आया है। जब कोई हलचल नहीं होती है तो श्रीकृष्ण अपने धनुष से एक अग्निबाण चलाते हैं। जिसके ताप से विचलित होकर वह दैत्य अट्टाहास करता हुए शंख से बाहर निकलता है और विशालरूप धारण कर लेता है। दोनों को देखकर वह कहता है आज तो कोमल भोजन खाने को मिलेगा।
फिर बलराम को धनुष देकर श्रीकृष्ण भी विशाल रूप धारण कर लेते हैं और फिर दोनों का युद्ध होता है। मार खाने के बाद वह दैत्य भागने लगता है तो श्रीकृष्ण भी उसके पीछे तैरते हुए जाते हैं। वह दैत्य तेजी से तैरता हुआ एक समुद्री सुरंग में घुस जाता है। श्रीकृष्ण भी उसके पीछे रहते हैं। फिर एक जगह जाकर श्रीकृष्ण पीछे से उसकी दोनों टांगे पकड़कर मारते हैं। फिर दोनों में गदा युद्ध होता है। अंत में उसकी गदा गायब हो जाती है तो श्रीकृष्ण उसे अपनी गदा से खूब मारते हैं। वह बुरी तरह घायल होकर नीचे गिर पड़ता है। तब श्रीकृष्ण अपनी गदा को तलवार में बदलकर उस दैत्य के सामने क्रोधित होकर खड़े हो जाते हैं। वह दैत्य भयभीत हो जाता है। श्रीकृष्ण उसके दो टूकड़े कर देते हैं।
तभी वहां बलराम भी आ जाते हैं। यह देखकर बलराम कहते हैं इसके पेट में तो पुर्नदत्त की हड्डियां भी नहीं है। इसे व्यर्थ ही मारा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं व्यर्थ ही नहीं। वास्तव में इसके उद्धार का समय आ गया था। तब बलराम कहते हैं तो फिर अब क्या? श्रीकृष्ण कहते हैं कुछ नहीं। अब यमराज की राजधानी संयमणि में चलते हैं वहीं पुर्नदत्ता को ढूंढ सकते हैं। बलरामजी कहते हैं हां चलो। तभी श्रीकृष्ण की नजर उस शंख पर जाती है। उसे देखकर वे कहते हैं दाऊ भैया ये शंख कितना सुंदर है। देखें इसकी ध्वनि कैसी है।
फिर श्रीकृष्ण उस शंख को उठाकर बजाते हैं तो सबसे पहले भगवान शंकर सुनते हैं। फिर अन्य देवता श्रीकृष्ण को देखकर उन्हें नमस्कार करते हैं। बलरामजी भी हाथ जोड़कर प्रभु को नमस्कार करते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं आज से यही हमारा शंख होगा। प्रत्येक युद्ध में इसी के साथ हम युद्धघोष करेंगे। इसका नाम पांचजन्य शंख होगा और जहां भी यह शंख बजेगा वहां धर्म की विजयी होगी। चलो अब यमराजजी के पास चलते हैं।
उधर, यमलोक में दरबार में बैठे यमराजजी पदचाप की ध्वनि सुनकर कहते हैं ये किसके पदचाप की ध्वनि है चित्रगुप्त? ऐसा कौन है जिसके बढ़ते हुए चरणों की धमक से यमपुरी की धरती भी कंपायमान हो रही है। फिर क्रोधित होकर यमराजजी कहते हैं ये कौन आ रहा है?
