विश्व हिन्दी सम्मेलन संपन्न : हरि अनंत, हरि कथा अनंता

स्मृति आदित्य
हिन्दी के लिए हिन्दी के प्रदेश में हिन्दी सम्मेलन हुआ। लाल सुगंधित माटी पर भव्यता से हिन्दी के लिए राजमहल सजाया गया। सुरक्षा से लेकर खानपान तक के व्यापक इंतजाम किए गए। हिन्दी विद्वानों और हिन्दी की सेवा करने वालों के नाम पर सुसज्जित द्वार और कक्ष बनाए गए। कहीं कलम की ज्योत में हिन्दी जलती मिली तो कहीं बोधीवृक्ष की छांव में हिन्दी विश्राम करती मिली। कहीं हिन्दी के लिए समर्पित महानुभावों की तस्वीरों से प्रेम रस बरसाती मिली, कहीं श्वेत वस्त्रों में सजी मेजों पर चिंतन करती मिली।     

 
भारत की ह्रदयस्थली मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 10 से लेकर 12 सितंबर तक हिन्दी चारों तरफ मुस्कुराई। हर तरफ विश्व हिन्दी सम्मेलन के ही चर्चे हुए। कहीं विरोध तो कहीं उत्साह लेकिन हिन्दी इन सबके केन्द्र में रही। फेसबुक से लेकर टिवटर तक ट्रेंड में रही। 
 
हर तरफ गुंजा यह गान कि हिन्दी को विश्व भाषा बनाना है। यह जितना सरल और मीठा सुनने में लगता है  उतना ही कठोर और कड़वा यह सच है कि 68 वर्षों की आजादी के बाद भी हम उसे 'राष्ट्रभाषा' तक नहीं बना सके। आइए जानें 4 दिन तक कैसा रहा हिन्दी सम्मेलन के चिंतन-मनन का माहौल : 
 
पहला दिन : पहले दिन प्रधानमंत्री मोदी आए उद्घाटन सत्र के लिए। हिन्दी पर अपनी बात कहने के लिए वे जिस तामझाम के साथ आए उसने कई हिन्दी प्रेमियों को निराश कर दिया। हिन्दी को सच्चे दिल से चाहने वाले लाल परेड ग्राऊंड के आसपास भी नहीं पहुंच सके और उनके सामने रसायन, मानविकी और भौतिकी जैसे विषयों के वे शिक्षक जाते दिखे जिनका भाषा से सीधा कोई वास्ता नहीं था। सच्चे हिन्दी प्रेमियों के चेहरों पर बेबसी 'हिन्दी' जैसी ही थी। इनमें आमंत्रित भी थे, प्रतिनिधि भी और प्रबंधक भी। मीडिया के भी सारे मुगालते वहीं जाकर दूर हुए जब हर जगह से उन्हें बिना बात धकेला गया।  
 
पहले दिन हर किसी के चेहरे पर हिन्दी के प्रति चिंता या चितंन से ज्यादा परेशानी इस बात की नजर आई कि  कैसे हिन्दी सम्मेलन में प्रवेश मिल सके। इनमें कुछ वे लोग भी थे चाहे हिन्दी से जिनका रोज का लेना-देना ना हो, चाहे हिन्दी के प्रति, हिन्दी के प्रयोग के प्रति या हिन्दी की शुद्धता के प्रति कभी गंभीर हुए हो या नहीं पर हिन्दी सम्मेलन में प्रवेश इज्जत का सवाल बन गया। प्रवेश पत्र की मारामारी का आलम यह रहा कि जो लोग हिन्दी सम्मेलन की अग्रिम कुर्सियों पर विराजमान होने के शत-प्रतिशत आश्वस्त थे, एन वक्त पर उनके भी चेहरे से हवाइयां उड़ रही थी और वे प्रधानमंत्री तो दूर उनको दिखा‍ते लगे विशालतम पर्दों से भी दूर नजर आए। 
 
