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अश्रुधारा से लिखा है कश्मीरी पंडितों का सच, स्याही से नहीं : साहित्यकार क्षमा कौल

कश्मीरी पंडित क्षमा कौल से वेबदुनिया की विशेष बातचीत

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स्मृति आदित्य

मां जिस पर आरी चली, उसका क्या हुआ होगा : अभिनेत्री भाषा ने मां क्षमा कौल से कहा
 
कश्मीर.... बर्फीली वादियों में जहां नाजुक नर्म मुस्कान सजी बालाएं अपने रूपहले गहनों में लकदक वितस्ता का आचमन किया करती थीं, जहां नमस्ते शारदे देवी कश्मीरपुर वासिनी, त्वामहं प्रार्थये नित्यम विद्यादानं ज देहि मे....के श्लोक और मंत्रोंच्चार और सुरीली घंटियों से घाटियां झंकृत उठती थीं... जहां केसर, सेब और कहवा की सुगंध सांसों में घुला करती थी...जहां दूध जैसा कच्चा सौंधा-सलोनापन चेहरे पर संवरा होता था...जहां दिल से निकली हर बात का जवाब दिल से ही दिया जाता था....   
 
फिर धीरे धीरे उस कश्मीर में अग्नि, नफरत, स्वार्थ और विषैली राजनीति के पौधे पनपने लगे.. भाईचारा जैसे शब्द अपने अर्थ तलाशने लगे, विश्वास शब्द टुकड़े टुकड़े बिखर गया.. अब वितस्ता में दर्द बह रहा था, आंसुओं से घाटी भीग रही थी, चीत्कारें गुंज रही थीं, जहरीली आग ने उस देवभूमि को अपनी चपेट में ऐसा लिया, कि फिर सबकुछ खत्म हो गया...जर्रा जर्रा बिखर गया, मोहब्बत और मुस्कान मृतप्राय हो गई... अपने ही अपनों की जान के प्यासे हो गए... अब सब चूभने लगा था, चिनार रोने लगा था और अपना घरौंदा, अपनी हवाएं, अपनी फिजाएं, अपनी किताबें, अपने मंदिर, अपने बाग-बगीचे, दालान, आंगन सब छोड़कर अंधेरी रातों में सिसकियों के साथ भय से आपूरित आंखों की अबाध अश्रुधार लिए...

बस जाना पड़ा, निकल जाना पड़ा, कोई नहीं जानता था कहां जा रहे हैं, किधर जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, कैसे जा रहे हैं,, कौन उन्हें संभालेगा, कैसे उन्हें बसाएगा...सब कुछ अनकहा, अनाभिव्यक्त.... दर्द रिसता रहा कहीं भीतर ही भीतर... और फिर शुरू हुई संघर्षों की अंतहीन दास्तां....यह है कश्मीरी पंडित की कहानी, कश्मीर का काला सच, कड़वा सच, कसैला सच...कठोर सच...  
 
साढ़े सात लाख कश्मीरी पंडित अपने घरों से निकाले गए, 4000 का कत्लेआम हुआ,दरिंदे खुलेआम घूमते रहे..और किसी ने भी सच को सामने नहीं आने दिया, कॉरपेट के नीचे दबा वह सच अचानक एक फिल्म द कश्मीर फाइल्स के जरिए पूरी निर्भयता से सतह पर आता है और फूट पड़ता है आंसुओं का झर झर झरना देश-विदेश के हर कोने से....
 