यह सुनकर चित्रगुप्तजी कहते हैं हे यमराज इस क्षण में तो किसी भी प्राणि के आने का कोई उल्लेख नहीं है मेरे खाते में। इसलिए प्रभु जो आ रहा है वह मृत्युलोक का प्राणी नहीं हो सकता, कोई और ही है। यमराज कहते हैं और कौन असुर या सूर? चित्रगुप्त कहते हैं मैं नहीं जानता भगवन।
उधर, यम के द्वार पर श्रीकृष्ण और बलराम पहुंच जाते हैं। द्वार पर यमदूतों का कड़ा पहरा रहता है। वे द्वार के अंदर जाने लगते हैं तो द्वार पाल उन्हें रोककर कहता है कौन हो तुम? जो यमदूत तुम्हें यहां लाए हैं वो कहां हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं हमें कोई यमदूत यहां नहीं लाया। हम स्वयं आए हैं। इस पर यम द्वारपाल कहता है स्वयं आए हो, ये कैसे हो सकता है। तुम इस पार्थिव शरीर के साथ यहां कैसे आ सकते हो? कोई प्राणी अपने जीवित शरीर के साथ यहां तक नहीं पहुंच सकता। केवल मरने के पश्चात ही जीवों को यहां लाया जाता है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं कि परंतु हम तो कभी मरते ही नहीं। इसलिए ऐसे ही आना पड़ा। अब आ गए हैं तो हमें अंदर आने दो। यह सुनकर द्वारपाल क्रोधित होकर कहता है मूर्ख बालकों तुम समझते क्यों नहीं ये यमपुरी है। कोई बच्चों के खेलने का स्थान नहीं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं परंतु हम खेलने नहीं आए हैं हम तो यमराजजी के दर्शन करने आए हैं। यह सुनकर द्वारपाल कहता है केवल मरने के बाद ही जीवों को उनके दर्शन होते हैं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं यदि मरने के बाद ही दर्शन होते हैं तो भैया हमें मार ही डालो। यह सुनकर द्वारपाल आश्चर्य से कहता है परंतु हम तुम्हें नहीं मार सकते। जब तक किसी प्राणी का समय नहीं आ जाता उससे पहले तो यमदूत भी उसे नहीं मार सकते। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं फिर तो समस्या बड़ी गंभीर हो गई। तुम हमें मार नहीं सकते और मरे बिना हम अंदर नहीं जा सकते तो एक काम करो कि यमराजजी से कहो कि वे ही बाहर आ जाएं। क्योंकि हमारा उनसे मिलना परम आवश्यक है।
यह सुनकर द्वारपाल क्रोधित होकर कहता है कैसी असंभव बातें कर रहे हो उन्हें कैसे बुला सकते हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं तो आप उन्हें नहीं बुला सकते? इस पर द्वारपाल कहता है नहीं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं यदि आज्ञा हो तो हम उन्हें बुला लें। यह सुनकर द्वारपाल व्यंगपूर्वक हंसते हुए कहता है बुला लो यदि बुला सकते हो तो। फिर सभी द्वार सैनिक हंसने लगते हैं। बलराम को इस पर क्रोध आता है।
तब श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं अच्छा। फिर वह अपना शंख निकालकर बजाते हैं। इस शंख ध्वनि से यम की धरती हिलने लगती है। द्वारपाल सहित सारे सैनिक खुद को संभालने लगते हैं।