बड़े-बड़े दिग्गज, संपादक स्तर के लोग, साहित्यकार कहे और माने जाने वाले हैरान-परेशान से हिन्दी सम्मेलन के आसपास राजनीति के धुरंधरों को फोन लगाते नजर आते रहे। मजे की बात तो यह कि भोपाल पुलिस भी बेबस दिखाई दी क्योंकि उन्हें मुख्य भूमिका में रखा ही नहीं गया। सारी पुलिस व्यवस्था, सुरक्षा के मद्देनजर बाहर से बुलवाई गई। जिन्हें प्रवेश चाहिए था वह यह समझ नहीं पा रहे थे कि जाए तो जाए कहां? गुहार भी लगाए तो किसके पास? कई तो ऐसे मिले जो 5000 की राशि जमा कर के भी लूटे-पिटे से लगे।  
 
असल में शहर के जिलाधीशों से शहर के 50 प्रमुख साहित्यकारों की सूची मांगी गई थी। दिलचस्प तथ्य यह है कि कलेक्टर (माफ कीजिएगा, चाहो ना चाहो अंगरेजी मुंह से फिसल ही जाती है) जिन जिलाधीशों को यह नहीं प‍ता कि जिस शहर में वे प्रमुख बन कर बैठे हैं उस शहर की विरासत क्या है, संस्कृति और परंपरा क्या है वह भला कैसे और किस मुंह से शहर के साहित्यकारों और भाषाविदों की सूची पेश करेगा? जिलाधीशों ने यह काम जिन्हें सौंपा वे तहसीलदार थे, उन्होंने यह सूची बनाने की जिम्मेदारी शिक्षा विभाग को सौंपी सो उनकी नजर में अधिकांश शिक्षक ही सम्मेलन में जाने लायक भाषाविद् और 'साहित्यकार' पाए गए। खैर आनन-फानन तैयार सूची में कुछ सच्चे हिन्दी प्रेमी रह गए और कुछ स्वनामधन्य रह गए तो कोपभाजन का शिकार हिन्दी सम्मेलन और आयोजक को होना पड़ा। 
 
हिन्दी सम्मेलन में कुछ लोगों को आमंत्रण नहीं मिला तो उन्हें हिन्दी ही बुरी लगने लगी। वे अपना गुस्सा बहुत कठिन अंगरेजी शब्दों में व्यक्त करते नजर आए। अंगरेजी भी इतनी कठिन कि पलट कर उनसे ही अर्थ पूछ लो तो अकबका जाए। पहले दिन ही विदेश राज्‍य मंत्री और पूर्व सेनाध्‍यक्ष जनरल वीके सिंह का एक बयान भी विवादों में आ गया, जिसमें उन्‍होंने कहा कि 'भारतीय लेखक आते हैं, खाते हैं, पीते हैं और पेपर पढ़ कर चले जाते हैं।'
 
बहरहाल, भीतर सम्मेलन स्थल बहुत आकर्षक सजाया गया। हर तरफ हिन्दी के स्वर्णिम सूत्र अच्छे लगे। सुंदर कविताएं सजी। गूगल, सी-डैक, माइक्रोसॉफ्ट और वेबदुनिया की प्रदर्शनियों में युवाओं को लुभाने के पर्याप्त इंतजाम किए गए। इन प्रदर्शनियों में बताया गया कि अत्याधुनिक मोबाइल में और नित नूतन होते सोशल मीडिया में हिन्दी सरल-तरल सी बह रही है। सब कुछ बहुत सरल है बस अपनाने भर की देर है। 
प्रधानमंत्री मोदी सम्मेलन के शुभारंभ से पूर्व भाजपा कार्यकर्ताओं से मिलने चले गए। उनके आने तक सुरक्षा के नाम पर इतनी सख्ती की गई कि परिंदा भी पर ना मार सके। जहां-जहां रोके गए लोगों का जमावड़ा था, वे विक्षुब्ध दिखाई दिए। प्रधानमंत्री के जाते ही सत्रों में कुछ रवानगी नजर आई और अंदर प्रवेश पा सके सौभाग्यशाली लोग परस्पर अपने लोगों से मिलते-जुलते और परिचय देते-लेते दिखाई दिए। ज्यादातर आकर्षण का केन्द्र वे विदेशी लोग रहे जो विशुद्ध सुंदर हिन्दी में बोल रहे थे।

