हमें पुराणों में वास्तुदेवता की उत्पत्ति की कुछ कथाएं मिलती है। नया घर बनाने के पूर्व और बन जाने के बाद वास्तुदेव की पूजा की जाती है। वास्तुशास्त्र में वास्तुदेव का बहुत महत्व बताया गया है। आओ जानते हैं वास्तुदेव की जन्म कथा।
1. ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव हुए। धर्म की वस्तु नामक पत्नी से उत्पन्न वास्तु सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। हालांकि पुराणों में वास्तुदेव अर विश्वकर्मा को ब्रह्मा का मानस पुत्र बताया गया है।
2. मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकासुर के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ। उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई। त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया और देवताओं ने उसे गृह निर्माण, वैश्वदेव बलि के और पूजन-यज्ञ के समय पूजित होने का वर दिया। देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे। तालाब, कुएं और वापी खोदने, गृह व मन्दिर के निर्माण व जीर्णोद्धार में, नगर बसाने में, यज्ञ-मण्डप के निर्माण व यज्ञ आदि के समय वास्तुदेवता की पूजा का विधान है।
3. कथा इस प्रकार भी है कि प्राचीन काल में भयंकर अन्धक-वध के समय विकराल रूपधारी भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर स्वेदबिन्दु गिरे थे। उससे एक भीषण एवं विकराल मुखवाला उत्कट प्राणी उत्पन्न हुआ जो पृथ्वी पर गिरे हुए अन्धकों के रक्त का पान करने लगा। संपूर्ण रक्त को पीने के बाद भी वह तृप्त न हुआ, तब वह भगवान सदाशिव की घोर तपस्या में लीन हो गया। भगवान शंकर उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर प्रकट हुए और उससे बोले कि वर मांगों। तब उसने शिवजी से कहा मैं तीनों लोकों का भक्षण करने के लिए समर्थवान होना चाहता हूं।
इस पर शिवजी ने कहा- ऐसा ही होगा। फिर तो भीषण और विकराल प्राणी अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, सम्पूर्ण भूमण्डल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा और संपूर्ण त्रिलोकी को भक्षण करने के लिए आतुर होने लगा। यह देख भयभीत सभी देवी और देवताओं स्तम्भित हो गए। उस समय जिसने उसे जहां पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओं भी उसमें निवास करने लगे। सभी देवताओं के निवास करने के कारण वह वास्तु नाम से विख्यात हुआ और ब्रह्माजी ने उसे पूजे जाने का वरदान दिया।
4. ऐसे भी कहा जाता है कि अंधकगणों के वध के समय शिव के पसीने से उत्पन्न वह राक्षस अंधकासुर उत्पात करने लगा अंधकासुर वरदान प्राप्त करने के बाद देवताओं से परास्त नहीं हो पा रहा था, उसने माता पार्वती के अपहरण का भी प्रयास किया तब सभी देवता भयभीत हुए और ब्रह्माजी से रक्षा की कामना की। तब भगवान शिव ने अपने पाशुपतास्त्र से उसका शरीर छलनी-छलनी कर दिया परंतु उससे उत्पन्न रक्तकणों से बहुत सारे अंधकगण अर्थात उसकी के जैसे राक्षस उत्पन्न हो गए। यह देखकर इन अंधकगणों का रक्त पीने के लिए भगवान ने मातृकाओं की सृष्टि की। इन मातृकाओं में से एक माता की उत्पत्ति भगवान विष्णु ने भी की, जिनका नाम शुष्क रेवती था। शुष्क रेवती ने सभी अंधकगणों का रक्त चूस लिया।
यह वही अंधकगण राक्षस थे जिनका सामना वास्तु पुरुष से हुआ था। वास्तु पुरुष ने भी लोक माताओं के अलावा अंधकगणों का रक्तपान किया था परंतु तृप्ति न होने के कारण उन्होंने त्रिलोकी का ही भक्षण प्रारंभ कर दिया। तब ब्रह्मा के आदेश से सब देवताओं ने उस राक्षस को परास्त किया और जमीन में औंधा गाड़ दिया। फिर देवताओं ने उसके शरीर में वास किया और वही वास्तु पुरुष या वास्तु देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया।
5. वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है जिसमें उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती हैं।
6. भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, भगवान शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- इन अठारह को वास्तुशास्त्र का उपदेष्टा माना जाता है।