कैसे बचाएँ सिंचाई जल!

Webdunia
बुधवार, 5 दिसंबर 2007 (14:50 IST)
- मणिशंकर उपाध्याय

किसी भी प्राणी की अपेक्षा वनस्पतियों जैसे फसल, चारा, फल आदि के पौधों को अपना जीवन क्रम जारी रखने के लिए कई गुना अधिक पानी की जरूरत होती है। हालाँकि पौधे अपनी पानी की जरूरत की पूर्ति वर्षा, ओस, वातावरणीय नमी आदि से तने, पत्तियों के द्वारा कर लेते हैं, परंतु उनकी जलीय आवश्यकता के बड़े अंश की पूर्ति भूमि जल से ही होती है। यह भूमि जल पौधे अपनी जड़ों के द्वारा प्राप्त करते हैं। भूमि के जल को तीन प्रकार के जल में वर्गीकृत किया गया है।

ये हैं आर्द्रताग्राही (हाइग्रोस्कोपिक) जल, केशीय (केपेलरी) जल और गुरुत्वीय (ग्रेविटेशनल) जल। इनमें से केशीय जल ही पौधों के उपयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वर्षा होने पर 24 घंटे में पानी की काफी मात्रा जमीन में उतरकर निचली सतहों में पहुँच जाती है। इसे गुरुत्वीय जल कहा गया है।

मिट्टी में पानी कोलायड्स व मिट्टी के विभिन्न आकार के कणों की सतह और उनके बीच में पाए जाने वाली खाली जगह में भर जाता है। यह एक विशेष आकर्षण बल जिसे मृदा आर्द्रता तनाव कहते हैं, के कारण मिट्टी में ठहरा रहता है।

पौधों की जड़ें इन्हीं कणों की सतह या उनके बीच में अपनी मूल रोम (रूट हेयर्स) के द्वारा प्राप्त करते हैं। अतः पौधों को जल प्राप्त करने के लिए जड़ रोमों के माध्यम से कणों की सतह या उनके बीच की जगह से जल प्राप्त करने के लिए मृदा आर्द्रता तनाव से अधिक बल लगाना पड़ता है।

यह बल अलग-अलग किस्म की मिट्टियों में उनके कणों के आकार और उनकी जमावट या व्यवस्था के हिसाब से अलग-अलग होता है। इसी कारण पौधे काली चिकनी मिट्टी की अपेक्षा रेतीली मिट्टी से आसानी से जड़ों द्वारा पानी ले लेते हैं।

मिट्टी की जल धारण क्षमता यानी पानी की अधिक मात्रा को धारण करने के लिए जीवांश पदार्थ बहुत सहायक होता है। यही नहीं जीवांश युक्त मिट्टी में पानी अधिक समय तक भी संग्रहीत रहता है। चिकनी या रेतीली दोनों ही तरह की मिट्टियों में भरपूर जीवांश पदार्थ डालने से उनकी भौतिक दशाओं में सुधार होता है। इन मिट्टियों की जल धारण क्षमता, जल संग्रहण क्षमता, वायु संचरण, मृदा तापमान में सुधार होता है।

जीवांश पदार्थ सूक्ष्म जीवों का आहार होने के कारण जैविक गतिविधि भी बढ़ जाती है। इससे पौधों के पोषक तत्वों की उपलब्धता भी आसान हो जाती है।

सिंचाई जल के मितव्ययितापूर्वक उपयोग के लिए निम्न उपायों को समन्वित किया जाता है-

* खेत में पर्याप्त मात्रा में जीवांश खाद का उपयोग करें।

* गर्मी में खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद खेत को ढेलेदार अवस्था में बरसात होने तक पड़े रहने दें।

* खेत को समतल करें, जिससे सिंचाई जल का वितरण समान रूप से हो सके।

* फसल की जरूरत के अनुसार व मिट्टी की किस्म के अनुसार नालियाँ व मेढ़ें या क्यारी या बेसिन की सिंचाई विधि अपनाएँ।

* खतरपतवारों का नियंत्रण करें।

* फसल की कतारों के बीच में पतवार (मलच) बिछाएँ। यह पतवार पुराने खराब भूसा, कड़बी, सब्जियों (फूल गोभी, पत्तागोभी) के पत्ते, गन्ने की पत्तियों, बेशरम की पत्तियों या आसपास उगने वाले पेड़ों की पत्तियों आदि की हो सकती है। पेड़ों की पत्तियाँ न मिलने पर फसल की कतारों के बीच डोरा चलाकर या खुरपी आदि से गुड़ाई कर दें। इससे भूमि पर अवरोध परत बन जाएगी व जमीन की निचली सतह में संग्रहीत नमी की हानि कम हो जाती है।

इन सब उपायों से अधिक कारगर है फुहार सिंचाई विधि या टपक सिंचाई विधि अपनाना। इससे 20 से 40 प्रतिशत तक जल बचाया जा सकता है।

किस फसल को चाहिए कितना पानी : रबी में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलें गेहूँ, चना, मसूर, जौ, मटर, आलू, टमाटर, प्याज, मूली, चुकन्दर, बरसीम (पशु चारा) आदि हैं। इनके सफल उत्पादन के लिए औसतन गेहूँ 45-50 सेमी, चना, जौ, सरसों मसूर के लिए 15-20 सेमी, टमाटर के लिए 45-50, आलू के लिए 45-50 बरसीम के लिए 60 से 75 सेमी, प्याज के लिए 60 से 70 सेमी, मूली के लिए 20-30 सेमी पानी की प्रति एक हैक्टेयर जरूरत होती है।

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