Swami Vivekananda Jyanati
12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिवस पर भारत में युवा दिवस मनाया जाता है। विववेकानंद जी का जीवन काल बहुत छोटा रहा है, परंतु उन्होंने इस छोटे जीवन काल में ही संपूर्ण जीवन जी लिया था और इतने छोटे काल में ही उन्होंने इस देश, समाज और धर्म को बहुत कुछ दिया।
आइए जानते हैं स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय, देश के लिए उनका योगदान और आध्यात्मिक यात्रा के बारे में-
1. विवेकानंद का परिचय : स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कोलकाता में हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त का निधन 1884 में में हो गया था जिसके चलते घर की आर्थिक दशा बहुत खराब हो चली थी। एक वक्त का भोजन भी नहीं मिल पाता था।
2. विवेकानंद की रुचि और अध्ययन : संगीत, साहित्य और दर्शन में विवेकानंद को विशेष रुचि थी। तैराकी, घुड़सवारी और कुश्ती उनका शौक था। स्वामीजी ने तो 25 वर्ष की उम्र में ही वेद, पुराण, बाइबल, कुरआन, धम्मपद, तनख, गुरुग्रंथ साहिब, दास केपीटल, पूंजीवाद, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, साहित्य, संगीत और दर्शन की तमाम तरह की विचारधाराओं को घोट दिया था।
3. अविश्वास से भर गए थे विवेकानंद : स्वामी जी जैसे-जैसे बड़े होते गए सभी धर्म और दर्शनों के प्रति अविश्वास से भर गए। संदेहवादी, उलझन और प्रतिवाद के चलते किसी भी विचारधारा में विश्वास नहीं किया और वे नास्तिकता की राह पर चल पड़े थे।
4. ब्रह्म समाज से जुड़ाव : नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।
5. रामकृष्ण परमहंस की शरण में : अपनी जिज्ञासाएं शांत करने के लिए ब्रह्म समाज के अलावा कई साधु-संतों के पास भटकने के बाद अंतत: वे रामकृष्ण परमहंस की शरण में गए। रामकृष्ण के रहस्यमय व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, जिससे उनका जीवन बदल गया। 1881 में रामकृष्ण को उन्होंने अपना गुरु बनाया। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ।
6. आत्म साक्षात्कार : रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए।
7. बुद्धि के पार है विवेक : स्वामी विवेकानंद जब तक नरेंद्र थे बहुत ही तार्किक थे, नास्तिक थे, मूर्तिभंजक थे। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे कहा भी था कि कब तक बुद्धिमान बनकर रहोगे। इस बुद्धि को गिरा दो। समर्पण भाव में आओ तभी सत्य का साक्षात्कार हो सकेगा अन्यथा नहीं। तर्क से सत्य को नहीं जाना जा सकता। विवेक को जागृत करो। विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस की बातें जम गईं। बस तभी से वे विवेकानंद हो गए। फिर उन्होंने कभी अपनी नहीं चलाई। रामकृष्ण परमहंस की ही चली।
8. देश भ्रमण :1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद जीवन एवं कार्यों को उन्होंने नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र पहन लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है।
9. शिकागो में भाषण : सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। विश्व धर्म सम्मेलन 'पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स' में अपने भाषण की शुरुआत उन्होंने 'बहनों और भाइयों' कहकर की। इसके बाद उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।
10. विदेश में अध्यात्म का प्रचार: फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। 'अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा' यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं।
अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। शिकागो से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा की तथा भारतीय आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। विदेशों में भी उन्होंने अनेक स्थान की यात्राएं की।
11. विवेकानंद का दर्शन : विवेकानंद पर वेदांत दर्शन, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग और गीता के कर्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। वेदांत, बौद्ध और गीता के दर्शन को मिलाकर उन्होंने अपना दर्शन गढ़ा ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनके दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा।
विवेकानंद मूर्तिपूजा को महत्व नहीं देते थे, लेकिन वे इसका विरोध भी नहीं करते थे। उनके अनुसार 'ईश्वर' निराकार है। ईश्वर सभी तत्वों में निहित एकत्व है। जगत ईश्वर की ही सृष्टि है। आत्मा का कर्त्तव्य है कि शरीर रहते ही 'आत्मा के अमरत्व' को जानना। मनुष्य का चरम भाग्य 'अमरता की अनुभूति' ही है। राजयोग ही मोक्ष का मार्ग है।
12. निधन : मात्र 39 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1902 को उनका निधन हो गया। स्वामीजी का निधन एक रहस्य है। विवेकानंद पर लिखी गई राजागोपाल चट्टोपाध्याय की किताब और के.एस. भारती की एक अन्य किताब के मुताबिक उनकी मृत्यु शाम को ध्यान करने के दौरान ही हो गई थी। करीब 7 बजे विवेकानंद एक बार फिर ध्यान के लिए चले गए।
ध्यान के लिए जाने से पहले उन्होंने अपने साथियों और शिष्यों को विशेष हिदायत दी थी कि उन्हें बीच में डिस्टर्ब न किया जाए। इसी दौरान उनका निधन हो गया। उनके शिष्यों के मुताबिक दरअसल विवेकानंद ने महासमाधि ली थी। हालांकि यह भी कहा जाता है कि किसी बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हुई थी।
यह भी कहते हैं कि उनके निधन की वजह तीसरी बार दिल का दौरा पड़ना था। उनकी अंत्येष्टि बेलूर में गंगा के तट पर चंदन की चिता पर की गई थी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का 16 वर्ष पूर्व अंतिम संस्कार हुआ था। हालांकि विवेकानंद ने अपनी मृत्यु के बारे में पहले की भविष्यवाणी कर रखी थी कि वे 40 वर्षों तक जीवित नहीं रहेंगे। इस प्रकार उन्होंने महासमाधि लेकर अपनी भविष्यवाणी को पूरा किया।