चने की सुण्डी का जैविक नियंत्रण

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- डॉ. एसपी सिंह, परियोजना निदेशक (जैविक नियंत्रण)

भारत में चने की सुण्डी (इल्ली) व्यापक रूप से पाई जाती है और ये कई कृषिगत फसलों और जंगली पौधों को नुकसान पहुँचाती है। यह कीट कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, गुजरात, उत्तरप्रदेश तथा बिहार में दलहनी फसलों को अत्यधिक हानि पहुँचाता है।

यह कीट दलहनी फसलों जैसे चना, अरहर, मटर, मूँग, उड़द, मसूर, सोयाबीन और लोबिया की फसलों को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है। दलहनी फसलों के अलावा यह कीट कपास, मक्का, सूर्यमुखी, तंबाकू, टमाटर एवं अन्य अनेक सब्जी वाली फसलों को भी हानि पहुँचाता है।

इस कीट के प्रौढों के मुखांग साइफनाकार होते हैं, इसलिए ये पौधों को हानि नहीं पहुँचाते। वे केवल फूलों का मकरंद चाटते हैं। प्रौढ़ केवल प्रजनन तथा फसल में क्षति विस्तार बढ़ाने का कार्य करते हैं। इस कीट की मादा प्रायः पौधे के पुष्प क्रम, कोमल पत्तियों और पॉड (घेंटी) पर फुटकर में 500-1000 अण्डे रखती है। इसके अण्डे गोल, चमकदार, हरियाले पीले रंग के होते हैं।

अण्डे अक्टूबर में 3-4 दिनों में और नवम्बर में 4-8 दिनों में पक जाते हैं और तब अण्डे से सुण्डी बाहर निकलती है। इस कीट की फसल को हानि पहुँचाने वाली अवस्था सुण्डी होती है जिसके मुखांग काटने, चबाने वाले होते हैं। सुण्डी मुलायम पत्तियों, कलियों और मुलायम टहनियों को खा डालती है। इसकी सुण्डी का रंग चमकदार हलका हरा और नीचे की सतह से सफेद होता है।

सुण्डी (इल्ली) जब छोटी होती है, तो पॉड में छिद्र करके सम्पूर्ण अन्दर घुस जाती है और पॉड के अन्दर बनने वाले दाने को खाकर सम्पूर्ण पॉड (घेंटा या फली) को खोखला कर देती है। एक पॉड खोखला करने के बाद यह सुण्डी दूसरे पॉड पर जाकर उसमें छिद्र करके शरीर का अगला कुछ भाग अन्दर घुसाकर दाने को खाती है और सुण्डी का शेष भाग पॉड के बाहर लटकता रहता है। पॉड खोखला होकर पकने के पूर्व ही सूखकर पीला पड जाता है।

पॉड में एक गोल छिद्र, कुछ आधे कटे चने के दाने और सुण्डी की विष्ठा पाई जाती है। इस तरह एक सुण्डी प्यूपा बनने तक 30-40 पॉड नष्ट करती है। यह चने का एक बहुत प्रमुख हानिकारक कीट है जिससे प्रतिवर्ष चने की फसल को कई लाख रुपए की हानि होती है। इन सुण्डियों का प्रकोप प्रायः नवम्बर से मार्च तक रहता है।

इस कीट की सुण्डी 18-25 दिनों में पूर्ण विकसित होकर मिट्टी में चली जाती है, जहाँ पर ये मिट्टी की कोष्ठ बनाकर उसमें प्यूपा/शंखी बनती है, जिनसे 7 से 14 दिनों में प्रौढ़ निकलते हैं।

जैविक नियंत्रण ः (अ) हे.एन.पी.वी. को चने की सुण्डी (हेलीकोवर्पा आर्मिजेरा) का जैविक नियंत्रण करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा (हे.एन.पी.वी.) का न्युक्लियर पोलीहेड्रेसिस विषाणु- हे.एन.पी.वी.को.हे. आर्मिजेरा के प्रति एक बहुत प्रभावी सूक्ष्मजीवी जैवनाशी के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह हे. आर्मिजेरा के प्राकृतिक रूप से मरे हुए लार्वों की विभिन्नता से बनाया जाता है। यह हे. आर्मिजेरा के प्रति अत्यन्त प्रभावी पाया जाता है। हे.एन.पी.वी. जुलाई, 1965 में आणंद, गुजरात में खेतों से एकत्रित लार्वों में सर्व प्रथम पाया गया।

हे.एन.पी.वी. के उत्पादन के लिए परपोषी कीटों का उत्पादन आवश्यक है। परपोषी कीटों (चने की सुण्डी) को प्रयोगशाला में कृत्रिम आहार पर बहुसंख्या में पाला जाता है।