वेबदुनिया ने बात की कश्मीरी पंडितों से, पीड़ितों से, चश्मदीदों से... हमने बात की उनसे जिन्होंने देखा,भोगा, सहा, झेला और जिया है... आज उस कड़ी में एक महत्वपूर्ण आवाज से हम आपको मिलवा रहे हैं...यह आवाज है सुविख्यात साहित्यकार क्षमा कौल की....कश्मीरी विस्थापितों पर लिखे गए अब तक के सबसे प्रामाणिक दस्तावेज 'दर्दपुर' और मूर्ति भंजन जैसी सशक्त कृतियों की लेखिका क्षमा कौल, फिल्म द कश्मीर फाइल्स में शारदा की भूमिका निभाने वाली भाषा सुंबली की मां क्षमा कौल जब वेबदुनिया से अपने दर्द साझा करती हैं तो बीच बीच में अपने भावावेगों पर नियंत्रण नहीं कर पाती हैं और फफक फफक कर रो पड़ती हैं लेकिन अगले ही पल वे अपनी पूरी चेतना से पूरे आत्मविश्वास से दैदिप्य हो सरकार, समाज और संवेदनाओं के बाजार पर जमकर प्रहार करती हैं...
कश्मीर की कहानी, क्षमा कौल की जुबानी 
यह जो बदलाव और उठाव आया है अब इसका नया मोड़ आना चाहिए...भारतीय जनता को मुखर होकर हमारे साथ होना चाहिए। क्योंकि भारतीय जनता का हमारे साथ होना भारत के साथ होना है। अगर लोग हिन्दू राष्ट्र का सपना देखते हैं तो उसका भी पहला कदम यही होना चाहिए। सरकार सक्रिय हो, हिम्मत से, शौर्य से काम शुरू करें। कितने ही दोषी अभी खुलेआम घूम रहे हैं...जेलों में है तो वहां बिरयानियां खाते हैं, जो जेलों से बाहर हैं उन्हें जेलों में लाकर कठोर से कठोर सजा दी जाए तेज से तेज मुकदमे चलाए जाएं। अब सरकार से ही अपेक्षाएं हैं। सरकार ने ही हमारे नरसंहार को संभव किया...अगर सरकार वहां पर कुछ कदम उठाती, उसी समय सर्जिकल स्ट्राइक कर देती तो हमें वहां से निकलना नहीं पड़ता....हम तो वैसे भी उन्हीं के आतंक के नीचे ही जीते थे।   
सभी पार्टियां दोषी हैं
मेरा तो कहना है कि सभी पार्टियां इसमें दोषी हैं। कुछ पार्टियां ज्यादा दोषी हैं, कुछ कम पर अपराध तो सबका मिलाजुला है। आपको आश्चर्य होगा कि आजतक किसी भी मुख्य हत्यारे को सजा नहीं मिली है,सबूत ही नहीं मिला इनको जबकि सबूत तो सामने-सामने बिखरे पड़े थे। कराटे जब खुद बोलता है कि मैंने मारा तब भी कहा जाता है कि सबूत नहीं है यह तो गंभीर विडंबना है। इस समय जो सरकार है उन्हें ठोस कदम उठाने चाहिए। इनको बिलकुल भी नहीं डरना चाहिए कि वोट नहीं मिलेगा... इसी डर के कारण वहां रहने वाले कट्टरपंथी, अलगाववादियों और मुस्लिम जनता के हौसले बुलंद हुए और वे डरना भूलकर मनमानी करने लगे। 
 
कश्मीरी हिन्दुओं का मामला अगर इस सरकार ने सुलझा दिया तो इन्हें ज्यादा सुदृढ़ सरकार बनाने का अवसर मिलेगा,क्योंकि एक सच्चा देशवासी यही चाहता है सशक्त भारत, सुदृढ़ भारत,संस्कृति प्रधान भारत....सुरक्षित भारत, सभ्यतापूर्ण भारत....
रणनीति बनानी होगी
अब जो हो चुका वह हो चुका पर अब हमें आगे की रणनीति बनानी होगी। आगे का यथार्थ देखना होगा। जमीनी हकीकत पर नजर रखनी होगी। जो नरसंहार हुआ है उसे पार्लियामेंट में मान्यता दें कि हां यह नरसंहार है..दूसरे जो भी दोषी हैं, अपराधी हैं उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दें। तीसरे, जो भी देश विरोधी बातें करता है उसके प्रति लचर नीति न अपनाएं कठोर दंड प्रावधान देश विरोधी बातें करने वालों पर लागू किया जाए चाहे वह जो भी हो... उसके बाद कश्मीरी पंडित जिनके पुनर्वास का ब्लू प्रिंट तैयार है उसे लागू किया जाए।
गरीब कश्मीरी पंडितों पर नजर क्यों नहीं?
यह सुनिश्चित किया जाए कि अब कभी भविष्य में ऐसा कोई दौर न आए, कहीं पर भी किसी को भी ऐसे खौफनाक मंजर न देखने पड़े इसके लिए सख्त नीतियों का निर्माण किया जाए। सरकार के नुमाइंदों को कश्मीरी पंडितों से मिलना चाहिए अपने अहंकार छोड़कर...सोचिए जिस सरकार ने हमें तबाह किया उनके प्रमुख तो शरणार्थी शिविर में मिल लेते हैं जबकि वर्तमान सरकार के प्रमुख नेता विदेशों में बसे कश्मीरी पंडितों से ही मिल रहे हैं हम गरीब कश्मीरी पंडितों पर उनकी नजर क्यों नहीं? 
 
किसी भी सरकार की कोई अच्छी बात हो मैं तो सच कहती हूं, पूरे दमखम से कहती हूं, डरती नहीं हूं... 
कश्मीर फाइल्स फिल्म नहीं देखी पर जानती सब हूँ....
मैंने कश्मीर फाइल्स फिल्म नहीं देखी लेकिन मैं उसके निर्माण के हर बिंदु से अवगत हूं, पल पल की रचना प्रक्रिया की जानकारी मेरे पास है क्योंकि मेरी बेटी भाषा ने फिल्म में अहम किरदार निभाया है। 
 
