वह नायिका है ... उसके आने से आती है एक मधुर सुगंधित आहट। आहट त्योहार की। आहट रास, उल्लास और श्रृंगार की। आहट आस्था, अध्यात्म और उच्च आदर्शों के प्रतिस्थापन की। सुंदर सुकोमल फूलों की वादियों के बीच खुल जाती है खुशबू की महकती राहें, उसके आने से। नायिका जो बिखेरती है चारों तरफ खुशियों के खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग।
उसके कई रंग है, हर रंग में एक आस है, विश्वास है और अहसास है। उसके रूप में संस्कृति है, सुरूचि है और सौंदर्य है। वही केन्द्र में है, वही परिधि... हर कोने में सुव्यक्त होती है उसकी शक्ति। उस दिव्य शक्ति के बिना किसी त्योहार, किसी पर्व, किसी रंग और किसी उमंग की कल्पना संभव नहीं है।
हमारे समस्त रीति-रिवाज, तीज-त्योहार या अनुष्ठान-विधान हमारी नायिका के हाथों ही संपन्न होते हैं। इस धरा की महकती मिट्टी की महिमा है कि नायिका इतने सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठापित है। सदियों पूर्व इसी सौंधी वसुंधरा पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था -
'कीर्ति: श्री वार्क्च नारीणां
स्मृति मेर्धा धृति: क्षमा।'
अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूं।
दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है। संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहां नारी अपने श्रेष्ठतम और पवित्र रूपों में अभिव्यक्त हुई है।
हमारी आर्य संस्कृति में नायिका अतिविशिष्ट स्थान रहा है। आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व माने गए हैं - परब्रह्म, माया और जीव। माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी की इच्छाशक्ति होते हैं। ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है।
फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है। जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है। प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है। देवी भागवत के अनुसार -'समस्त विधाएं, कलाएं, ग्राम्य देवियां और सभी नारियां इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं। एक सूक्त में देवी कहती हैं -
'अहं राष्ट्री संगमती बसना
अहं रूद्राय धनुरातीमि'
अर्थात् -
'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं। मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूं।'
विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं।
हमारी यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है। मां कल्याणी है, पत्नी गृहलक्ष्मी है। बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। हर रूप में वह आराध्या है।
पौराणिक आख्यान कहते हैं कि अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं। कभी मांगने नहीं पड़े हैं। वह सदैव देने वाली है। अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है।
जल, थल, अग्नि, गगन और समीर इन्हीं पंचतत्वों को मिलाकर ही सृष्टिकर्ता ने 'उसे' भी रचा है। उसके सुंदर सपने भी उम्मीद भरे आकार ग्रहण करते हैं। 'वह' भी अनुभूतियों की मधुरतम सुगंध से सराबोर होना चाहती है। मंदिर की खनकती सुरीली घंटियों-सी 'उसकी' खिलखिलाहट भी चहुंओर बिखर जाना चाहती है। महत्वाकांक्षा की आम्रमंजरियां 'उसके' भी मन-उपवन को महकाना चाहती हैं, किंतु यथार्थ...?
वह समाज में सिर्फ 'देह' समझी जाती है। उसके सपने आकार ग्रहण करें, उससे पहले बिखेर दिए जाते हैं, अनुभूतियां छल-कपट का शिकार हो छटपटाती रह जाती हैं, उसकी हंसी कुकृत्य की कड़वाहट के कुहास में दफना दी जाती है और महत्वाकांक्षा कैक्टस में परिवर्तित हो हमेशा की चुभन बन जाती है।
ऐसा क्या चाहा है उसने इस समाज से, जो वह देने में सक्षम नहीं है? सहारा, सुविधा, संसाधन और सहायता? नहीं। उसने हमेशा एक सुंदर, संस्कारित, उच्च मानवीय दृष्टिकोण वाला सभ्य परिवेश चाहा है। अपनी सहृदयता से उसे नैतिक संबल और सुअवसर दीजिए कि वह सिद्ध कर सके - अपने व्यक्तित्व को, अपनी विशिष्टता को। अपने ही पूरक पुरुष को पछाड़ना उसका मानस नहीं है, उनसे आगे निकल जाना उसका ध्येय नहीं है, वह तो समाज में अपना एक वजूद चाहती है, एक पहचान चाहती है, जो उसकी अपनी हो। क्यों समाज कृपण और कंगाल हो जाता है, जब कुछ उसे देने की बात आती है, जिसने अपने पृथ्वी पर आगमन से ही सिर्फ और सिर्फ दिया है, लिया कुछ नहीं।
मुट्ठी भर आसमान, एक चुटकी धूप, अंजुरी भर हवा और थोड़ी-सी जमीन, जहां वह अपने कदमों को आत्मविश्वास के साथ रख सके। बस इससे अधिक तो कभी नहीं चाहा उसने! फिर क्यों उसके उत्थान के उज्ज्वल सूर्य को अर्घ्य देने में सारे समाज का समंदर थरथरा उठता है? क्यों उसके विस्तार की धरा को अभिस्पर्शित करने में समाज के हाथ पंगु हो जाते हैं और क्यों उसके विराट महत्व को स्वीकारने में सारा समाज संकीर्ण हो जाता है?
पर वह नायिका है, हारती नहीं है, फिर-फिर खड़ी हो जाती है…
कई रिश्तों में बंधी लेकिन सबको जीती हुई... मां, पत्नी, प्रेमिका, मित्र, बहू, बेटी, बहन, ननद, भाभी, देवरानी, जेठानी, चाची, ताई, मामी, बुआ,मौसी, दादी, नानी, बॉस, सहकर्मी....अनंत सूची है. .. मीठे, मोहक रिश्तों को अपने आंचल में बांधे तलाशती है वह खुद को। वह मिलती है खुद से। रिश्तों के इतने सुरीले-सुरम्य आंगन में खड़ी वह बनाती है एक रिश्ता अपने आप से।
जी हां, नायिका का एक रिश्ता और है और वह है खुद का खुद से। स्वयं का स्वयं से। अपना सबकुछ देने के बाद भी वह बचा कर रखती है खुद को खुद के लिए। वह नहीं भूलती उस खूबसूरत रिश्ते को जो उसका उससे है।
यह रिश्ता नायिका का उससे परिचय करवाता है। यही रिश्ता कहता है उससे, खुद में ही झांकने के लिए। कितने मधुर सपने हैं उसके भीतर जो साकार होने के लिए कसमसा रहे हैं। यह रिश्ता उसे चुनौती देता है, ऐसा क्या है जो वह नहीं कर सकती? फिर यही कहता है उससे-सब कुछ तो कर सकती हो तुम।
यह रिश्ता उसका उस पर ही विश्वास स्थापित करता है... और वह जीत जाती है दुनिया की हर जंग। वह अपने आप से लड़ती भी है, वह अपने आप से प्यार भी करती है। वह अपने आप का सम्मान भी करती है। यही रिश्ता समझाता है उसे- खुद के लिए वह क्या है और उसकी जिंदगी के क्या मायने हैं।
क्या आपका है अपने आपसे यह रूहानी रिश्ता? ढेर सारे रिश्तों के बीच बनाएं एक गहरा, नाजुक, मधुर और मजबूत रिश्ता अपने आप से....क्योंकि आप नायिका हैं ...अपनी ही जिंदगी पर बनी अपनी ही फिल्म की आप महानायिका हैं।