निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 11 जुलाई के 70वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 70 ) में श्रीकृष्ण की माया से महाराज मुचुकुंद द्वारा कालयवन के भस्म हो जाने के बाद श्रीकृष्ण मुचुकुंद को आशीर्वाद देकर उन्हें बद्रिकावन में तपस्या के लिए जाने के कहते हैं।
इसके बाद रामानंद सागरजी बताते हैं कि भगवान अलग-अलग रूप में धरती पर अवतार क्यों लेते हैं और फिर वे श्रीकृष्ण द्वारा किए गए असुरों के वध के बारे में और अब तक के सफर के बारे में बताते हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण के गीता के ज्ञान के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि गीता के ज्ञान को बताने के लिए हमें महाभारत और पांडवों को भी बताना होगा। फिर वे बताते हैं कि अब यहां से उनकी जीवन कथा राजनीति के मार्ग पर अग्रसर होगी। उन्हें संपूर्ण देश का राजनीतिज्ञ नेतृत्व करना है। उनकी सहायता से पांडव दिग्विजय करेंगे और उस दिग्विजय के पश्चात वे पांडवों से एक राजसूय यज्ञ कराएंगे और उस राजसूय यज्ञ में जब भगवान श्रीकृष्ण की अग्रपूजा की जाएगी उस समय उनके हाथों शिशुपाल का वध होगा। परंतु इससे भी पहले हमें वह कथा बतानी है कि कैसे और क्यूं उन्होंने मथुरा नगरी छोड़कर द्वारिका नाम की नई नगरी बसाई और रातोंरात अपनी योग माया के द्वारा सोते हुए मथुरावासियों को द्वारिका नगरी पहुंचा दिया। वास्तव में उन्होंने द्वारिका नगरी बसाने का निश्चिय इसलिए किया कि कालयवन की मृत्यु होने के पश्चात भी जरासंध ने मथुरा नगरी पर आक्रमण करना नहीं छोड़ा था। कई बार वह मथुरा पर आक्रमण करता रहा, इस बीच श्रीकृष्ण और बलराम भी बड़े हो गए थे। इस आक्रमण से मथुरा और उसके आसपास के लोग दुखी हो गए थे तब श्रीकृष्ण ने मथुरा से चला जाना ही उचित समझा तत्पश्चात श्रीकृष्ण ने देवलोक से भगवान विश्वकर्मा का आह्वान किया।
श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से कहा कि अब हम मथुरा छोड़कर कहीं ओर जाना चाहते हैं। वहां आप हमारे लिए एक ऐसी सुंदर नगरी का निर्माण कीजिये जहां सब सुख और शांति से रह सकें। तब विश्वकर्मा कहते हैं मेरी दृष्टि में ऐसा एक सुंदर स्थान है। श्रीकृष्ण पूछते हैं कहां? तब विश्वकर्मा बताते हैं कि पश्चिम प्रभाष क्षेत्र के पास समुद्र तट के निकट एक छोटासा द्वीप है प्रभु। वहां उत्तमपुरी का निर्माण हो सकता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छी बात है वहां जाइये और जाकर समुद्र देवता से कहिये की हम वहां पर अपनी राजधानी के नाम पर द्वारिका नगरी का निर्माण करना चाहते हैं। विश्वकर्मा चले जाते हैं।
भगवान विश्वकर्मा समुद्र के किनारे जाकर समुद्रदेव रत्नाकर से कहते हैं कि मैं प्रभु श्रीहरि की आज्ञा से यहां एक नगरी का निर्माण करता चाहता हूं। अत: आप अपने जल को हटाकर कुछ भूमि मुझे प्रदान करें। प्रभु ने कहा कि इस धरती पर जब उनकी लीला समाप्त हो जाएगी तो आपको आपकी यह भूमि पुन: लौटा दी जाएगी।...समुद्रदेव कहते हैं जो आज्ञा प्रभु। यह कहकर समुद्रदेव अपने जल को समेट लेते हैं जिसमें से कुछ भूमि ऊपर दिखाई देने लगती है।
