कैसे मिले सोयाबीन से अधिक उपज

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- मणिशंकर उपाध्याय

मध्यप्रदेश के किसानों को सोयाबीन उगाने का लगभग 40-50 साल का अनुभव तो हो ही गया है। फिर भी इसकी उपज के हिसाब से मध्यप्रदेश का प्रति हैक्टेयर औसत उत्पादन लगभग एक टन (दस क्विंटल) प्रति हैक्टेयर के आसपास ही झूल रहा है। कारण कुछ किसान यदि इसकी उपज 6 क्विंटल प्रति बीघा ले रहे हैं, तो ऐसे किसान भी हैं जो प्रति बीघा डेढ़ से दो क्विंटल से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। उत्पादन क्षमता में यह फसल कमजोर नहीं है।

इसका उत्पादन 30-35 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक कई जगह लिया जा रहा है। उपज में इस भारी अंतर का कारण जानने के लिए अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थानों पर कुछ सर्वे किए गए। उनसे प्राप्त आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले गए, जो इस प्रकार हैं-

भूमि का चयन : सोयाबीन की खेती के लिए अधिक हल्की और पर्याप्त मात्रा में चिकनी मिट्टी (क्ले सोइल) दोनों ही भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती हैं। इसे मध्यम प्रकार की मिट्टी में बोया जाना चाहिए। हल्की भूमियों में इसकी बहुत जल्द पकने वाली किस्में जैसे एसएस 2, सम्राट, मोनेटा आदि किस्में ली जा सकती हैं, परंतु ये किस्में उपज कम देती हैं।

बीज व खाद को मिलाकर बोया जाना : सोयाबीन के बीज का छिलका पतला और नाजुक होता है। अधिकांश किसान सोयाबीन व डीएपी एक साथ मिलाकर बुवाई करते हैं। क्योंकि बीज, खाद बुवाई यंत्र (सीड कम फर्टि ड्रिल) बहुत कम लोगों के पास है। इससे जब भी जमीन में नमी की कमी और तापमान बढ़ते हैं, तो बीज, खाद के रसायन के संपर्क में आकर खराब हो जाते हैं व अंकुरण कम होने से प्रति इकाई वांछित पौध संख्या नहीं आ पाती है।

बीच उपचार : सोयाबीन में अभी भी अंकुरण के समय रोगों के नियंत्रण के लिए फफूँद रोग नाशक रसायन या जैविक नियंत्रण के लिए प्रोटेक्ट (ट्राइकोडर्मा विरिडि) का तथा नत्रजन स्थिरीकरण के लिए राइजोबियम कल्चर एवं स्फुर घोलक बैक्टीरिया का उपयोग बहुत ही कम किसानों द्वारा किया जा रहा है।

उपयुक्त किस्मों का चयन : राष्ट्रीय सोयाबीन अनुसंधान केंद्र एवं विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा अलग क्षेत्रों के लिए वहाँ की कृषि जलवायु एवं मिट्टी के लिए अलग किस्मों का विकास किया गया है एवं किस्में समर्थित की गई हैं। उसी के अनुसार सोयाबीन किस्में बोई जानी चाहिए। इन किस्मों का थोड़ा बीज लाकर अपने यहाँ ही इसे बढ़ाकर उपयोग में लाया जा सकता है।

फसल चक्र/अंतरवर्ती फसल : कई जगह लगातार सोयाबीन उगाए जाने के कारण मिट्टी में रोगाणुओं का स्थायी घर बन गया है। इनमें सोयाबीन उगाए जाने पर हर साल फसल रोगों से ग्रसित होती है। ऐसे खेतों में फसल-चक्र या अंतरवर्ती फसल उगाकर खेतों को ठीक किया जाना चाहिए। कुछ रोगों को जुवार फसल बोकर नियंत्रित होते पाया गया है।

पौध संख्या : किसी भी फसल की कुल उपज में प्रत्येक पौधे का योगदान होता है। इसलिए हर एक पौधे के महत्व को समझते हुए फसल की कुल पौध संख्या प्रति हैक्टेयर निर्धारित की जाती है। पौध संख्या का निर्धारण फसल या उसकी किस्म के पौधे के फैलाव के आधार पर किया जाता है। इसके लिए विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में परीक्षण किए जाते हैं। सोयाबीन की कम फैलने वाली किस्मों की कतारों में 30 से 35 व अधिक फैलने व लंबी अवधि वाली किस्मों की कतारों के बीच 40 से 45 सेमी का अंतर रखा जाता है।

एक ही कतार में पौधे से पौधे के बीच 10 से 12 सेमी की दूरी रखी जानी चाहिए। पौधों को अधिक घना रखने से पौधे के निचले भाग तक हवा व धूप नहीं पहुँच पाती है। इसी कारण कीड़े व रोग लगने की आशंका बढ़ जाती है। दूसरे, घने पौधों में नीचे की तरफ फलियाँ कम या नहीं लगती हैं।

खरपतरवार नियंत्रण : खरपतवार नियंत्रण के लिए डोरा या कोल्पा चलाया जाना, नींदानाशक रसायन के उपयोग से बेहतर है। क्योंकि इससे खेत में पलवार हो जाती है, जिससे सतह से नमी की हानि रुक जाती है। इसके अलावा मिट्टी में वायु संचरण भी अच्छा हो जाता है, जो जड़ों के विकास, वृद्धि व पोषक तत्वों के शोषण के लिए महत्वपूर्ण है।

कीट रोग नियंत्रण के उपाय आवश्यकता के अनुसार करें। शेड्यूल नहीं अपनाएँ। हर साल मौसम के अनुसार अलग-अलग कीड़े या रोग और उनके प्रकोप की तीव्रता होती है। अंत में समय पर कटाई से बीज नहीं झड़ते हैं। गहाई में सावधानी से दाने नहीं टूटते हैं।

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