हे.एन.पी.वी.का उत्पादन : हे.एन.पी.वी. के उत्पादन के लिए हे.आर्मिजेरा पालने के लिए प्रत्येक कोष्ठ में 4 ग्राम आहार डालते हैं और निर्जर्म डिस्टिल्ड पानी में तैयार विषाणु 18द106 पीओबी/मिली लीटर (पॉली हेड्रय ऑकल्जन बाडीज/मि.लि.) को आहार की सतह पर एक समान फैला देते हैं (आहार सतह को भिगोए बिना आच्छादित करने के लिए पर्याप्त मात्रा)।

5-7 दिन पुराने कुल लार्वों (इल्लियों) के 80 प्रतिशत लार्वों को हे.एन.पी.वी. उत्पादन के लिए और शेष बचे 20% लार्वों को ट्रे में, जिसमें कि 6 ग्राम आहार/लार्वा की दर से निरन्तर परपोषी सम्वर्धन के लिए पालते हैं। ट्रे को 7 दिनों तक इन्क्यूबेटर में 260 से.ग्रे. पर रखते हैं। यदि ट्रे विषाणुग्रस्त है तो 7 दिनों के बाद रोगग्रस्त/मृत लार्वे निकालकर उन्हें डिस्टिल्ड और निर्जर्म पानी के साथ मिलाकर मिक्सी की सहायता से मसलते हैं।

पी.ओ.बी. की संख्या/मिलीलिटर के आधार पर उत्पादन को प्रमाणित किया जाता है और इसको 95% निर्दिष्ट सीमा सीमित एल.सी.50 नाम दिया जाता है। पी.ओ.बी. को डिस्टिल्ड पानी में संग्रहित किया जा सकता है और प्लास्टिक की केन/बोतल में पैक किया जाता है। डिब्बों के ऊपर उचित निर्देश लिख दिए जाते हैं।

उत्पादन किए गए विषाणु 250 सुण्डी (लार्वा इक्वीवेलेंट-एल.ई.) अर्क/हे/छिड़काव की दर से एक मौसम में चने की लगभग 70.77 हेक्टेयर फसल क्षेत्रफल में 3 बार प्रयोग करने के लिए पर्याप्त होते हैं। एक लार्वा समतुल्य 6द109 पीओबी के बराबर या सक्रियता में उनके समतुल्य होता है। एक हे. एन.पी.वी. संक्रमित लार्वे की उत्पादन लागत लगभग 1 रुपए (ऊपरी प्रभार मिलाकर) जो कि उत्पादन बढ़ाए जाने पर और भी कम हो सकती है। हे.एन.पी.वी. को ठण्डे/अन्धेरे स्थान पर कमरे के तापक्रम पर संग्रहित किया जा सकता है।


खेत में हे. एन.पी.वी. का प्रयोग- हे.एन.पी.वी. को 250 सुण्डी अर्क (एक सुण्डी अर्क=6द109 पीओबी) प्रति हेक्टेयर की दर से नेप-सेक स्प्रेयर की सहायता से शाम के समय छिड़काव किया जाता है। खेत में चने की सुण्डी के प्रभावी नियंत्रण के लिए तीन से चार बार छिड़काव करना चाहिए। चने की फसल में हे.एन.पी.वी. के साथ कच्ची चीनी 0.5%, मूँगफली की खली 1%, चने का आटा 1% या 0.25% कच्ची चीनी+0.25% चने का आटा+0.5% मूँगफली की खली का मिश्रण मिलाकर प्रयोग करने से चने की सुण्डी के प्रति हे. एन.पी.वी. की घातकता 40-60% तक बढ़ जाती है और औसतन 80-90% सुण्डियाँ मर जाती हैं। हे. एन.पी.वी. का छिड़काव करने से 3-5 दिनों में ही चने की सुण्डियाँ हे. एन.पी.वी. विशिष्ट लक्षण दिखाते हुए मर जाती हैं। (मरी हुई सुण्डियाँ पौधों पर उल्टी लटकी दिखाई देती हैं।)

एन.पी.वी. के लक्षण और कार्यप्रणाली : एन.पी.वी. एक उदर विष के रूप में कार्य करता है। यह एक विशेष और चयनित विषाणु जैव-कीटनाशी है जो केवल लक्ष्यांक कीटों को मारता है। अन्य कीटों को नहीं मारता है। संक्रमित लार्वे धुँधले, चमकदार और ऊतक टूटे तथा द्रवीय हो जाते हैं। शरीर के लगभग सभी ऊतक और अंग (आहार नली को छोडकर) पी.ओ.बी. से संक्रमित हो जाते हैं जिनमें विषाणु होते हैं। संक्रमित लार्वों (जो पौधे पर नीचे को लटके होते हैं) से जो द्रव रत्रावित होता है, उसमें मिलियनों पीओबी होते हैं। प्रत्येक पीओबी मापने पर त्रिज्या में केवल एक माइक्रोन और ब्राउनीय गति करते हैं। यह एक सामान्य सूक्ष्मदर्शी से पहचाने जा सकते हैं।