फिर विश्वकर्माजी उस भूमि पर बैठकर मंगलवचन 'सर्वमंगल मांगल्ये' का गान करते हैं। उनकी स्तुति सुनकर माता दुर्गा प्रकट होती हैं और कहती हैं- मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूं वर मागों क्या इच्छा है वत्स। तब विश्वकर्माजी कहते हैं- हे माता संसार का कोई भी प्राणी छोटा या बड़ा कार्य करना चाहे तो केवल शक्ति के द्वारा ही कर सकता है। हे माता मैं भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से उनके लिए एक नगर का निर्माण करने जा रहा हूं और ये कार्य आपकी कृपा के बिना कैसे हो सकता है। इसलिए हे माता मेरे मन में रचनात्मक शक्ति का संचार करो और मुझे अपना बालक जानकर अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा मेरे मन में द्वारिका का एक ऐसा चित्र अंकित कर दो जिसे देखकर प्रभु प्रसन्न हो जाएं और माता मेरा कार्य सफल हो जाए। हे माता कल्पना शक्ति भेजो माता। यह सुनकर माता कहती हैं..तथास्तु।
विश्वकर्मा के मस्तिष्क पटल पर द्वारिका के चित्र उभरने लगते हैं और अंतत: संपूर्ण द्वारिका नगरी का खाका मस्तिष्क में उभरकर बैठ जाता है। इसके बाद विश्वकर्मा को एक कल्पित सुंदर और भव्य द्वारिका नगर में खड़ा हुआ बताया जाता है। तभी वहां देवराज इंद्र प्रकट होकर कहते हैं कि आप बड़े भाग्यशाली है जो प्रभु के घर का निर्माण करने जा रहे हैं। हमें भी आप इस महान कार्य में अवसर प्रदान करें। यह सुनकर विश्वकर्मा कहते हैं कहिये आपकी क्या इच्छा है? तब देवराज इंद्र कहते हैं कि हमारी अमरावती में जिस सभाग्रह में देवताओं की सभा होती है उस सभा में जब तक बैठे रहे तब तक प्राणी को न भूख प्यास सताती है, न बुढ़ापा आता है और न ही मृत्युलोक का कोई नियम वहां लागू होता है। हमारी परम कामना है कि स्वर्गलोक की उस सुधर्मा सभा को प्रभु की सेवा के लिए द्वारिका में स्थापित करें। इसलिए हम अपनी सुधर्मा साभ के भवनों को स्वर्ग से अपने साथ ही उठा लाएं हैं।
आकाश में उस सुधर्मा सभा को देखकर विश्वकर्मा कहते हैं देवराज जैसी आपकी आज्ञा। मैं इसको द्वारिका के मध्य में स्थापित कर दूंगा।...इसी तरह कुबेर अक्षय पात्र लेकर उपस्थित होकर कहते हैं कि इस द्वारिका के आकाश में रखने आएं हैं जिससे द्वारिका में रहने वाले लोगों के घर में कभी किसी वस्तु अथवा संपदा की कमी नहीं रहेगी।
फिर विश्वकर्मा श्रीकृष्ण को बताते हैं कि आपके आशीर्वाद से और देवी भगवती के शक्ति के बल पर द्वारिका नगरी का निर्माण कार्य सफल हो गया। समस्त देवताओं ने अपने-अपने सामर्थ अनुसार कुछ न कुछ दिव्य पदार्थ आपने श्रीचरणों में भेंट किए हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे विश्वकार्म हम आपनी सेवा से अति प्रसन्न हुए हैं। जब तक इस धरा पर द्वारिका नगरी का नाम रहेगा। तब तक इस धरती के समस्त शिल्पी आपको अपना भगवान मानकर आपकी पूजा करेंगे। अब हम अपने मथुरावासियों को आज ही द्वारिका भेज देंगे। यह सुनकर विश्वकर्मा कहते हैं क्षमा करेंगे प्रभु परंतु मथुरावासियों को शत्रुओं ने चारों ओर से घेर रखा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसकी चिंता आप न करें। मथुरावासी भी चलें जाएंगे और घेरा भी वहीं रहेगा।
