ऋचा दीपक कर्पे
सालों हो गए,
दुनिया चलती रही
ऋतुएं बदलती रहीं
क्या रुका कुछ?
दुनिया में तुम्हारी
या उन चारों की ..?
इतनी सांसें मिल गई उन्हें उपहार में
जीते रहे वे खुल के जिंदगी
बिना किसी डर या दर्द के..!
वे चार जिन्होंने मेरी जिंदगी को
कर दिया था पल में तबाह..
छोड दिया था मुझे नर्क की यातनाएं
भोगने के लिए।
वह दर्द जिसकी तुम
नहीं कर सकते कल्पना भी
सहा है मैंने।
अब तो निर्भया से निर्बला हो चुकी हूं मैं!
एक बार झांक कर देखो
मेरे माता-पिता की नजरों में..
उनके छलनी हुए दिलों में..
बस एक बार याद करो
मेरी कराह ..मेरी चीख..
अब बंद भी करो
यह तारीख पर तारीख...
तारीख पर तारीख....
©ऋचा दीपक कर्पे