एन.पी.वी. प्रयोग के निर्देश : स्प्रेयर से छिड़कते समय अधिक आयतन वाले नेप-सेक स्प्रेयर का प्रयोग करना चाहिए। विषाणुओं को शाम के समय छिड़कना चाहिए। जब भी अण्डों से लार्वे निकलते दिखाई दें तब या फेरोमोन प्रपंच में 5 मौथ पकड़े जाने के 3-5 दिनों के बाद छिड़काव आरम्भ कर देना चाहिए।

कीटों की संख्या के आधार पर 7-10 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करते रहना चाहिए। 200 मि.ली. एन.पी.वी./एकह़ या 500 मि.ली./हेक्टेयर क्रमशः 100 और 250 सुण्डी अर्क एन.पी.वी. सक्रिय होता है। अप्रभावी पदार्थ के लिए (एक सुण्डी अर्क=6द109 पीओबी)।

100 मि.ली. एन.पी.वी. में अधिक आयतन के स्प्रेयर के लिए 200-400 लीटर पानी और पावर स्प्रेयर के लिए 50-70 लीटर पानी मिलाया जाता है।

एन.पी.वी. के लिए अनुकूलता और सुरक्षा : हे.एन.पी.वी. परजीवी/परभक्षी कीटों और जैव-कीटनाशी के प्रति अनुकूल है। अंतिम छिह़काव से कटाई तक कोई प्रतीक्षाकाल नहीं होता, क्योंकि यह सुरक्षित एवं चयनित होता है और मनुष्यों, पशुओं, लाभदायक कीटों आदि को कोई हानि नहीं पहुँचाता है।

एन.पी.वी. प्रयोग करते समय ध्यान देने योग्य बातें : 1. लक्ष्यांक हानिकारक कीट के अलावा अन्य कीट को नियंत्रित करने के लिए इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि हे. एन.पी.वी. विषाणु विशेष होते हैं। 2. चूँकि यह एक उदर विष है, इसलिए इसका पौधे के सभी भागों पर छिड़काव करना चाहिए। 3. छिड़काव करते समय, स्प्रेयर को हिलाते रहना चाहिए, अन्यथा पीओबी पैंदी में बैठ जाते हैं। 4. सूर्य के सीधे प्रकाश से विषाणुओं की क्षमता कम हो जाती है।

अतः सूर्य के सीधे प्रकाश से बचाने के लिए शाम के समय या सम्भव हो सके तो रात में छिड़काव करना चाहिए। 5. किसी भीगने वाले/चिपकने वाले छिड़काव कारकों जैसे-भीगने वाली गोंद, टीपॉल, ट्रिटॉन द- 100 आदि में मिलाकर छिड़कना चाहिए। 6. अल्ट्रा वॉयलेट संरक्षी कारक जैसे टिनोपाल/रानिपाल मिलाकर प्रयोग करना चाहिए। 7. जब भी आवश्यकता हो ताजा संग्रहण ही करना चाहिए। 8. हे.एन.पी.वी. का प्रयोग रोधात्मक मापक या वार्षिक योजना आधार पर नहीं करना चाहिए। 9. यह नहीं अनुमान लगाना चाहिए कि यह कीट को तुरन्त मार देगा। 10 छिड़काव तभी करें जबकि खेत में कीटों की ग्रहणशील दशाएँ (जब लार्वे छोटे होते हैं) उपलब्ध हों, क्योंकि इस दशा में लार्वे एन.पी.वी. के प्रति अधिक ग्रहणशील होते हैं।

( ब) बी.टी. जो कि व्यावसायिक रूप से बाजार में उपलब्ध होती है, को भी चने की सुण्डी का नियंत्रण करने के लिए प्रयोग किया जाता है।

हे. एन.पी.वी. और बी.टी. का प्रयोग करने से चने की सुण्डी को सफलतापूर्वक नियंत्रित किया जाता है और साथ ही साथ इनका प्रयोग करने से चने की सुण्डी के अनेक परजीवी कीटों (केम्पोलेटिस क्लोरिडीए, एरीबोरस अर्जेंटिओपाइलोसस, पेलेक्सोरिष्टा लेक्सा, गोनिओप्थेल्मस हल्ली और इसके प्यूपा परजीवी कीट जैंथोपिंपला स्पे.) और शिकारी कीट रेडयुविड बगों (कोरेनस स्पे. और राहइनोकोरस स्पे.) के संरक्षण की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।

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