मेरी 98 साल की मां है और अभी उन्हें छोड़कर मैं फिल्म देखने नहीं जा सकी हूं लेकिन मुझे देखना है फिल्म... मेरी बेटी के अभिनय की चारों तरफ से प्रशंसा आ रही है....जब हम कश्मीर छोड़कर निकले थे तब भाषा मात्र 1 साल और 4 महीने की थी...भाषा का भाई 3 साल से थोड़ा बड़ा था। 
जब भाषा ने बताया मैं अग्निशेखर जी की बेटी हूं....
 2018 में मुझे पता चला कि विवेक अग्निहोत्री कोई फिल्म बनाने जा रहे हैं तो मैं बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं हुई पर मेरे अंदर थोड़ी सी आशा जागी थी। क्योंकि मैं उनके ट्विट्स पढ़ती थी, उनके पक्ष-विपक्ष को समझती थी....पर मुझे लगा कि कहीं इसका भी हश्र उन फिल्मों जैसा न हो जो पहले बनी थी...2020 की जनवरी में विवेक अग्निहोत्री ने मुझे फोन किया था, उससे पहले उनका अनाउंसमेंट था कि उन्हें कश्मीरी अभिनेता-अभिनेत्री चाहिए। भाषा के परिचित ने विवेकजी को भाषा का नाम प्रस्तावित किया था। विवेक अग्निहोत्री ने मेरे पति अग्निशेखर को फोन किया कि वे मिलना चाह रहे हैं। हम उनके आगमन की तैयारी ही कर रहे थे,संयोग से भाषा उन दिनों मेरे साथ ही थी उसके पास विवेक जी का फोन आता है कि मैं जम्मू अग्निशेखर जी के यहां जा रहा हूं, तुम देखो कैसे मिल सकती हो?

तब भाषा ने उन्हें बताया कि मैं अग्निशेखर जी की ही बेटी हूं....
 मेरी रूह कांप उठी थी... 
मैंने उन्हें कहा कि आप ही यह फिल्म बना सकते हैं तो बाद में कहीं-कहीं पर विवेक जी ने यह उल्लेख किया है कि मेरी बात से उन्हें लगा जैसे आशीर्वाद मिल गया। खैर शाम को विवेकजी आए भोजन के बाद जब भाषा को उसका रोल समझाया तो मेरी रूह कांप उठी थी क्योंकि मैं जानती थी कि यह किरदार क्या है और इसमें क्या होगा....बहुत रूचि से उन्होंने बातें की..उनके जाने के बाद भाषा से मैंने पूछा कि तुम करोगी यह रोल?  भाषा ने मुझे आश्वस्त किया कि आप चिंता न करें, मैं जानती हूं इसे कैसे करना है। 
मां मेरा वाला सीन हो गया है...
विवेक जी ने समझाया कि यह सीन हम टेक्निकली करेंगे तुम घबराना मत, हम सब वहीं रहेंगे। तब जाकर मुझे राहत मिली लेकिन जब देहरादून में शूटिंग चलती थी तब मैं रोज भाषा से पूछती थी कि आज क्या हुआ, पर वह जानती थी कि मां को क्या और कितना बताना है तो वह कहती अभी कुछ नहीं हुआ है...फिर एक दिन उसने कहा मां मेरा वाला सीन हो गया है...
मम्मी उसका सोचो ना जिस पर सच में आरी चली थी....
मैं सोचती थी कि भाषा का क्या होगा, मैं इस समय जब आपसे बातें कर रही हूं मेरे आंसू आ रहे हैं, मैं उसको रोते हुए ही बोली थी तू आजा बेटा शूटिंग फटाफट खत्म कर के आजा, हम अपने इष्टदेव को प्रसाद चढ़ाएंगे, मैं रो रही थी भाषा कह रही थी मां सोचो जिस पर यह सब बीता होगा उसका क्या हुआ होगा... वह भी रो रही थी... भाषा ने बहुत धीरे धीरे सब बताया,आरी पर जब चीरने वाला सीन था तब कैसे उसे हम सब याद आ रहे थे... प्राण हथेली पर थे मेरे...मैं उसे बोली तू यह सब मत सुना मुझे मुझसे नहीं सुना जाता है....वह कहने लगी मम्मी उसका सोचो ना जिस पर सच में आरी चली थी....
अबाध अश्रुधारा से लिखा गया सच्चा साहित्य 
मुझे फिल्म देखना है पर मन के पटल पर मैं सबकुछ देख चुकी हूं।
 
'दर्दपुर' हो या 'मूर्ति-भंजन' या 'कश्मीर उन दिनों हो' या 'समय के बाद' नाम से डायरी हो, 'आतंकवाद और भारत' हो या 'बादलों में आग हो' या ‘No earth under our feet’ (हिंदी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद) या फिर ’19 जनवरी के बाद’ (कहानी संग्रह) कुछ भी हो सब मैंने लिखा है इसमें स्याही नहीं है यह कश्मीरियों की अबाध अश्रुधारा से लिखा गया सच्चा साहित्य है। 
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 (इतनी बात के बाद क्षमा जी अपनी रूलाई नहीं रोक सकी और हमें कुछ मिनट का विराम लेना पड़ा)  
क्षमा कौल से वेबदुनिया की बातचीत का पहला अंश 

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