उधर, यम का सिंहासन भी हिलने लगता है। यम क्रोधित होकर पूछते हैं ये कौन है जिसने यमलोक में आकर ऐसी धृष्टता करने का कार्य किया है, उसे हमारे सामने तुरंत उपस्थित किया जाए। तभी वह द्वारपाल आकर कहता है क्षमा करें प्रभु, तरुण अवस्था के दो उदंड बालक जाने किस प्रकार अपने पार्थिव शरीर के साथ ही यमपुरी के मुख्य द्वार पर पहुंच गए हैं। वो हठ कर रहे हैं कि आप स्वयं चलकर उन्हें दर्शन दें। मना करने के बाद उन्होंने किसी मायावी शंख को इस प्रकार फूंकना शुरु किया कि जिससे यमपुरी के मुख्य द्वार से लेकर सारे महल हिलने लगे हैं प्रभु।
यह सुनकर यमराजजी कहते हैं- हूं इसका अर्थ है कि वे दोनों कोई मायावी असुर है जिन्होंने हमारी नगरी पर आक्रमण करने का साहस किया है। उनकी इस धृष्टता का उत्तर हमारा यमदंड उन्हें देगा। फिर यमराजजी के हाथ में यमदंड प्रकट हो जाता है जिसे वे यमपुरी के द्वार पर खड़े दोनों बालकों की ओर फेंक देते हैं।
वह यमदंड शंख बजा रहे प्रभु को मारने का प्रयास करता है लेकिन वह कुछ भी नहीं कर पाता है तो पुन: लौट जाता है और यमराज के सामने जाकर अदृश्य हो जाता है। यह देखकर यमराज कहते हैं यमदंड को शक्तिहिन कर दे, तीनों लोक में ऐसा कौन है? उसे तो स्वयं चलकर देखना पड़ेगा।
फिर यमराज सिंहासन सहित द्वार पर पहुंच जाते हैं। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण शंख बजाने को विराम दे देते हैं। यमराज क्रोधित होकर दोनों को देखते हैं, दोनों मुस्कुरा रहे होते हैं। फिर यमराज को श्रीकृष्ण में भगवान विष्णु नजर आते हैं और बलराम में शेषनाग। यह देखकर उनका क्रोध जाता रहता है और वे हाथ जोड़कर कहते हैं प्रभु आप। फिर यमराजजी सिंहासन से उतरकर प्रभु के समक्ष हाथ जोड़े घुटने के बल खड़े होकर कहते हैं- हे त्रिलोकपति अपने दास की भूल को क्षमा करके इस अकिंचन का नमन स्वीकार करें। इस दास के लिए क्या आज्ञा है प्रभु?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं, हम महामुनि सांदीपनि के पुत्र पुर्नदत्त को आपसे वापस मांगने आए हैं। अपने कर्मानुसार वो जिस लोक में जहां भी हो उसे लाकर हमें दे दो। यही हमारी आज्ञा है। यह सुनकर यमराजजी कहते हैं- हे सर्वशक्तिमान हमारे पास सभी प्राणी जीवात्मा के रूप में ही आते हैं। मैं उसे उसी रूप में वापस कर सकता हूं परंतु उन्हें पार्थिव शरीर प्रदान करने की शक्ति मुझमें नहीं है प्रभु।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं उसकी चिंता तुम न करो। तुम हमें वो जीवात्मा ही लौटा दो। फिर यमराजजी कहते हैं जो आज्ञा प्रभु। फिर यमराजजी के हाथ पर एक ज्योति प्रकट होती है जिसे वे प्रभु को दे देते हैं। फिर श्रीकृष्ण और बलराम पुर्नदत्त की आत्मा को लेकर चले जाते हैं।
उधर, सुदामा गुरुमाता गुरुमाता बोलता हुए दौड़ता हुआ गुरुमाता के पास जाकर खड़ा हो जाता है तो माता कहती है क्या है सुदामा? सुदामा कहता है गुरुमाता कृष्ण आ गया है। यह सुनकर गुरुमाता भावुक होकर कहती है क्या कृष्ण आ गया है? यह सुनकर सांदीपनि भी सुदामा की ओर देखने लगते हैं। तब सुदामा कहता है- हां गुरुमाता उसके साथ आपका पुत्र पुर्नदत्त भी आया है। यह सुनकर गुरुमाता के हाथ से घड़ा छूट पड़ता है और कहती है क्या मेरा पुर्नदत्त आ गया है?सांदीपनि ऋषि यह सुनकर खड़े हो जाते हैं और आश्चर्य से कहते हैं क्या? और दौड़ते हुए सुदामा के पास आकर कहते हैं- क्या कहा पुर्नदत्त आ गया है? सुदामा कहता है- हां गुरुदेव कृष्ण और बलराम के साथ आपका पुत्र भी आया है। यह सुनकर सांदीपनि ऋषि सुदामा को आंखें फाड़कर देखते हैं तभी सुदामा द्वार की ओर संकेत करते हुए कहता है वो देखिये।
