कहते हैं कि जहां गंदगी होती है वहां पर ही वायरस और बैक्टीरिया पनपते हैं। अत: कोरोना काल में साफ-सफाई के साथ ही शरीर और मन की शुद्धि का भी महत्व बढ़ गया है। आओ जानते हैं कि स्नान के कितने प्रकार हैं और यह कैसे किया जाता है। यहां मुख्यत: दो तरह के ही स्नान बताए जा रहे हैं परंतु इसके अलाव भी योग और आयुर्वेद की अन्य जानकारी जो आपके लिए लाभदायक सिद्ध होगी। आप चाहें तो इन्हें भी आजमा सकते हैं।
स्नान का महत्व : हमारी त्वचा में लाखों रोम-कूप है जिनसे पसीना निकलता रहता है। इन रोम कूपों को जहां भरपूर ऑक्सीजन की जरूरत होती है वहीं उन्हें पौषक तत्व भी चाहिए, लेकिन हमारी त्वचा पर रोज धुल, गर्द, धुवें और पसीने से मिलकर जो मैल जमता है उससे हमारी त्वचा की सुंदरता और उसकी आभा खत्म हो जाती है। त्वचा की सफाई का काम स्नान ही करता है। योग और आयुर्वेद में स्नान के प्रकार और फायदे बताए गए हैं। बहुद देर तक और अच्छे से स्नान करने से जहां थकान और तनाव घटता है वहीं यह मन को प्रसंन्न कर स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायी सिद्ध होता है।
स्नान के प्रकार : स्नान के दो तरीके हैं बाहरी और भीतरी। योगा स्नान कई तरीके से किया जाना है- सनबाथ, स्टीमबाथ, पंचकर्म और मिट्टी, उबटन, जल और धौती आदि से आंतरिक और बाहरी स्नान। इसके अलावा औषधि स्नान, दही स्नान और पंचामृत स्नान भी बहुत फायदे का होता है।
1.बाहरी : बाहरी या शारीरिक शुद्धता भी दो प्रकार की होती है। पहली में शरीर को बाहर से शुद्ध किया जाता है। इसमें मिट्टी, उबटन, त्रिफला, नीम आदि लगाकर निर्मल जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है। दूसरी शरीर के अंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए योग में कई उपाय बताए गए है- जैसे शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि।
सामान्य तौर पर किए जाने वाले स्नान के दौरान शरीर को खूब मोटे तोलिए से हल्के हल्के रगड़कर स्नान करना चाहिए ताकि शरीर का मैल अच्छी तरह उत्तर जाए। स्नान के पश्चात सूखे कपड़े से शरीर पोंछे और धुले हुए कपड़े पहन लेने चाहिए। इस तरह से शरीर स्वस्थ और निरोग रहता है।
2. भीतरी : भीतरी या मानसिक शुद्धता प्राप्त करने के लिए दो तरीके हैं। पहला मन के भाव व विचारों को समझते रहने से। जैसे- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भय को समझना और उनसे दूर रहना। इससे हमारा इम्युनिटी सिस्टम गड़बड़ा जाता है।
ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। अर्थात व्यक्ति स्वयं के समक्ष सत्य और ईमानदार बना रहता है। इससे जाग्रति का जन्म होता है। विचारों के असर की क्षमता बढ़ती है। भीतरी शुद्धता के लिए दूसरा तरीका है आहार-विहार पर संयम रखते हुए यम और प्राणायाम का पालन करना।
ठंठे जल से ही नहाएं : गर्म जल सर पर डालकर स्नान करना आंखों के लिए हानिकारक है, लेकिन शीतल जल लाभदायक है। मौसम अनुसार जल का प्रयोग करना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि ठंड में हम बहुत तेज गर्म जल से स्नान करें। गर्म पानी से नहाने पर रक्त संचार पहले कुछ उत्तेजित होता है किंतु बाद में मंद पड़ जाता है। लेकिन ठंडे पानी से नहाने पर रक्त संचार पहले मंद पड़ता है और बाद में उतेजित होता है, जो कि लाभदायक है।
रोगी या कमजोर मनुष्य को भी ज्यादा गर्म पानी से स्नान नहीं करना चाहिए। जिनकी प्रकृति सर्द हो, जिन्हें शीतल जल से हानि होती है, केवल उन्हें ही कम गर्म जल से स्नान करना चाहिए। भोजन के बाद स्नान नहीं करना चाहिए।
ठंडे पानी से स्नान करने के फायदे : शीतल या ठंडे जल द्वारा स्नान करने से उश्नावात, सुजाप, मिर्गी, उन्माद, धातुरोग, हिस्ट्रीया, मूर्च्छा और रक्त-पित्त आदि रोगों में बड़ा फायदा होता है।
स्नान के फायदे : स्नान से पवित्रता आती है। इससे तनाव, थकान और दर्द मिटता है। शरीर में ऑक्सीजन का लेवल बढ़ता है। यह शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने में भी सहयोग करता है और शरीर को निरोगी बनाता है। इससे पांचों इंद्रियां पुष्ट होती है। यह आयुवर्धक, बल बढ़ाने वाला और तेज प्रदान करने वाला है। इससे निद्रा अच्छी आती है। यह हर तरह की जलन और खुजली खत्म करता है। इससे त्वचा में निखार और रक्त साफ होता है। स्नान के पश्चात मनुष्य की जठराग्नि प्रबल होती है और भूख भी अच्छी लगती है।
आयुर्वेद का पंचकर्म:-
इसके मुख्य प्रकार बताएं जा रहे हैं परंतु इसके उप-प्रकार भी है। यह पंचकर्म क्रियाएं योग का भी अंग है।
1. वमन क्रिया : इसमें उल्टी कराकर शरीर की सफाई की जाती है। शरीर में जमे हुए कफ को निकालकर अहारनाल और पेट को साफ किया जाता है।
2. विरेचन क्रिया : इसमें शरीर की आंतों को साफ किया जाता है। आधुनिक दौर में एनिमा लगाकर यह कार्य किया जाता है परंतु आयुर्वेद में प्राकृतिक तरीके से यह कार्य किया जाता है।
3. निरूहवस्थी क्रिया : इसे निरूह बस्ति भी कहते हैं। आमाशय की शुद्धि के लिए औषधियों के क्वाथ, दूध और तेल का प्रयोग किया जाता है, उसे निरूह बस्ति कहते हैं।
4. नास्या : सिर, आंख, नाक, कान और गले के रोगों में जो चिकित्सा नाक द्वारा की जाती है उसे नस्य या शिरोविरेचन कहते हैं।
5. अनुवासनावस्ती : गुदामार्ग में औषधि डालने की प्रक्रिया बस्ति कर्म कहलाती है और जिस बस्ति कर्म में केवल घी, तैल या अन्य चिकनाई युक्त द्रव्यों का अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाता है उसे अनुवासन या 'स्नेहन बस्ति कहा जाता है।