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महिला दिवस विशेष : सवाल अब भी बाकी हैं...

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गरिमा संजय दुबे

“लेकिन हम तो जिंदा है ना.......? एंड टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक “गंगा” में एक दस साल की बच्ची का यह सवाल हमारे तथाकथित आधुनिक समाज को कटघरे में खड़ा करता सा नजर आता। बात कोई नई नहीं है और न ही मैं कोई पहली इंसान हूं, जो इस समस्या पर लिख रही हूं। लेकिन अब भी लिखना पड़ रहा है, यही एक प्रश्न है!

राजा राम मोहन राय के सुधारवादी आंदोलन और शरतचंद्र के उपन्यासों से होते हुए वृंदावन की विधवाओं को होली खेलने की अनुमति मिलने तक बहुत पानी बह गया नदियों में, लेकिन क्या सच में हमारे समाज में विधवाओं को लेकर जो धारणाएं या कुरीतियां फैली हैं, उनमें कुछ परिवर्तन हुआ है ? 
 
कानून, टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम और शिक्षा ने काफी हद तक जनचेतना लाने का काम किया है, लेकिन फिर भी समाज के कुछ एक परिवारों में आ रही चेतना से कोई बड़ा परिवर्तन होता नजर नहीं आता। कहने को तो हमारे समाज में लड़कियों को लेकर बहुत परिवर्तन आया है, किंतु अब भी एक बड़ा हिस्सा इन परिवर्तनों की आंच से वंचित ही है। और जहां तक बात विधवाओं के अधिकार की आती है, तो हमारा समाज खासी असंवेदनशीलता का परिचय देता है।
 
जो व्यक्ति पहले ही दुखी है उसके दुख को कम करने के बजाए उस पर तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी जाती हैं। वैधव्य की आड़ में तमाम तरह के शोषण का शिकार स्त्री होती रही है और मासूम बच्चियां भी। किसी गुजर चुके इंसान के साथ अपनी सारी इच्छाओं और अभिलाषाओं का गला घोट देना स्त्री के लिए एक अनिवार्य शर्त होती है। उसकी साधारण-सी इच्छा भी व्यभिचार की श्रेणी में रख दी जाती है। गांवों और अनपढ़ लोगों की क्या बात की जाए, शहरी और पढ़े लिखे लोग भी विधवा का हंसना, चूड़ी-बिंदी लगाना और रंगीन कपड़े पहनने को अच्छा नहीं मानते। निराश्रित विधवाओं, जो काशी या वृंदावन में जीवन गुजारती हैं, की स्थिति‍ तो रौंगटे खड़े करने वाली है।
 
धर्म और परंपराओं के नाम पर अमानवीय अत्याचारों का आज भी होना, सारे नारी विमर्श को सोचने पर मजबूर कर देता है। हिंसा सिर्फ शारीरिक चोट को ही नहीं कहा जाता, मानसिक यंत्रणा भी हिंसा की ही श्रेणी में आती है। और भारतीय समाज सदियों से इस हिंसा का अभ्यासी रहा है जिसे किसी कानून से नहीं तोड़ा जा सकता, इसके लिए तो मानवीय करुणा ही एक मात्र समाधान है।
 
जहां तक सुधारवादी आंदोलनों की बात की जाए, तो वह भी स्त्री अस्मिता को विवाह से ही जोड़कर देखते हैं, क्योंकि जितने भी सुधारवादी आंदोंलन हुए हैं, उन्होंने विधवा विवाह को विधवा के लिए उपयुक्त पाया है। यहां भी विधवा के लिए विवाह नाम की संस्था की अनिवार्यता को रेखांकित किया गया है, बिना यह जाने कि पुनर्विवाह अक्सर या तो अपने अंजाम तक पहुंच ही नहीं पाते और अगर हो भी जाए तो स्त्री के लिए अक्सर ही परेशानी का सबब बनते दिखाई देते हैं।
 