सांदीपनि ऋषि आंखें फाड़ते हुए घोर आश्चर्य से आश्रम के द्वार पर देखते हैं। गुरुमाता भी अचंभित हो जाती है। यज्ञ कर रहे सारे शिक्षक और विद्यार्धी खड़े हो जाते हैं। सभी द्वार से भीतर आते हुए कृष्ण, बलराम के बीच चल रहे पुर्नदत्त को देखकर आश्चर्य करते हैं। गुरुमाता की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता है।
सांदीपनि ऋषि की आंखें तो बस फटी की फटी ही रह जाती है वे समझ नहीं पाते हैं कि यह सच है या कल्पना। पुर्नदत्त अपने पिता को देखता है और पिता सांदीपनि उसे देखकर अत्यंत ही भावुक हो जाते हैं। फिर वह अपनी माता को देखता है। गुरुमाता उसे देखकर खुशी के मारे रोने लगती है। तीनों इतने हर्षित हो जाते हैं कि समझ में नहीं आता है कि क्या करें। तभी पुर्नदत्त रोता हुआ अपनी मां के गले लग जाता है। दोनों मां बेटे खूब रोते हैं।
सांदीपनि ऋषि श्रीकृष्ण को देखकर मन ही मन उन्हें धन्यवाद देते हैं। फिर पुर्नदत्त अपने पिता सांदीपनि के पैर छूता है तो पिता उसे गले लगा लेते हैं। सभी इस भावुक दृश्य को देखकर आंखों में आंसू भर लेते हैं। गुरुमाता पुर्नदत्त से पूछती है तू कहां चला गया था पुत्र? पुर्नदत्त कहता है मैं समुद्र में चला गया था। फिर बेहोश हो गया और पता नहीं कहां चला गया। आंखों के सामने कभी अंधेरा और कभी उजाला होता था। फिर जब होश आया तो इन दोनों को देखा। ये लोग मुझे कुछ औषधि पिला रहे थे। इन्होंने कहा कि तुम्हारे माता-पिता ने ही हमें तुम्हें ढूंढने के लिए भेजा है।...अरे निर्मोही इतने वर्षों तुझे मां भी याद नहीं आई?
तभी श्रीकृष्ण कहते हैं, गुरुमाता! गुरुमाता इसे याद कैसे आती गुरुमाता। इसकी तो स्मृति ही खो गई थी। समुद्र में शायद पत्थर से सिर टकराने से ऐसा हो गया होगा। फिर सांदीपनि ऋषि कृष्ण की ओर देखकर पूछते हैं, पर तुम लोगों को ये मिला कैसे?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैंने कहा था न कि ये डूबा नहीं होगा किसी किनारे जा लगा होगा। इसी विश्वास के सहारे समुद्र के किनारे-किनारे बसे नगरों में घुम-घुम का ढूंढते रहे। वहीं, एक नगर में ये मिल गया। सांदीपनि को कुछ समझ में नहीं आता फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक काला सा आदमी था जिसके पास एक काला सा भैंसा था जिसके आंगन में ये रहता था। यह सुनकर सांदीपनि ऋषि श्रीकृष्ण को आश्चर्य और संदेह से देखने लगते हैं।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं, हमें कुछ संदेह हुआ कि वो काला और ये गोरा तो हमने उससे पूछा कि ये लड़का तुम्हारा कौन है? उसने कहा ये मेरा कोई नहीं है। बिचारा खो गया है और इसे अपना पिछला जीवन कुछ याद नहीं। तब हमनें एक वैद्यराज से इसकी चिकित्सा कराई और उसकी औषधि से धीरे-धीरे इसके स्मृति पटल खुलते गए। जब इसे पूरी तरह होश आया तो इसने आपका नाम बताया। बस फिर हम इसे अपने साथ ले आए।
