“सुनो, कल डिनर बाहर करेंगे। तुम्हारा महिला दिवस है। क्यों, ठीक है न?”
“नहीं, ठीक नहीं है।”
“अच्छा! जाने का मन नहीं है, तो पिज्जा आर्डर कर देंगे।”
“अरे, वह नहीं, यह महिला दिवस, यह ठीक नहीं है।”
“मतलब? भई, 8 मार्च, तुम लोगों का अपना दिन है।”
“तो बाकी 364 दिन तुम्हारे यानि पुरुष दिवस हुए?”
“नहीं है, पर यह एक दिवस मनाने से आभास ऐसा ही होता है।”
“ओह हो, तो क्या अब नारीवाद पर भाषण होने वाला है?”
“बिलकुल नहीं, बल्कि मैं इस कथित नारीवाद के खिलाफ हूं।”
“क्या कहना चाह रही हो? मुद्दा उलझ रहा है।”
“यही तो, इस मुद्दे को अनावश्यक उलझा दिया गया है। अच्छा रुको, अगर सुनना ही चाहते हो तो, चलो एक-एक कप कॉफी हो जाए।”
“वाह, मजा आ गया! अब कहूं...मेरा कहना सिर्फ इतना ही है, कि जितना सहज पुरुष का होना है, उतना ही स्वाभाविक है, स्त्री का होना। प्रकृति ने दोनों को समान जीवन, धरती, हवा और पानी दिया है। पुरुष तो अपने अस्तित्व का ढिंढोरा नहीं पीटते। अपने अधिकारों के लिए बैनर लेकर रास्तों पर नहीं उतरते। फिर स्त्री के मात्र होने का उत्सव क्यों? क्या विशेष उपलब्धि है, इसमें? पता है, ऐसा करने से एक हीनताबोध का अहसास होता है। ऐसा लगता है, जैसे कमजोर, उपेक्षित वर्ग को मुख्यधारा में लाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ रहा हो।”
“कमाल है! तुम तो सारे फेमिनिस्ट आंदोलनों पर ही सवालिया निशान लगा रही हो।”
“सच कहूं, अधिकांश फेमिनिस्ट विचारधाराएं मेरी समझ से परे हैं। ये या तो पुरुष को स्त्री के धुर विरोधी के रूप में पेश करती है या उसे विशिष्ट मान उसके जैसा होने की होड़ में दिखाई देती हैं।”
“तो मैं विरोधी हूं या विशिष्ट?.. हा...हा..”
“कुछ नहीं, न विरोधी न विशिष्ट। तुम सामान्य व्यक्ति हो, जैसे मैं साधारण इंसान। मैं तुम्हें पुरुषोचित गुणों के साथ स्वीकार करती हूं और तुम मुझे मेरे स्त्रीत्व के साथ। तुमने पुरुष के रूप में जन्म लेकर न कोई उपलब्धि हासिल की है, न मैंने स्त्री होकर कोई गुनाह किया है। पर इन अतिनारीवादी बातों ने कहीं स्त्री को दया का पात्र बना दिया है तो कहीं संघर्ष का प्रतीक। ‘पुरुषों की बराबरी’ के संघर्ष में स्त्री का एक अजीब, विद्रूप चेहरा सामने आ रहा है। ड्रिंक-स्मोक करना, देर रात तक घूमना, छोटे कपड़े पहनना, अपशब्द कहना, आजादी के मापदंड हो गए हैं।”
“ड्रिंक और अपशब्दों के लिए तुम किसी को भी बख्श नहीं सकती हो न।”
“हां, और बिना किसी लिंगभेद के। फिर स्त्री की मूल प्रकृति ही भिन्न है। उसका विरोध कर किसी दूसरे का रिप्लिका बनने की कोशिश सिर्फ फ्रस्टेशन की उपज लगती है। पिछले दिनों तुमने इसरो की महिला वैज्ञानिकों की तस्वीर दिखाई थी। स्त्री अस्मिता के साथ उन्होंने असाधारण काम किया। क्या ये आजादी नहीं?”
“पर हर जगह ऐसे हालात नहीं है। स्त्री पर बहुत अत्याचार हुए हैं और हो रहे हैं।”
“बेशक, जहां गलत हो रहा है, उसका निश्चित ही विरोध हो, पर विरोध की दिशा सही हो। अतिवादी और दिशाहीन प्रतिक्रियाएं विध्वंसक होती है और बुनियादी तौर पर सबसे जरुरी है, मानसिकता का बदलना। स्त्री-पुरुष दोनों को अपने को ‘व्यक्ति’ के रूप में स्थापित करना चाहिए और दूसरे का भी व्यक्ति के रूप में ही सम्मान करना चाहिए। शुरुआत घर-परिवार से हो, जहां सभी महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हो, निर्णय लेने में उनकी सक्रिय भागीदारी हो, बेटा-बेटी से समानता का व्यवहार हो। ताकि अगली पीढ़ी इस भेद के परे वैचारिक परिपक्वता के साथ बड़ी हो और बाहर भी महिलाओं के साथ उसी सहज सम्मान के साथ पेश आए।”
“बाप रे, तुमने सचमुच भाषण दे डाला। पर डिअर, मैं तुम्हारी भावना समझ गया हूं। हो सकता है कि इस तरह के आयोजनों से शायद स्त्री-पुरुष का भेद और गहराता हो।
”
“हां न! कल को बराबरी के लिए मैं कहने लगूं, 8 मार्च मेरा, 9 अप्रैल तुम्हारा.... नहीं! न कोई दिन मेरा और न कोई दिन तुम्हारा. सारे दिन हमारे। हम दोनों साथी हैं, दोनों की अपनी खूबियां-कमियां हैं। इन्हीं के साथ हम एक दूसरे को स्वीकार भी करते हैं, इसीलिए जीवन-पथ सुगम है।”
“बिलकुल दुरुस्त जी। अब सोने चलें? कल के ‘सामान्य’ दिन के लिए सुबह छह बजे उठना है।”