फिर बलराम के साथ बैठे श्रीकृष्ण अक्रूरजी को बताते हैं कि अब वह समय आ गया है कि जब हम मथुरा का त्याग कर दें। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं प्रभु यह बात तो आप पहले भी कह चुके हैं परंतु आपने यह नहीं बताया कि यहां से निकलकर जाएंगे कहां? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस नगरी में जाना है उसका निर्माण हो चुका है। इस पर अक्रूरजी कहते हैं परंतु यहां से निकलेंगे कैसे? इस नगर को तो शत्रुओं ने चारों ओर से घेर रखा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यहां से निकलने का प्रबंध भी हो जाएगा। उसकी चिंता आप ना करें। जो भी हमारे आश्रित होगा उसके योगक्षेम का प्रबंध हमारे जिम्मे होगा।
उधर, शल्य की सेना और यवन सेना के बीच खड़ा जरासंध कहता है कि इस बार हम युद्ध नहीं करेंगे बल्कि इस नगरी को भूखा मार देंगे। यवन की सेना मथुरा को पश्चिम की ओर से घेर लें। मगध की सेना उत्तर की ओर, महाराज शल्य पूर्व की ओर शिशुपाल आप मथुरा को दक्षिण की ओर से घेर लें। घेरा इतना मजबूत हो कि मथुरा के चारों मार्ग बंद हो जाएं। न कोई अंदर आ सके और न कोई बाहर निकल सकें। इस बात का पूरा ध्यान रहे कि बाहर से अनाज का एक दाना भी नगर के अंदर ना आ सकें।
उधर, श्रीकृष्ण योगमाया को बुलाकर कहते हैं कि योगमाया इस समय हमारे जितने भक्त हमारे साथ चलने को तैयार हो उन सबको आपके आंचल में समेटकर इस प्रकार द्वारिका पहुंचा दो कि वहां जाकर उन्हें ऐसा लगे कि वे सदा से वहां रहते आए हों। वहां जाने वाले प्रत्येक प्राणी के अंतरमन में जो भी कामनाएं हो उन सबको पूर्ण कर दो।... योगमाया कहती हैं जो आज्ञा सर्वेश्वर।
योगमाया के चमत्कार से संपूर्ण मथुरा नगरी के लोग तक्षण ही द्वारिका पहुंच जाते हैं उसी तरह जो जिस तरह के कार्य कर रहा था उसी अवस्था में वह नगर पहुंच जाते हैं। परंतु श्रीकृष्ण और बलराम उनके साथ नहीं गए क्योंकि उन्हें जरासंध के साथ कुछ लीला करनी थी। जरासंध की सेना चारों ओर से मथुरा का घेरा डाले खड़ी थी। इस घेरे को छुड़ाना आवश्यक था इसलिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अकेले ही बाहर निकलकर आकाश मार्ग से भागना शुरू कर दिया। जरासंध ने उन्हें अकेले भागते देखा तो वो उन्हें पकड़ने के लिए उनकी सेना के साथ उनके पीछे भागा। कृष्ण-बलराम आगे-आगे और जरासंध एवं उसकी सेना उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगी। कृष्ण- बलराम हंसते हुए आगे जा रहे थे। रास्ते में गोमांतक पर्वत था। श्रीकृष्ण और बलराम भागते-भागते उस पर्वत के उस पार चले जाते हैं। जरासंध समझता है कि वे दोनों इस पर्वत में छिप गए हैं तो वह सारे पर्वत को घेरकर उसके चारों ओर आग लगवा देता है।
फिर उधर, कृष्ण-बलराम आकाश मार्ग से रात्रि में द्वारिका पहुंच जाते हैं। बलराम कहते हैं- कान्हा विश्वकर्मा ने नगरी तो बहुत सुंदर बनाई है चलो देखते हैं। फिर दोनों पहले इंद्रसभा देखते हैं। इस पर बलराम पूछते हैं कि इतना सुंदर स्थान कहां से ढूंढा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं आप नहीं पहचानते दाऊ भैया? वास्तव में यह द्वीप आपकी ससुराल वालों की ही संपत्ति है। जिस राजकुमारी रेवती से आपना विवाह निश्चित हुआ है यह स्थान उन्हीं के दादा महाराज रैवतक की कभी राजधानी थी। सो यह आपके ससुराल वालों की संपत्ति हुई। जो चलो दाऊ भैया गृहप्रवेश करें।
दोनों अपने महल के पास जैसे ही पहुंचते हैं तो आकाश में स्थित इंद्र सहित सभी देवता द्वारकाधीश की जय के नारे लगाते हैं और फूलों की वर्षा करते हैं और उनकी आरती उतारकर उनका भव्य स्वागत करते हैं। जय श्रीकृष्णा।