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महिला दिवस विशेष : तुम महिला हो जिसकी तुम्हें बधाई हो...

हमें फॉलो करें महिला दिवस विशेष : तुम महिला हो जिसकी तुम्हें बधाई हो...
-जया शर्मा
 
बडी विडंबना है भगवान तेरी इस बहुरूपिया जन्नत में। जहां एक ओर कठपुतली की तरह ढील है और एक ओर तान रखा है। जी हां, आप-हम पुन: स्वयं को याद दिला रहे हैं कि 'तुम महिला हो' जिसकी तुम्हें बधाई हो। क्यों हम स्वयं इस खूबसूरत बेइज्जती को बड़ी ही शिद्दत से मान्य करते हैं? 
 
कभी हम तीव्र स्वर में कहते-फिरते हैं कि हम भी कुछ हैं, क्योंकि हम खुद को ही नहीं समझा पाए हैं। ये कैसा संगीत है कि स्वयं गाएं और स्वयं ही सुनें...?
 
हे ईश, हम जो हैं, बस वो ही रहने दें। जो है मेरे दिल, बस वो ही कहने दें। मत डाल मेरे मुंह में शब्द अपने।
बस देखने दें, जो हैं मेरी आंखों के सपने। क्यों घोर शोर का कारण हम खुद हैं।
 
क्यों इस दर्द का कारण हम हैं। खुद को गाली देना छोड़ो। खुद से खुद का नाता जोड़ो। नहीं जरूरत है किसी सहारे की। खुद को जगाना है स्वयं के डर से। क्यों थकी नहीं है महिला इस आडंबर से, जो आधुनिक समय में बड़े ही आधुनिक रूप से रचा जाता है। क्यों हम आज भी उन डांवाडोल पुल के सहारे हैं? क्यों नहीं हम खुद के सहारे हैं? मैं किसी से बराबरी नहीं करना चाहती, पर बस कहना इतना है कि जो प्रकृति ने बनाया है, बस वही रहने देना है। न किसी से कुछ कहना है, न किसी से कुछ सुनना है। सबकी अपनी पहचान है। सबकी अपनी एक आन है। करना है अपने आने वाली पीढ़ी के लिए एक कोशिश। मिले उसे उसका अधिकार। न किसी से होड़ न किसी का जोड़। वो है यह कहना नहीं है। महसूस करने दो उसे कि वो है, क्योंकि उगते सूरज को, चमकते चांद को, महकते फूल, बहती सरिता को तो नहीं कहना पड़ता है कि वो है। बस वही शांतिभरी पहचान चाहिए। 
 
न रामायण की गाथा, न महाभारत की व्यथा, न आधुनिक समय की होड़। नहीं चाहिए भीखनुमा आजादी। जो है, बस वो है।
 
नहीं चाहती मैं संमदर की तरह शोर करना
बस चाहती हूं सरिता की तरह शांति से बहना
नहीं चाहती सूर्य की तरह जलना
चाहती हूं श्वेत चांदनी की तरह चमकना
नहीं चाहती विकराल पर्वत बनना
बस चाहती हूं पूजा की थाली का टीका बनना।
 
नहीं चाहती मैं समाज से लड़ना
चाहती हूं खुद से लड़ना
नहीं चाहती किसी से जीतना
बस चाहती हूं खुद से जीतना
नहीं चाहती खुद को किसी से मिलना
बस चाहती हूं खुद को खुद से
मैं भूल गई थी बुजर्गों की कहावत
'जा के पैर न फटे विवाई उ क्या जाने पीर पराई।'
 
हम भी बहुरूपी हैं, दो आंखों के अंधे हैं
जुबान वाले गूंगे हैं। होंठों पर लिपस्टिक का पर्दा है
आंखों मैं काजल सजा हुआ
समाज मैं किसे क्या कहना है, ये भी पूरा है धजा हुआ।
 
फिर भी हम चलो सब नाटक करें
कह दें कि हम सब एक रहें
जो हो ही नहीं पाया अब तक
ये शोर गया है अब सब तक।
 
चलो हम एक एक्ट करें
हम बेवकूफ हैं ये रियेक्ट करें।
एक ऐसी लड़ाई को जीतेंगे
जिसमें हारने पर ही मैडल है
सब दिखना है जैसे हैं, हम हैं
बस देखना है कि कैसे हैं हम
फिर करते हैं हम ऐसा एक्ट
जिसमें न हो सामाजिक रियेक्ट।
 
हम मजबूत हैं ये शोर करें
यह कह-कह खुद को बोर करें
क्यों नहीं समझते हैं हम सब
हैं नहीं किसी से होड़ मेरी
 

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