* गिरमिटिया देशों में हिन्दी, विदेशों में हिन्दी शिक्षण, समस्याएं और समाधान, विदेशियों के लिए भारत में हिन्दी अध्ययन की सुविधा तथा अन्य भाषा भाषी राज्यों में हिन्दी विषयों पर सत्र उल्लेखनीय रहे। रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगर सभागार में विदेश नीति में हिन्दी, अलेक्सेई पेत्रोविच वरान्न‍िकोव सभागार में प्रशासन में हिन्दी, विद्यानिवास मिश्र सभागार में विज्ञान क्षेत्र में हिन्दी, कवि प्रदीप सभागार में  संचार एवं सूचना प्रोद्यौगिकी में हिन्दी विषय पर आयोजित इन चार समानांतर सत्रों में अतिथियों ने थकान और गर्मी के बीच भी आकर्षक और सारगर्भित उद्बोधन दिए।

शाम 5 बजे मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम द्वारा, मानव संग्रहालय और जनजातीय संग्रहालय जैसे दर्शनीय स्थलों का भ्रमण की व्यवस्था की गई। 
 
शाम 7:30 बजे से 8:30 बजे तक सम्मेलन में पधारे सभी अतिथियों ने भारत सरकार की ओर से आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद लिया।
 
कुल मिलाकर थकान के साथ रोचकता, रोमांच और रस से भरपूर रहा हिन्दी सम्मेलन का प्रथम दिन। 

दूसरा दिन : इस दिन पास की मारामारी कम हुई। लोग हंसते-मुस्कुराते-खिलखिलाते दिखाई दिए। बेतहाशा गर्मी ने प्रतिभागियों के भरपूर मजे लिए बावजूद इसके हर तरफ रौनक और राहत नजर आई। कवि और साहित्यकारों के नाम पर बने सभागारों में चमकते चेहरों की चहल-पहल अच्छी लग रही थी। काका साहब कालेलकर भोजन कक्ष में रखी गई भरपूर सुविधाएं भी गर्मी के समक्ष थोड़ी शिथिल हुई पर अब तक के अधिकांश सम्मेलनों में भाग ले चुके प्रतिनिधियों के अनुसार इतना उत्तम इंतजाम किसी और सम्मेलन में नहीं रहा लिहाजा आतिथ्य के पूरे अंक मुख्यमंत्री शिवराज सिेंह चौहान के खाते में गए। ठंडी छाछ हो या चाय-कॉफी.. हर 10 कदम पर प्रतिभागियों की  प्रतीक्षा करती मिली।


 


भूट्टे के इंदौरी व्यंजन और पारंपरिक राजस्थानी भोजन सजे मिले पर विशिष्ट अतिथि के लिए कालेलकर कक्ष और प्रतिनिधियों के लिए दुष्यंत कुमार भोजन कक्ष में व्यवस्था रखी गई यह बात लंबी दूरी से आए थके हुए मेहमानों को अखर गई। सत्रों में भी जहां मीडिया की रूचि थी वहां उन्हें प्रवेश नहीं दिया। जैसे राहुल देव, राजेन्द्र शर्मा, मृणाल पांडे, ओम थानवी जैसे प्रखर वक्ताओं को बोलते हुए रिकॉर्ड करने का अरमान कई बड़े पत्रकारों का धरा रह गया क्योंकि उनके पास वह 'पास' नहीं थे जो उन्हें अंदर जाने देते। तो फिर भला कैसे पास लाने चाहिए कि सत्र का कवरेज किया जा सके इस बात का संतोषजनक जवाब देने वाला कोई नहीं था। लिहाजा कई विद्वानों से खुले अहाते में मिलने का सुख उठाया गया।

जहां हिन्दी की ज्योत जल रही थी और जहां बोधीवृक्ष विराजमान था वहां विद्वानों ने भी हिन्दी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए हर प्रशंसक के साथ सेल्फी भी ली और बात भी की। हर सत्र के स्थल उन विदेशी लोगों से ठसाठस भरे थे जिन्हें हिन्दी का प्रबलतम मोह भारत की सौंधी माटी के लिए विदेशी धरा से खींच लाया था। यह बात जहां शीतल अहसास दे रही थी वहीं यह दृश्य मन दुखाने वाला था कि कुछ अति विशिष्ट भारतीय आमंत्रितों के लिए यह सम्मेलन महज समय काटने का बहाना था। 
 
विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाएं, बाल साहित्य में हिन्दी, हिन्दी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता और देश और विदेश में प्रकाशन : समस्याएं एवं समाधान विषय पर आयोजित सभी समानांतर स‍त्र सार्थक और सफल रहे।

अधिकांश श्रोताओं का कहना था कि हिन्दी को लेकर इतना काम अबतक किसी सम्मेलन में प्रस्तुत नहीं हुआ। यही वजह है कि हिन्दी प्रेमियों ने छोटी-मोटी अव्यवस्थाओं को नजरअंदाज किया। पिछले सम्मेलनों में भाग ले चुके विद्वानों का भी स्पष्ट रूप से कहना था कि तुलनात्मक रूप से यह सम्मेलन उन सब पर भारी है क्योंकि यहां उन मठाधीशों का वर्चस्व नहीं है जिनके लिए हिन्दी से ज्यादा रूचि का विषय विदेश-भ्रमण होता रहा है।  
 
रात होते-होते अगले दिन महानायक अमिताभ बच्चन जी के ना आ पाने की खबर ने जोर पकड़ा। अटकलें, कयास और अफवाह के बीच आशा-निराशा का दौर घटता-बढ़ता रहा।  

तीसरा दिन : सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के सम्मेलन में ना आ पाने की खबर से दिन डूबा सा आरंभ हुआ। दो दिन तक उबला और पका सारा रोमांच ठंडा हो गया। गृह मंत्री राजनाथ सिंह के समापन समारोह में शामिल होने से पुन: सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद की गई। उनके आने के उपरांत देर तक सम्मान का दौर चला, सत्र विषयों पर दी गई अनुशंसाओं की प्रस्तुति चली, और जबरन जोश में लिपटे भाषण चले मानो अमिताभ जी के ना आ पाने की भरपाई की जा रही हो। सुबह से ही मेहमानों की रवानगी आरंभ हो गई। सम्मेलन में पधारे 'अप्रासंगिक' अतिथि‍यों का जाना सुनिश्चित था क्योंकि उन्हें तो अमिताभ जी भी नहीं मिलने थे और भाषा से उनका कोई सरोकार नहीं। 


 
तिस पर सुषमा जी भी नहीं आई, उनकी बेटी बांसुरी की तबियत ज्यादा बिगड़ गई। और रही सही कसर पेटलावद के दर्दनाक हादसे ने कर दी। लिहाजा कवि सम्मेलन भी स्थगित कर दिया गया। कुल मिलाकर तीसरा दिन उदास और उद्विग्न सा रहा बस उन्हीं लोगों को यह दिन खुशी दे सका जिन्हें वहां आने का अच्छा प्रतिसाद मिला। 

चौथा दिन : जोश-जोश में मुख्यमंत्री ने घोषणा तो कर दी कि प्रदर्शनी दो दिन और आम जनता के लिए रखी जाएगी पर वे नहीं जानते थे कि उनकी इस घोषणा से कितने कानों पर जूं रेंगी। चौथे दिन के आलम ने तीन दिन की सारी खुशियों पर पानी फेर दिया।  वास्तव में सी-डैक, वेबदुनिया, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी प्रदर्शनी स्कूल और कॉलेज के लिए ही रखी जानी थी पर अव्यवस्था और उतावलेपन में सबके लिए खुली रख दी गई।

चौथे दिन की सुबह होने से पहले ही मुख्यमंत्री के आदेशों की धज्जियां उड़ा दी गई। समापन और अगले दिन की दरम्यानी रात ही किसी स्टॉल के सीडी बॉक्स चोरी हो गए, किसी का लैपटॉप, कहीं परदे, तो कहीं टेबल, कहीं किताबें, तो कहीं पोस्टर्स और कहीं-कहीं तो विजिटर्स बुक पर भी लोगों ने हाथ साफ कर लिए। पुलिस बाहर आराम फरमाती रही और अंदर गंदगी का आलम पसरा रहा। 
 