यह सुनकर गुरुमाता श्रीकृष्ण के पास जाकर कहती है कृष्ण मैं नहीं जानती कि तुम्हारे उपकार का बदला कितने जन्मों में चुका पाऊंगी। परंतु तुमने मुझे नया जीवन दिया है। उसके बदले में एक ब्राह्मण स्त्री सिवाय आशीर्वाद के तुम्हें क्या दे सकती हैं। आज में तुम्हें आशीर्वाद देती हूं कि जब तक तुम्हारी माता जीवित रहे तब तक तुम्हारा और तुम्हारी माता का विछोह ना हो।... यह सुनकर श्रीकृष्ण सोच में पड़ जाते हैं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं, गुरुमाता देना ही है तो कोई और आशीर्वाद दो। ये आशीर्वाद मुझे नहीं फलेगा माता। यह सुनकर गुरुमाता कहती हैं क्यूं क्या तुम्हारी माता जीवित नहीं है? तब कृष्ण कहते हैं- हैं बल्कि एक नहीं दो-दो माताएं जीवित हैं। यह सुनकर गुरुमाता कहती हैं दो-दो माताएं। तब कृष्ण कहते हैं हां माता, एक ने मुझे जन्म दिया और दूसरी ने अब तक मुझे पाला। मेरे लिए तो दोनों ही मेरी माताएं हैं। इसलिए एक के पास रहता हूं तो दूसरी से बिछोह हो जाता है और दूसरी के पास रहता हूं तो पहली से बिछोह हो जाता है। इसीलिए मैंने कहा कि कोई और आशीर्वाद दो माता।
यह सुनकर गुरुमाता कहती हैं, अच्छा तो सुनो! यदि मैंने जीवनभर एकाग्रचित्त होकर अनन्यभाव से अपने पति की सेवा की है तो आज, आज में अपनी पति भक्ति का सारा फल तुम्हें प्रदान करती हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। फिर गुरुमाता कहती है और ये आशीर्वाद देती हूं कि जिस प्रकार तुमने मेरा दु:ख दूर किया है उसी प्रकार भगवान सारे सांसार का दु:ख दूर करने की तुम्हें शक्ति प्रदान करें। जिससे ये सारा संसार तुम्हारी पूजा करें और तुम्हारी जय-जयकार करें। यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक होकर माता के चरण स्पर्श करते हैं और कहते हैं- गुरुमाता आज आपसे ये आशीर्वाद पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरा इस धरती पर जन्म लेना अवश्य सफल होगा माता।
यह सुनकर सांदीपनि ऋषि कहते हैं, ऐसा कहना तुम्हारी विनम्रता है कृष्ण। क्योंकि आज तुमने इस मृत बालक को जीवन दान देकर उससे मेरा विश्वास और भी दृढ़ हो गया है कि तुम कोई संसारी मानव नहीं हो। कोई देव पुरुष हो। जिसे किसी भूल के कारण अथवा किसी श्राप के कारण संसार में आना पड़ गया है। हम दोनों पर तुमने जो महान उपकार किया है इसका पूरा बदला तो मैं नहीं चुका सकता। परंतु आज में अपने ईष्टदेव भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना करता हूं कि आज तक मैंने जो नि:श्चलमन से आपकी सेवा की है उसका सारा फल तुम्हें प्रदान करें और यदि तुम पर किसी श्राप की छाया है तो उसका सारा दंड मुझे दिया जाए। मैं प्रसन्नता से उसे स्वीकार करूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक हो जाते हैं और गुरु के चरण पकड़ लेते हैं और कहते हैं- गुरुदेव इतनी उदारता एक पिता अथवा एक गुरु में ही हो सकती है। ऐसे उदार गुरु का शिष्य होना मेरे इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि रहेगी गुरुदेव। जय श्रीकृष्णा।