कम उम्र की या युवा विधवा महिला जिसके बच्चे न हो उसके लिए फिर भी अपने अतीत को पीछे छोड़ आगे बढ़ जाना आसान होता है और समाज में इसके लिए धीरे-धीरे स्वीकृति भी बढ़ रही है। लेकिन उसके हिस्से (कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो) में दूसरी पत्नी और सौतली मां बनना ही आता है। और अगर महिला के बच्चे हैं तो अव्वल तो वह विवाह के बारे में सोचती ही नहीं, और अगर परिवार और समाज के दबाव में राजी हो भी जाती है तो उसे अपनी ममता का गला घोंटना पड़ता है, क्योंकि उससे विवाह करने वाला पुरुष उसे उसके बच्चों सहित नहीं अपनाता। भले ही उसके खुद के बच्चों को स्त्री द्वारा अपनाने की वह पूरी उम्मीद करता है।
 
भारतीय समाज अभी इतना उदार नहीं हुआ है, कि वह स्त्री को उसके बच्चों के साथ अपना ले। हमारे यहां सौतेली मां का होना आम हो सकता है, किंतु सौतेले पिता की भूमिका के लिए अभी समाज में कोई चेतना नहीं है। इस तरह की घटनाएं कहानी किस्से में ही होती नजर आती हैं, यथार्थ में ऐसे उदाहरण बिरले ही होते हैं। और मान भी लें, कि कोई पुरुष, स्त्री को उसके बच्चों के साथ अपना भी ले, तो जीवन भर अजीब-सी कशमकश से पूरा परिवार गुजरता है, और सबसे अधिक प्रभावित बच्चे और मां ही होते हैं।
 
मैंने अपने आस-पास ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं, जहां पति के दुर्घटनावश काल-कवलित हो जाने पर बड़ी ही क्रूरता से बच्चों और पत्नी को सारे सामाजिक आर्थिक अधिकारों से वंचित कर घर से बाहर निकाल दिया गया है। और स्त्री अपने माता-पिता और भाई-बहन पर आश्रित हो जैसे-तैसे अपना जीवन यापन कर रही है।  कानून की लंबी लड़ाई, दूसरों पर आश्रित होने का दंश और समाज की लौलुप निगाहों से अपने को बचाते-बचाते उसका जीवन संघर्ष की भट्टी बन जाता है। विधवा विवाह से इतर अगर विधवा महिलाओं को स्वावलंबन की राह पर डालकर उन्हें सक्षम बनाया जाए तो यह अधिक तर्कसंगत होगा। फिर विवाह मजबूरी न होकर स्त्री की सहमती और सुविधा अनुरूप हो तो वह सही है और स्त्री के स्वाभिमान के लिहाज से भी उचित।
 
सामाजिक और आर्थिक सुधार जब तक अंतिम व्यक्ति तक न पहुंचे, कुछ लोगों तक उनका पहुंचना सुधारों की असफलता ही कही जाएगी। कानून तभी प्रभावशाली होते हैं जब उन्हें समाज की चेतना और संवेदनशीलता का अवलंब मिलता है। इसलिए समाज को विधवाओं के प्रति अपनी सोच को और अधिक संवेदनशील बनाना होगा।
 
लेकिन एक ऐसा समाज जहां झूठी इज्जत के नाम पर अपने बच्चों के कत्ल किए जाते हों, जहां अपने बच्चियों को ही उनका जीवन साथी या व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न हो, जहां नदियों को चुनरी ओढ़ाने का रिवाज तो हो, लेकिन स्त्री को नग्न घुमाने में शान समझी जाए, जहां देवी के रूप में बच्चियों को पूजा जाना धर्मिकता हो किंतु नन्ही बच्चियों के साथ बलात्कार हो, जहां दहेज के नाम पर आज भी दुल्हनें जलाई जाती हों, जहां बलात्कार को न्यायसंगत ठहराने के नित नए बहाने गढ़े जाते हों, जहां हर आचार संहिता स्त्री के लिए ही नियम बनाती हो, वह समाज किसी स्त्री के विधवा होने पर उसके साथ न्याय करेगा ....... यह विचार अभी दूर की कौड़ी लगती है।
 
हर साल महिला दिवस पर पीछे मुड़ कर देखती हूं,  तो तकनीकी रूप से बढ़ते भारत, कामकाजी, पढ़ी-लिखी ताकतवर महिलाओं के बढ़ते प्रतिशत के लुभावने आंकड़े कुछ देर के लिए सच्चाई से ध्यान हटा देते हैं,  लेकिन फिर जब आकलन करती हूं कि आम औरत की आधी आबादी की लड़ाई का क्या हश्र हुआ है, तो इक्कीसवीं सदी में भी कई सवालों को जिंदा पाती हूं ।

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