जब 10 बजे आम जनता अंदर आई तो उनमें दो तरह के लोग शामिल थे। एक वह जो यह देखना चाहते थे कि आखिर इतने रुपए लगाकर सरकार ने किया क्या? अंदर ना जाने की इजाजत ने जिज्ञासा और बढ़ा दी थी। 
 
दूसरे वह जो वाकई हिन्दी से प्रेम करते हैं और स्कूल व कॉलेज से जुड़े हैं लेकिन ''पास'' नामक व्यवस्था ने जिन्हें तीन दिन तक भीतर झांकने भी नहीं दिया। 
 
वह जनता जो बस मुफ्त के मजे लेने के लिए भीतर चली आई थी उनके हाथ अंदर से जो और जैसा लगा उसके उन्होंने वाकई मजे ले लिए। 
 
पर उन चेहरों पर दुख स्पष्ट नजर आया जिन्हें सब उखड़ा और बिगड़ा हुआ मिला। वे लोग जो चाहते थे कि 3 दिन किसी तरह उन्हें आने दिया जाता क्योंकि इस सम्मेलन में आने वाले समय की संभावनाओं पर जो प्रदर्शनी रखी गई थी वह उनके काम की थी। 
 
मुख्यमंत्री के आदेश की अवहेलना में सबसे अहम तो सफाई कर्मचारियों ने हाथ खड़े कर दिए सो चारों तरफ बस कचरा, गंदगी और बदबू का साम्राज्य था। मुख्यमंत्री के वादे पर भरोसा कर प्रदर्शनी के आयोजक अलग-अलग केन्द्रों पर सफाई, सुरक्षा, पानी, कूलर, एसी और बैरीकेड्स की गुहार लगाते रहे पर सुनवाई के नाम पर मिले निहायत लापरवाह जवाब, अजीब सी झल्लाहट, चिढ़ा देने वाली उदासीनता और घटिया किस्म की सरकारी मक्कारी।   
 
1 बजे तक कीमती सामान लापता होते रहे और भूख से बेहाल प्रतिभागी प्रदर्शनी छोड़कर भी नहीं जा सके क्योंकि बाहर तेज बारिश शुरू हो गई थी। तीन दिन तक खानपान के विशाल आयोजन वाली जगह पर कूर्सियां उल्टी रखी थी और कर्मचारियों के चेहरे लटके हुए थे ।

नेट कनेक्शन के लिए दिए बॉक्स तक उठा लिए गए। अंतत: सबसे पहले गूगल टीम ने सामान समेटा, फिर वेबदुनिया ने, सीडैक के स्टॉल पर सबसे ज्यादा निराशा देखी गई क्योंकि इस प्रदर्शनी के साथ आए सभी प्रतिभागियों के पूणे जाने के टिकट बुक हो चुके थे। मुख्यमंत्री के कहने पर सभी टिकट रद्द हुए और इस विश्वास का खामियाजा सबसे ज्यादा उन्होंने ही भुगता। उन्हें अपने स्टॉल पर सामान के नाम पर सबकुछ बिखरा और बर्बाद मिला। 
 
काश कि विश्व हिन्दी सम्मेलन में चौथा दिन आता ही नहीं। कुल मिलाकर इस सम्मेलन ने उन सच्चे हिन्दी विद्वानों को अच्छा अनुभव दिया जो 'वटवृक्ष' बने बैठे साहित्यकारों की छत्रछाया में अपना योगदान स्पष्ट रूप से नहीं रख पाते हैं। हिन्दी भाषा के लिए अलग-अलग देशों से पधारे विद्वानों का काम देखकर मुग्ध हुआ जा सकता है और इस सम्मेलन ने तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद हिन्दी प्रेमियों को मुग्ध होने का अवसर दिया। एक घोषणा फिर आनन-फानन कर दी गई कि हर वर्ष हिन्दी सम्मेलन होगा। घोषणाओं के भार तले दबी जा रही हिन्दी की कराहट कौन सुनेगा.... अगले सम्मेलन में शायद इसका जवाब मिले।  
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